बिहार में पहले गुंडों द्वारा बूथ कैपचरिंग कर किसी दल या नेता को जितवाया जाता था, पर अब तो निर्वाचन अधिकारी परिणाम ही कैपचर कर रहे हैं. वैसे इसकी शुरुआत भी कोई नई बात नहीं है. पहले भी इस तरह हाथ की सफाई निर्वाचन अधिकारी पहले भी करते थे, और इसीलिए चुनाव से पहले मुख्यमंत्री अपने चहेते और विश्वसनीय उच्च पदाधिकारी को जिलों में डी.एम. बनाकर पदस्थापित करता था, और इसके लिए उच्चाधिकारियों द्वारा ऊंची बोली भी लगाई जाती रही है.
चुनाव में खर्चे का कोई लेखा-जोखा या औडिट भी नहीं होता. इस काम में डी.एम. को अच्छी-खासी आमदनी भी होती है, और स्वाभाविक है कि उस आमदनी का कुछ हिस्सा ऊपर वाले को भी तो देना ही होता है. जिला का मालिक बनकर चुनाव कराने का सौभाग्य सबको नहीं मिलता. कुछ लोगों को जीवन में कई-कई बार मिलते हैं, तो कुछ अभागों को कभी भी नहीं मिलता है. इसलिए सरकार की इस मेहरबानी का एहसान मानते हुए उसे उपकृत करना डी.एम. का भी दायित्व तो बनता ही है.
जनचेतना का निम्न स्तर के कारण ही राजनीतिक दलों, नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से भारत में लोकतंत्र का गला घोंटने का काम धीरे-धीरे आजादी के बाद से ही चल रहा है, जो अब खुलेआम हो रहा है. क्योंकि, लोकतंत्र के इस भ्रष्ट स्वरुप को ही लोगों ने लोकतंत्र के रूप में स्वीकार कर लिया है. राजसत्ता की कुर्सी प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा और राजभोग की अनंत लिप्सा ने आज भारत में लोकतंत्र को वैश्या बनाकर छोड़ दिया है, जिसकी फजीहत पर झूठ-मूठ के चिल्लाने वाले तो बहुत मिल जाएंगे, पर उसकी रक्षा के लिए हाथ बढ़ाने वाले खोजे भी नहीं मिलते.
चुनावी राजनीति की गहमागहमी महीने-दो महीने में खत्म हो जाती है, और फिर सभी चुनाव की कड़वी-मिट्ठी सच्चाई को भूलकर अपने दैनंदिन के कामों में पहले की तरह ही व्यस्त हो जाते हैं. पांच साल तक फिर सोते रहते हैं, और चुनाव की घोषणा के बाद अंगड़ाई लेते हुए उठते हैं, और अपनी-अपनी छोटी-बड़ी भूमिका के निर्वहन में जुट जाते हैं.
राजनीतिक चेतना का हाल तो ऐसा है कि शोषितों को यह तक पता नहीं है कि वह शोषित भी है, और कौन उसका शोषण करने वाला है ? अपनी गरीबी और लाचारी का प्रदर्शन कर कुछ प्राप्त कर लेना ही वह अपना सौभाग्य समझता है. अपने अधिकार और कर्तव्य के बारे में तो वह कुछ जानता ही नहीं है. उसका शोषक ही उसे कुछ देकर उसके लिए महान धर्मात्मा, त्यागी और दानी हो जाता है. भीख मांगना और भीख मिलने पर जय-जयकार करना ही वह अपना सौभाग्य समझता है.
विरोध, प्रतिकार, संघर्ष, लड़ना और बदलना जैसे शब्द उसके लिए बेमतलब हैं. न उनके पास धन है, न बुद्धि और विवेक, न शिक्षा और नही बेहतर जीवन की कोई चाहत ही है. न कोई कामना है, न अरमान हैं और न ही कोई सपना. ऐसे ही बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम का देश यह भारत है, और उनकी इसी लाचारी का फायदा सभी राजनीतिक दलों के नेता, संगठन, कार्यकर्ता, पूंजीपति और शासन-प्रशासन से जुड़े हुए अधिकारी और कर्मचारी उठा रहे हैं.
शोषकों के इस गिरोह में किसी को भी (अपवादों को छोड़कर ) मैंने अपनी पूरी जिंदगी में संवेदनशील और दायित्वबोध से भरा हुआ नहीं पाया. जो भी लोग इनके लिए लड़ते हैं, संघर्ष करते हैं और इनके अधिकारों की बात करते हैं, उन्हें लोग तिरछी नजर से देखते हैं. सामान्यतया ऐसे लोग अव्यवहारिक और सनकी या दिमाग से ढीला समझे जाते हैं. ऐसे लोगों को अपने परिवार से लेकर समाज या कहीं भी अनवरत विरोध का सामना करना पड़ता है, और अधिकतर लोग इस जद्दोजहद में टूट जाते हैं.
यही नहीं, जिनके लिए आप अपनी जिंदगी को भी दांंव पर लगाने के लिए तैयार हैं, वे भी अपने क्षुद्र स्वार्थ में आपसे किनारा कर लेते हैं. मैंने देखा है कि जिन मेहनतकशों के पास थोड़ी-सी पूंजी आ गई, वे भी अपने बच्चों की शिक्षा या बेहतर पोषण का प्रबंध न कर दारू, मुर्गा, ताड़ी, सूद पर पैसे चलाना और किसी तरह जिंदगी घसीट कर जीने के अलावा और कुछ भी नहीं जानते.
मेरे गांव में पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित जातियों के लोग प्रतिदिन कम से कम दस हजार रुपए का दारू और गांजे का सेवन करते हैं. वैसे ही कुछ लोगों की स्थिति थोड़ी-बहुत ठीक है, जो कोई सरकारी नौकरी करते हैं, या दूसरे राज्यों में जाकर कमाते हैं. लेकिन, ऐसे लोग भी अपने बच्चों के जन्मदिन, शादी-समारोहों और पर्व-त्योहारों के मौके पर अपने धन का फुहड़ प्रदर्शन करने से नहीं चुकते.
एक समय था,जब हमारे गांव के सभी पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित जातियों के लोग माले के मतदाता थे लेकिन आज की तारीख में वे माले के साथ ही भाजपा, जदयू, राजद, लोजपा और वैसे लोगों का भी समर्थक बनने से गुरेज नहीं करते, जिनसे उन्हें कुछ आमदनी हो जाए. जहां ऐसी मानसिकता और राजनीतिक चेतना से वंचित लोग हों, वहां उनकी मुक्ति का द्वार स्वत: ही बंद हो जाता है.
- राजकिशोर सिंह
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