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प्रलाप

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किशोरी
तुम्हारी गाल पर उगे मुंंहासे
नव ग्रह हैं
या अंधकार की असीम कोख में पलते सितारे
तुम्हें कभी नहीं पता चलेगा

प्रमथ्यु ने आग को उसके झोंटे से पकड़ कर
जिस दिन पृथ्वी पर लाया
आदमी ने उसी दिन देखा
पहला पुच्छल तारा
और, अनिष्ट की संभावनाओं से जन्म लिया ईश्वर

लाजरस
तुम्हारा आना
इसी क्रम का व्यतिक्रम था
या और कुछ
किशोरी को नहीं पता

मैं एक दाने के गर्भ में समाया हुआ बीज हूंं
जीवन की संभावनाओं का दारोमदार
अब एक मलिन ऐश्वर्य है
मिट्टी के घरौंदों का
जिसे देख कर
पनियाती हैं आंंखें
जब तक खुली हैं
या हैं

तुमने कहा था
मुहांसों के अंतर से
पीब सा निकलूंंगी मैं
और मैंने विश्वास कर लिया था
मेरी अगली यात्रा
हरित भूमी पर सपाट
लुढ़क कर
एक गोल्फ होल की तरफ़
अनर्थक यात्रा होगी

कंकाल की आंंखों के खोह-सा
वही गह्वर
कालातीत हो कर भी
मुझे समाहृत करने की शक्ति रखता है
चिता की कोख से उठते वैराग्य की तरह
किसे मालूम

जो कुछ मैं लिख रहा हूंं
जो कुछ मैं सोच रहा हूंं
प्रतिध्वनि है
हरी पहाड़ियों के नीले वैभव की

अदिति
तुम्हारे शहर के होंठों पर
मचलते सागर सा हूँ
छलकता, लेकिन सीमाबद्ध

मुझे मालूम है
यह मेरी भाषा नहीं है
जैसे
लाजरस की भी कोई भाषा नहीं थी
( तुम सुन रहे हो लाजरस!
तुम्हारा बस एक वायवीय अस्तित्व था
जो ज़िंदा है अब तक अश्वत्थामा बनकर)

प्रेम की परिभाषा सिकुड़ते हुए
जब एक मुंंहासे पर केंद्रित होता है
जन्म लेती है अदिति
और, मर जाता हूंं मैं

मुझसे मृत्यु का अभिप्राय मत पूंंछों
मैं रोज़ मरता हूंं तुम्हारे अंदर
जब तुम जीते हो अपने को.

  • सुब्रतो चटर्जी

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ROHIT SHARMA

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