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19 नवम्बर : तुम्हारा नाम क्षितिज पर टंका है

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19 नवम्बर : तुम्हारा नाम क्षितिज पर टंका है

कनक तिवारीकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
सवाल फुफकार रहा है. देश केवल मुट्ठी भर नेताओं, उद्योगपतियों, न्यायाधीशों, नौकरशाहों और दलालों की जागीर है ? वह करोड़ों मुफलिसों, मध्यमवर्ग के लोगों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों और सभी दलितों का नहीं है ? जवाब इंदिरा गांधी के पास रहा है. अब भी है.

19 नवम्बर का दिन कैलेंडर में दुनिया की सबसे ताकतवर लोकतांत्रिक महिला राष्ट्राध्यक्ष के नाम दर्ज है. उनके सामने पौरुष की डींग सहमती रही. इंदिरा गांधी के जीवन का अर्थ संघर्ष की जुदा-जुदा बानगियों में है. कुदरत ने अन्य नेताओं के नसीब में भी साहस को दर्ज किया होगा. वे केवल अपनी चमड़ी बचाते रहे. इंदिरा के खाते में आपातकाल लगाने का क्रूर निर्णय दर्ज है. उसकी आड़ में प्रशासन तंत्र ने जम्हूरियत के मूल्यों की हेठी की, फिर भी कुछ लोग सियासती श्रेय लूट ले गए. वे राजे-रजवाड़ों, कालेबाजारियों, उद्योगपतियों, यथास्थितिवादियों और दक्षिणपंथियों के पैरोकार, प्रवक्ता, प्रतिनिधि भी रहे. इंदिरा को वामपंथी साथ होने पर भी वक्त ने नहीं बख्शा. वे संसद और सत्ता से पार्टी सहित अपमान का घूंट पीकर बेदखल कर दी गईं.

संसदीय संस्थाओं को तोड़ने का आरोप झेलती इंदिरा के जीवन में चुनौतियां, दु:ख, संघर्ष और एकाकीपन की उलटबांसी की तरह करिश्मे ही करिश्मे हैं. वे उनसे जूझती रही. संसार में किसी पार्टी के आला नेता ने अपनी ही पार्टी की बदगुमानी की कमर नहीं तोड़ी. पार्टी संविधान के लकीर के फकीर व्याख्याकार तथा दौड़ नहीं सकने की असमर्थता के लाचार बूढ़ों ने इंदिरा को पार्टी से औपचारिक तौर पर निकाल दिया.

दुर्धर्षमय इंदिरा की अगुवाई में कार्यकर्ताओं के हुजूम ने पुरानी पार्टी को कायम रखने नया चेहरा बना दिया. पार्टी संविधान की दुहाई दे रहे नेता घाव की पपड़ी की तरह सूखकर झड़ गए. कांग्रेस और देश ने इंदिरा में सबसे साहसिक क्वथनांक ढूंढ़ा. उन्होंने पति, पिता और जवान बेटा खोया. अपने एकाकीपन से उपजे रूखेपन को जनता के लिए करुणा में तब्दील किया. यह इंदिरा थीं जिन्होंने संविधान के मुखड़े में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को जोड़ा. मूल कर्तव्यों की सीख संविधान में गूंथी.

संसार में नहीं हुआ कि बदगुमानी, बदनामी, बदखयाली के आरोप में सत्ता से बेदखल नेता अगले चुनाव के आधी अवधि में ही केवल अपने दमखम पर दो तिहाई बहुमत लेकर लौट आये. जनता ने इंदिरा के और इंदिरा गांधी ने जनता के वायदे निभाए. कई बड़े उद्योगों लोहा, सीमेंट, कोयला, खनिज, तेल, गैस, बाॅक्साइट, मैग्नीज वगैरह का राष्ट्रीयकरण करने की हिम्मत आजाद हिदुस्तान में केवल इंदिरा गांधी ने दिखाई.

राजेरजवाडों की शाही थैली और ओहदे छीनने का दमखम संविधान निर्माताओं तक ने नहीं दिखाया. वहां स्वनामधन्य जवाहरलाल केंद्रीय नेता थे. तिलिस्मी नेता ने ‘गरीबी हटाओ’ का मौलिक ऐलान कांग्रेस के माथे तिलक बनाकर चस्पा कर दिया. पाकिस्तान से लगातार खतरे भांपते वक्त की नजाकत देखकर पड़ोसी की नापाक देह का दायां हाथ तोड़कर नया मुल्क बांग्लादेश बनवा दिया. भारत के हुक्मरान अमेरिका की ताकत के सामने बाअदब रहे हैं. इंदिरा ने सोवियत रूस से गोपनीय आश्वासन लेकर हिंद महासागर में श्रीलंका के पास अमेरिका के ताकतवर सातवें जंगी जहाजी बेड़े को धता बताकर सेना को आदेश दिया. 36 घंटे में पाकिस्तान के 85 हजार सैनिक जकड़ लिए गए.

इंदिरा गांधी के खिलाफ कई अफवाहें मुख्तसर हैं. विरोध लेकिन पुरअसर नहीं हो पाता था. लोग कहां जानते हैं कि बेहद पढ़ाकू इंदिरा पुस्तकें पढ़े बिना सोती नहीं थी. साहित्य, संस्कृति और कला की समझ असाधारण बौद्धिक पिता के डीएनए से मिली. बेटी इंदु को लिखी चिट्ठियां इतिहास का शिलालेख हैं. इंदिरा प्रियदर्शिनी नाम धारे गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर की शिष्या थी.

आजादी की लड़ाई में आयकर दाता नहीं होने से जेल में साधारण कैदियों के साथ मजदूरी के काम बेझिझक किए. नेहरू ने बेटी को नहीं अलबत्ता जयप्रकाश नारायण को उत्तराधिकारी घोषित किया था. प्रधानमंत्री पिता की हर फाइल, फैसले, बैठक, इंटरव्यू, यात्रा में इंदिरा की पैनी निगाह और सलाह होती थी. कांग्रेस की युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष इंदिरा ने केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने में जवाहरलाल का खुला विरोध किया. कार्यसमिति से पिता को निकाल भी दिया. अपने विवाह को लेकर पिता की मुखालफत की और गांधीजी से फैसला कराया. नेहरू ने भी बेटी को संसद नहीं भेजा.

नेहरू परिवार में खुशामदखोरों, चुगलखोरों, मंथरा वृत्ति के चाटुकारों और ‘आग लगाओ जमालो दूर खड़ी’ के मुहावरे की घुसपैठ कायम है. ओम मेहता, बंशीलाल, संजय गांधी, सिद्धार्थ शंकर राय, विद्याचरण शुक्ल, हरिराम गोखले, पी. शिवशंकर, माखनलाल फोतेदार, राजेन्द्रकुमार धवन और न जाने कितनों को आपातकाल थोपने का दोष दिया जाता है.

जयप्रकाश नारायण और नेहरू परिवार की आत्मीयता के बावजूद जयप्रकाश को अगुआ कर इंदिरा के खिलाफ लामबंद किया, फिर उनके कंधे बंदूक रखकर अपनी ताजपोशी करा ली. ऐसे लोग आज भी सत्ता में हैं. मुकाबले में पहले इंदिरा हारी. बाद में जयप्रकाश भी. पंजाब में खालिस्तान बनाने की साजिश ने इंदिरा की हत्या की. हत्यारों के समर्थक हाल तक पंजाब में सत्ताशीन रहे. हरमिन्दर साहब में सैनिक और पुलिस का प्रवेश देश के गले नहीं उतरता. इंदिरा की हत्या के बाद हजारों सिक्खों का कत्लेआम हुआ. उन्हें बेघर किया गया. वह इतिहास का अमिट कलंक है.

इंदिरा में युद्ध के बीजाणु ही नहीं थे, उनकी कुरबानी के बाद पार्टी को अस्सी प्रतिशत सीटें मिली, यह जनता में इंदिरा की लोकप्रियता का स्थायी प्रमाणपत्र है क्योंकि ईवीएम मशीन उन दिनों नहीं थी. कांग्रेस में इंदिरा गांधी के नाम की मनका की फकत माला बनाकर रखी है. कांग्रेस के आर्थिक और सामाजिक घोषणापत्रों में धीरे-धीरे इंदिरा गांधी की उद्घोषणाओं को बीन-बीनकर उपेक्षा के हवाले कर दिया गया है. शायद प्रणव कुमार मुखर्जी के संपादन में प्रकाशित कांग्रेसी ग्रंथ में इंदिरा को लेकर उत्साहवर्धक उल्लेख नहीं बताया जाता.

इंदिरा जनता से सीधा संवाद करती थी, पार्टी के बिचौलियों के जरिए नहीं. नेहरू और इंदिरा चुम्बकीय करिश्मों से लैस थे. कई विरोधी नेता, विचारक और पत्रकार इंदिरा गांधी के यश से क्षुब्ध रहे हैं. वे नहीं जानते यदि वीर नहीं होंगे तो गीत गाने वाले मर जाते हैं.

लोकतंत्रीय भारत में फौरी साहसी फैसले लेने में इंदिरा का मुकाबला आगे भी संभव नहीं लगता. आपातकाल से प्रताड़ित जेलयाफ्ता पेंशनधारी स्वतंत्रता संग्राम सैनिक घोषित हो गए. सवाल फुफकार रहा है. देश केवल मुट्ठी भर नेताओं, उद्योगपतियों, न्यायाधीशों, नौकरशाहों और दलालों की जागीर है ? वह करोड़ों मुफलिसों, मध्यमवर्ग के लोगों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों और सभी दलितों का नहीं है ? जवाब इंदिरा गांधी के पास रहा है. अब भी है.

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