जेएनयू में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वामी विवेकानंद की मूर्ति का अनावरण किया. जेएनयू में विवेकानन्द पर कुछ इस तरह की बातें हुई मानो विवेकानंद वहां वामपंथी विचारों के मुकाबले में खड़े किए गए हैं, जो बेहद गलत बात है. यदि कुछ वामपंथी विचार के लोगों ने मूर्ति अनावरण समारोह का विरोध किया, वह भी मुनासिब नहीं है.
मैं तो कहता हूं मोदी सरकार ने जेएनयू में विवेकानन्द के प्रतिमा का अनावरण कर देश को एक मौका दिया है कि जो लोग जेएनयू में विवेकानन्द को भगवा रंग में समझ कर हाईजैक करके ले गए हैं, और जनमानस में उसी तरह परोस रहे हैं अपने राजनीतिक मकसद से, उनसे विवेकानंद को वापस लाकर, सही ढंग से विन्यस्त करके इतिहास में उनकी सही प्रतिष्ठा स्थापित की जाये. और हमें इस ऐतिहासिक मौके को गंवाना नहीं चाहिए.
कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
जेएनयू में पहली बार विवेकानन्द की मूर्ति का अनावरण करते प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसी बातें कहीं जिससे विवेकानन्द को समझने में मदद पूरी तौर पर नहीं मिलती. कुछ छात्रों द्वारा अनावरण कार्यक्रम का विरोध भी समझ नहीं आता. बंगाल में होने वाले चुनावों के भी सन्दर्भ में यह मौका मिला है कि जो तत्व विवेकान्द को हाइजैक कर ले गए, अब उनकी सेक्युलर दुनिया में वापसी का यत्न हो.
1949 में अपने एक भाषण में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था ‘मुझे नहीं मालूम नौजवान पीढ़ी में कितने विवेकानन्द के व्याख्यान और उनका लेखन पढ़ते हैं. कह सकता हूं मेरी पीढ़ी के कई लोग उनसे बेहद प्रभावित हैं. नई पीढ़ी यदि विवेकानन्द के लेखन और भाषणों को पढ़े, तो बहुत कुछ अपने जीवन के लिए सीखेगी.’
इससे जाहिर है कि आज़ादी की दहलीज पर भी विवेकानन्द के प्रति औसत युवजन की जिज्ञासा क्षीणतर हो रही होगी. यह स्वीकार करना चाहिए कि भारतीय युवकों में विवेकानन्द को पढ़ने और समझने की बहुत जिज्ञासा नहीं है. विश्वविद्यालयों के शोध में भी उन्हें हिन्दू धर्म का मसीहा प्रचारित करते धर्म, दर्शन और मनोविज्ञान जैसे विषयों के अध्येताओं के संरक्षण में रखा जाता है.
सामाजिक जड़ताओं के कारण देश का बहुलांश समाज सुविधापरस्त जीवनभोगी ही है. कम्युनिस्ट विचारकों ने विवेकानन्द के प्रति प्रशंसा तथा आलोचना का संयुक्त भाव रखते हुए भी उन्हें खारिज नहीं किया है. यह आरोप भी है कि विवेकानन्द को मजदूरों के आंदोलन के एजेण्डा और कार्यप्रणाली की सांगठनिक समझ नहीं थी. वह तो इतिहास को कार्ल मार्क्स की देन और सत्ताशीन वर्ग की चाकरी में खटने वाले दलितों और पिछड़ों को भविष्य नियंता बनाने की विवेकानन्द की कशिश समाजवादी नस्ल का स्फुरण भर पैदा करती है. हो सकता है विवेकानन्द मार्क्स के वैज्ञानिक-समाजवाद से पूरी तौर पर संसूचित नहीं थे. कई समानताओं के बावजूद मार्क्स और विवेकानंद के रास्ते बुनियादी तौर पर अलग थे.
विवेकानन्द ने कहा है कि भविष्य में प्रोलितेरियत संस्कृति की श्रमिक सरकारें ही हुकूमत करेंगी. यह उद्घोषणा करने वाले पहले विश्व नागरिक विवेकानन्द थे. रूस के विचारक प्रिंस क्रोपाटकिन ने परस्पर सहायता के सिद्धान्त का शास्त्रीय विवेचन विवेकानन्द के उद्बोधन के वर्षों बाद किया. विवेकानन्द शूद्र राज की स्थापना के लिए बूर्जुआ वर्ग को बेदखल कर देना चाहते हैं. वे संघर्ष की रणनीति या तकनीक का ब्यौरेवार खुलासा नहीं करते. साम्यवादी गले यह बात नहीं उतरती कि शोषित पीड़ित वर्ग खुद संभावित सामाजिक क्रान्ति का फलसफा कैसे रच लेगा.
विवेकानन्द अकिंचन वर्ग पर इतिहास की दिशा और दशा को बदल देने का स्वप्नशील भरोसा रखते हैं. धर्म के सर्वोच्च तत्वों को लेकर विवेकानन्द को हिंदू धर्म का सबसे उर्वर प्रवक्ता कहा जा सकता है, लेकिन भारत बल्कि इंसानियत की सेवा का उनका मकसद और एजेंडा हर आदमी के लिए था. वहां हिंदू को वरीयता, प्राथमिकता या श्रेष्ठता का अहसास उन्होंने नहीं कराया.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आनुषंगिक संगठनों ने विवेकानन्द को ब्लैंक चेक समझकर उनके आदर्शों, विचारों और हिंदू धर्म की उनकी अवधारणाओं का राजनीतिक नकदीकरण करने में सियासी कुशलता बरती है. उन्होंने विवेकानन्द के साहित्य का जनवादी अध्ययन, सार्वजनिक विचार विमर्श, समाजमूलक व्याख्या और उसे जनउपयोगी साहित्य के जरिए प्रचारित करने में दिलचस्पी नहीं ली. ऐसा करने से हिन्दुत्व की समझ की लोक छवि को जनमानस द्वारा बेदखल करने की संभावना लगी होगी.
वेद, पुराण, गीता वगैरह के मुकाबले फुटबॉल खेलने की सलाह देते मुझे फौलाद की देह और वैसी ही धमनियां और नसें चाहिए- यह विवेकानन्द ने आध्यात्मिकता की तासीर के संदर्भ में कहा था. उनका हिंदू धर्म मिशनरी हिंदू धर्म कहा जाए तो बेहतर होगा. विवेकानन्द के उत्तराधिकार या दाय की बात तो शायद हिन्दुत्व के लिए सफल नहीं हो. विवेकानन्द के आंशिक रूप से उत्तराधिकारी बनने में संघ परिवार जितना सफल है, उसे पूरी तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता.
संघ परिवार के बड़े नेताओं ने विवेकानन्द को शुरू से अपनी जिज्ञासा के आकर्षण-केंद्र में रखा है. नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी, हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) आदि रामकृष्ण मिशन और विवेकानन्द की गतिविधियों के केंद्रों से जुडे़ रहे हैं. उन्होंने इसी बात का खुलकर काफी प्रचार भी किया है.
विवाद नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं और चिंतकों में विवेकानन्द की छवि को लेकर सबसे ज्यादा अनुकूलता हासिल करने की इच्छा और चेष्टा तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह में रही है. अर्जुन सिंह के कारण रामकृष्ण मिशन बेलूर में डीम्ड विश्वविद्यालय खोला जा सका.
जब तक पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की सरकार थी, ऐसा सोचा जाना लगभग असंभव रहा है. अर्जुन सिंह ने बाबरी मस्जिद के ढहा दिए जाने के बाद विवेकानन्द के संदेशों के जरिए अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियां बनाने के लिए भी कोशिशें की थीं. यह बात भी निर्विवाद है कि वामपंथियों को अन्य किसी भारतीय विचारक के मुकाबले नेहरू मॉडल की धर्मनिरपेक्षता तुलनात्मक दृष्टि से पसंद रही है. उन्होंने मुखालफत भी नहीं की.
डेढ़ सौ वर्ष पहले आए विवेकानन्द किस तरह इक्कीसवीं सदी के लिए ज़रूरी या उपादेय हैं ? क्या महानता माइग्रेन की बीमारी है जो कभी कभी उभर जाती है ? विवेकानन्द वक्तन बावक्तन प्रासंगिक नहीं, बल्कि शाश्वत हैं. उन्होंने फकत अपने समय के हिन्दुस्तान की हालत पर विचार नहीं किया था. न केवल फौरी चलताऊ इलाज सुझाया था. विवेकानन्द आज दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को लेकर अधिक आग्रही होते. विवेकानन्द के अनुसार दलित और आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों की भीख मांगेंगे नहीं, छीन कर लेंगे. उनका रास्ता लेकिन हिंसक नहीं वैचारिक क्रांति का होना चाहिए.
विवेकानन्द ने कहा था जीवन के हर क्षेत्र में स्त्रियों को जनसंख्या के अनुपात में आधे स्थान देने चाहिए. यह विद्रोही संन्यासी देश की महिलाओं का सबसे बड़ा नायक हुआ होता, इसके बावजूद विवेकानन्द कहां हैं ? रामकृष्ण मिशन का कितना फैलाव हो सका ? विवेकानन्द को लेकर देश क्या कर रहा है ? विवेकानन्द होते तो संविधान संशोधनों को लेकर क्या कहते ? बाबरी मस्जिद के ढहने को लेकर क्या कहते ? प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश को लेकर क्या कहते ? विवेकानन्द उस समय प्रासंगिक थे तो क्या आज नहीं हैं ? विवेकानन्द की भाषा का समकालीन तर्जुमा करने से उनका असली चेहरा दिखाई पड़ता है. आज उसकी ज़रूरत है. आज विवेकानन्द के सिद्धान्तों पर नहीं चलने को देशभक्ति समझाया जा रहा है. जो कुछ उन्होंने कहा है उस पर आचरण नहीं हो रहा है.
कांग्रेस जैसी प्रतिनिधि संस्था का चेहरा विवेकानन्द के जीवनकाल में उकेरा नहीं जा सका था. संगठन शुरुआत में जनता से असंबद्ध ही था. शिक्षित और धनाड्य वर्गों के संगठन से विवेकानन्द को बहुत उम्मीदें नहीं हो सकती थीं. भारत में औद्योगिक गतिविधियों का अभाव होने से कोई ताकतवर मजदूर संगठन नहीं बन पाया था. शिक्षित मध्यवर्ग और देश के बहुसंख्यक किसान भी बिखराव के कारण क्रान्ति कर सकने में पस्तहिम्मत थे. फिर भी विवेकानन्द ने स्वप्नशील भारत को साकार कर सकने की चुनौतियां बिखेरीं.
विवेकानन्द की भविष्यवाणी कि मजदूरों के इन्कलाब का पहला पड़ाव रूस होगा, 1917 में साकार हुई. महान बोल्शेविक अक्टूबर क्रान्ति ने जनता की जीत का परचम गाड़ा. मार्क्स और विवेकानन्द के निष्कर्षों में समानता भी पाई जाती है. दोनों के अनुसार यह सोच कल्पनामात्र है कि ईश्वर का व्यक्तिगत अस्तित्व है. यह कि वह कहीं स्वर्ग में रहता है और यदि कोई अपने दु:ख में उसकी उपासना करता है, उससे प्रेम करता है, तो उसको वहां से खुशियां प्राप्त होती हैं.
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