अगर आपका बच्चा कविता लिखने लगे और कविता में कहे कि ‘पूरब से निकले सूरज नाना, सारी दुनिया ने उनका कहना माना’ तो आप उसकी पीठ थपथपाएँगे, कितना अच्छा बच्चा है. लेकिन वही बच्चा यदि स्कूल से घर लौटकर यह कहे कि आज हमें स्कूल में पढ़ाया गया कि ‘सूर्य रोज पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाता है, सुबह पूर्व से निकलता है और शाम को घूमकर पश्चिम में आ जाता है और पृथ्वी बिल्कुल नही घूमती बल्कि अपने स्थान पर स्थिर खड़ी रहती है.’ तो आप क्या करेंगे ? उसे डाँटेंगे. तुम्हे शर्म नही आती झूठ को सच मानते हुए ? किस टीचर ने बताया ऐसा झूठ-झूठ ? फिर या तो आप उस बच्चे को उस स्कूल से निकाल लेंगे या ऐसा बताने वाले उसके टीचर की पिटाई कर देंगे ?
लेकिन एक समय था जब यही मान्यता सब ओर व्याप्त थी और ऐसा कहने वालों को कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों ओर घूमती है, ज़िंदा जला दिया जाता था. उनका अपराध यह था कि वे इस बात का समर्थन करते थे कि सूर्य पृथ्वी का केंद्र है और पूर्व से पश्चिम की परिक्रमा नहीं करता बल्कि पृथ्वी ही उसकी परिक्रमा करती है. चर्च ने इसे धर्म के खिलाफ कहा और उन्हें दंड दिया.
पुनर्जागरण काल में कोपरनिकस और उनके अनुयायी गैलेलियो के समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच छिड़े संघर्ष की बात आप सभी जानते हैं. यह धर्मसत्ता का युग था और वह राज्य के अधीन होकर भी ईश्वरीय सत्ता की प्रतिनिधि होने के फलस्वरूप अत्यंत शक्तिमान थी. कोपरनिकस और गैलेलियो के वैज्ञानिक विचार इतने क्रान्तिकारी थे कि उनके समर्थकों को शारीरिक यातनाएं दी गईं और जिंदा जलाया गया.
कोपरनिकस की पुस्तक ‘आकाशीय गोलकों के परिक्रमण के बारे में ‘ ( 1543 ) उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई इसलिए वे जिंदा जलाए जाने से बच गए लेकिन यातना का यह सिलसिला जारी रहा. सन 1600 में ब्रूनो को जिंदा जलाया गया. (इसी ब्रूनो पर सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने अपनी कविता ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ लिखी है.) गैलेलियो ने अंतिम समय में अपने मतों को त्याग दिया था, फिर भी सत्तर वर्ष की उम्र में उन्हें बंदी बना लिया गया और नौ वर्ष अर्थात उनकी मृत्यु पर्यंत उन्हें कारागार में रखा गया.
इन वैज्ञानिकों को इसलिए दण्डित नहीं किया गया कि वे विज्ञान के सत्यों की रक्षा कर रहे थे अथवा वे अपने वैज्ञानिक उपकरणों यथा टेलिस्कोप आदि का महत्व साबित करना चाहते थे, इसका मूल कारण यह था कि वे तत्कालीन धर्मगुरुओं के उस विज्ञान विरोधी विश्व दृष्टिकोण पर प्रहार कर रहे थे, जो उस समय समाज में व्याप्त था और जिसकी सहायता से वे जनता को ईश्वर, पाप-पुण्य, नरक आदि का भय दिखाकर उसका शोषण करते थे.
इस बात को चार सौ से अधिक वर्ष बीत चुके हैं. विश्व के समस्त धर्मगुरू अब अपना रूप बदल चुके हैं, उनमे से अधिकांश अब ‘बाबा’ कहलाने लगे हैं लेकिन अपने उसी अवैज्ञानिक विश्व दृष्टिकोण के साथ वे अभी भी धर्म के अलग अलग मंचों पर और अलग अलग ‘मठों’ में विराजमान हैं. कहीं-कहीं उन्हें राजनीतिक आश्रय भी प्राप्त है. वे जानते हैं कि इस जनता के दिमाग़ में धर्म और ईश्वर का भय उत्पन्न कर, इनके अशिक्षित होने का लाभ उठाकर अंधविश्वास पैदा कर अभी भी इन्हें मूर्ख बनाया जा सकता है औऱ ठगा जा सकता है.
अगर आज भी हम भयवश या अपने स्वार्थवश प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से ऐसे ठग लोगों की मदद कर रहे हैं तो हमें अपने आप पर शर्म क्यों नहीं आनी चाहिए ? बच्चों को तो हम अब भी सच ही बताते हैं, उन्हें ऐसे पाखंडी बाबाओं के बारे में भी बतायें.
- शरद कोकास
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