बिरिंची खड़ा है. बिरिंची काफ़ी देर से चौराहे पर खड़ा है. लेबर चौक. उसके हाथ में कुदाली है. सुबह की ठंढी हवा उसके बदन को चीर रही है. उसके बदन पर तीन सालों पहले ख़रीदी हुई क़मीज़ है, जगह जगह फटी हुई और बदरंग. उपरी जेब में बीड़ी का एक बंडल है, जिसमें दो सुट्टे बचे हुए हैं. एक भी रुपया नहीं. आज काम नहीं मिलने पर पैदल सात मील चलकर घर लौटना होगा. वहाँ भी भुखमरी.
इन दिनों लेबर चौक पर यदा कदा काम मिलता है. इक्का-दुक्का लोग मास्क लगाए दिखते हैं. लेबर कॉंट्रेक्टर रामधन नहीं दिखता. सुना है तालाबंदी में गाँव चला गया, अभी तक नहीं लौटा. बिरिंची जहाँ खड़ा है, उसके बाजू में एक चाय ठेला है. प्लास्टिक के दो स्टूल ग्राहकों के लिए रखा हुआ है. खड़े-खड़े पैर थक जाने पर भी कोई उपाय नहीं है. उंकडु बैठे दूर तक नहीं दिखता. कोई ग्राहक आता हुआ दिखने पर बिरिंची दूर से पहचान लेता है. ग्राहक और सामग्री में अन्योन्याश्रय संबंध होता है.
ये बाज़ार है. क्रीतदासों को अब लोहे की ज़ंजीरें नहीं पहनाई जाती. ज़रूरत नहीं है. परिस्थितियों की ज़ंजीरें लोहे से ज़्यादा सख़्त होती हैं, यह मानव सभ्यता का अनुभव है. ग्यारह बजने को है. धूप में हल्की गर्मी है. बिरिंची खड़े-खड़े थक चुका है. वह बार-बार स्टूल की तरफ़ देखता है. अव्वल तो दोनों स्टूलों पर कोई न कोई बैठे दिखता है. कभी एक ख़ाली भी रही तो हिम्मत नहीं होती. स्टूल पर बैठने के लिए चाय पीनी होगी. चाय के लिए पैसे चाहिए. पैसे नहीं हैं.
बिरिंची को दूर से एक गाड़ी आती दिखती है. लेबर चौक के पास आकर गाड़ी धीमी होती है. बिरिंची समझ जाता है कि सेठ जी को लेबर की तलाश है. वह हाथ में कुदाली पकड़े कार की तरफ़ भागता है. उसके साथ लगभग दर्जन भर लेबर भी भागते हैं. सभी कार को घेर लेते हैं.
‘ जो भी दीजिएगा मालिक, काम कर देंगे,’ सबकी ज़ुबान पर एक ही बात.
‘ जो भंगी हो वही सामने आए, टंकी साफ करवाना है.’
सभी बिखर गए. दरअसल, भंगियों की एक टोली सुबह-सुबह किसी ने उठा ली थी. इस भीड़ में कोई भंगी नहीं था. बिरिंची सोच में पड़ गया. वह ब्राह्मण था. पहले भूमिहीन किसान, फिर लेबर बन गया था. उच्च जाति का होने का बहुत ख़ामियाज़ा उसने पहले भुगता था. कई बार उसे उसकी जाति के चलते नाली काटने जैसे काम नहीं मिलता. धीरे-धीरे वह रामदर्शन पांडेय से बिरिंची बना. अब लोग उसे बेरोकटोक काम पर ले लेते. ब्राह्मण देवता से गंदे काम करवाने का रिवाज हमारे सभ्य समाज में नहीं है.
‘ मैं हूँ मालिक, मैं कर दूँगा,’ बिरिंची ने आगे बढ़ कर कहा.
‘अरे, तू तो चमार है, भंगी का काम कैसे कर लेगा ?,’ दशरथ ने चिल्ला कर कहा.
सेठ जी समझ गए. ये बेवकूफ आपस में ही लड़ मरेंगे. वह बोले –
‘देखो, काम तो लेबर का ही है. इसमें जात-पात क्या देखना. मुझे चार लेबर चाहिए, जिसकी मर्ज़ी हो चले.’
इतना सुनना था कि दशरथ भी जाने को राज़ी हो गया. दो और राज़ी हुए. चारों सेठ के दिये हुए पते पर चल पड़े.
दिन भर चारों पैखाने की टंकी मुँह पर गमछा बाँधे साफ करते रहे. किसी ने टिफ़िन नहीं खाया. बदबू बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं थी.
देर शाम, घर लौटकर बिरिंची ने अपनी पत्नी के हाथों एक हज़ार रुपए मज़दूरी के थमा कर नहाने चला गया. नहाते समय उसने कमर में लपेटे हुए जनेऊ को तोड़ कर फेंक दिया. लेबर की झुग्गियों में छुपने के लिए जनेऊ छुपाने की ज़रूरत थी, इसलिए कमर से बाँध कर रखता ताकि दिखे नहीं.
उस रात वह खाना नहीं खा पाया. मुँह में पहला कौर जाते ही अजीब-सी बदबू आई और उसे उल्टी हो गई. बहुत सारी उल्टी होने के बाद बिरिंची निढाल हो कर ज़मीन पर लुढ़क गया.
अगले दिन से बिरिंची कभी ख़ाली स्टूल की तरफ़ नहीं देखता था.
- सुब्रतो चटर्जी
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