सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के खिलाफ उभरे जनाआक्रोश का एक सेफ्टी वॉल्व है. इसका अब न्यायतंत्र से कोई संबंध नहीं रह गया है. देश के हजारों प्रतिभाशाली लोग जब जेलों में सड़ रहे हों तब हत्यारोपी और दंगाई अर्नब गोस्वामी जिसके अफवाह और नफरत फैलाने के कारण लाखों लोग परेशान हुए हैं और कई पीट-पीटकर मार डाले गये हैं, के बचाव में जिस कदर सुप्रीम कोर्ट औपे-पौने भागी आई, वह भारतीय न्यायतंत्र के इतिहास में एक काला सच बनकर उभरा है.
यही सुप्रीम कोर्ट चंद रोज पहले इसी हत्यारोपी अर्नब गोस्वामी को निचली अदालत में जाने और बार-बार सुप्रीम कोर्ट आने पर फटकार लगाई थी और अब अचानक रुख पलटते हुए आननफानन में इसकी रिहाई सुनिश्चित करने के लिए ‘दो दिन भी इंतजार करना न्याय की अनहोनी’ हो गई है, जबकि लाखों लोग न्याय की आस में वर्षों से जेलों में सड़ रहे हैं, इसकी पड़ताल करना जरूरी है.
पिछले छह सालों में यह तो पूरी तरह साबित हो चुकी है कि सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार की जूती है और इसका काम अन्य तमाम संवैधानिक संस्थानों की तरह ही मोदी सरकार को किसी भी आपदा या जनाक्रोश से बचाना भर है. इससे न्याय की उम्मीद करना फिजूल है. यह विशुद्ध तौर पर मोदी सरकार और उसके लग्गूओं-भग्गुओं को बचा रही है. तब सवाल उठता है मोदी सरकार का भोंपू अर्नब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट ने जेल ही क्यों जाने दिया ?
इसका एक जबाव है मोदी सरकार की विवशता. दरअसल अर्नब गोस्वामी एक पत्रकार के तौर पर न केवल देश के अंदर ही बदनाम हो गया है, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बदनाम है. इसके साथ ही मोदी सरकार के मजबूत समर्थक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बुरी तरह हारने के संकेत आ रहे थे.
ट्रंप के हारने के संकेत से मोदी सरकार बुरी तरह घबराई हुई थी और किसी भी तरह का रिस्क लेना नहीं चाहती थी, जिस कारण बदनाम दंगाई अर्नब गोस्वामी को जेल जाने से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने का साहस नहीं कर पाई. परन्तु कायर मोदी सरकार को बिहार विधानसभा चुनाव में ज्योंहि एनडीए की ‘पूर्ण बहुमत’ की खबर आई, मोदी सरकार आत्मविश्वास से लबरेज हो गई और सुप्रीम कोर्ट को अर्नब गोस्वामी जैसे बदनाम दो कौड़ी के ‘पत्रकार’ को बचाने का निर्देश दे दिया, जिसके पालन में सुप्रीम कोर्ट औने-पौने दौड़ी आई.
देश के जेलों में जब हजारों विद्वान सड़ रहे हों, और उसकी ओर देखने की सुप्रीम कोर्ट को फुर्सत नहीं हो, तब इस दो कौड़ी के हत्यारोपी अफवाहबाज ‘पत्रकार’ के रिहाई के लिए सुप्रीम कोर्ट की तड़प का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह जेल प्रशासन और कमिश्नर को आदेश का पालन होने को सुनिश्चित करने के निर्देश दिए और कहा कि ‘वो नहीं चाहते कि रिहाई में दो दिनों की देरी हो. अगर वो निचली अदालत को जमानत की शर्तें लगाने को कहते तो और दो दिन लग जाते, इसलिए हमने 50,000 का निजी मुचलका जेल प्रशासन के पास भरने को बोल दिया है. अगर कोर्ट इस केस में दखल नहीं देता है, तो वो बरबादी के रास्ते पर आगे बढ़ेगा.’
सुप्रीम कोर्ट के निर्लज्जता कि इससे बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है जब वह एक अपराधी और पेशेवर अफवाहबाज साजिशकर्ता अर्नब गोस्वामी को ‘भिन्न विचारधारा’ वाला बतलाते हुए सुप्रीम कोर्ट का जज कहता है कि ‘आप विचारधारा में भिन्न हो सकते हैं लेकिन संवैधानिक अदालतों को इस तरह की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी वरना तब हम विनाश के रास्ते पर चल रहे हैं.’
सवाल उठता है एक हत्यारोपी अफवाहबाज, जिसने अफवाह फैलाकर सुशांत सिंह राजपूत के आत्महत्या को हत्या बतलाकर सेना के अधिकारी की बेटी रिया चक्रवर्ती को जेल भेजता है, पालघर में साघुओं की हत्या को लेकर राज्य सरकार को बदनाम करता है, कोरोना के नाम पर जमातियों के बहाने देश में नफरत भड़काता है, एक चुनी हुई सरकार गिराने का साजिश करता है, देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ गालीगलौज और अपशब्दों का प्रयोग तू-तड़ाक की भाषा में करता है, ऐसे अपराधी की भी कोई विचारधारा हो सकती है ?? निर्लज्ज सुप्रीम कोर्ट को यह जरूर बतलाना चाहिए कि इस अपराधी अर्नब गोस्वामी की विचारधारा क्या है ??
उसी वक्त जब भिन्न विचारधारा के नाम पर अर्नब जैसे दंगाई गुंडों को सुप्रीम कोर्ट आनन-फानन में रिहा कर रहा है, उसी वक्त इसी केन्द्र सरकार देश मेंं भिन्न विचारधारा वाले मीडिया को नियंत्रित करने या खत्म कर देेेनेे वाली अधिसूचना जारी करती है, और तत्काल प्रभाव से लागू भी कर देती है, तब यह सुप्रीम कोर्ट अपना मूंह सी लेती है. अभिव्यक्ति की दुुहाई देेना वाले सुप्रीम कोर्ट से चूं तक की भी आवाज नहीं आती.
केन्द्र की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक मामले में वकालत की थी कि ‘ऑनलाइन माध्यमों का नियमन टीवी से ज्यादा जरूरी है.’ क्योंकि टीवी मोदी सरकार द्वारा नियंत्रित है, जबकि ‘ऑनलाइन माध्यमों से न्यूज़ या कॉन्टेंट देने वाले माध्यम’ स्वतंत्र, सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में कहा जाये तो भिन्न विचारधारा होने के कारण सरकार के हर अच्छे बुरे नीतियों व झूठों का पर्दाफाश करती रहती है, को मंत्रालय के तहत लाने का कदम उठाया है.
अर्नब गोस्वामी को रिहा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि केन्द्र सरकार के नीतियों की आलोचना करना, गरीब आदिवासियों की मदद करना, आम आदमी के अधिकारों के लिए संघर्ष करना आदि अपराध है, जबकि गालीगलौज करना, समाज में नफरत भड़काना, लोगों को काम कराकर पैसे न देना और उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर करना, निर्दोष को फर्जी प्रोपेगैंडा फैलाकर जेलों में बंद करना, केन्द्र की मोदी सरकार की चापलूसी करना आदि पुण्य कर्म हैं, ‘भिन्न विचारधारा’ है.
क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चंद्रचूड ने साफ कहा है कि ‘जब कोई कांट्रेक्ट दिया जाता है तो वो आमतौर पर किसी ठेकेदार को दिया जाता है. यदि किसी ने भुगतान नहीं किया है तो क्या किसी टॉप व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है कि आपने भुगतान नहीं किया है.’ सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश हुए वकील कपिल सिब्बल से पूछा कि ‘एक ने आत्महत्या की है और दूसरे के मौत का कारण अज्ञात है. गोस्वामी के खिलाफ आरोप है कि मृतक के कुल 6.45 करोड़ बकाया थे और गोस्वामी को 88 लाख का भुगतान करना था. एफआईआर का कहना है कि मृतक ‘मानसिक तड़पन’ या मानसिक तनाव से पीड़ित था ? साथ ही 306 के लिए वास्तविक उकसावे की जरूरत है. क्या एक को पैसा दूसरे को देना है और वे आत्महत्या कर लेता है तो ये उकसावा हुआ? क्या किसी को इसके लिए जमानत से वंचित करना न्याय का मखौल नहीं होगा ?’
यह एक ऐसी नाजिर सुप्रीम कोर्ट ने पेश की है कि प्रभावशाली व्यक्ति (तात्पर्य मोदीभक्त व्यक्ति से है) यदि किसी से काम कराकर पैसे न दे, जिस कारण उस व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़े तो यह अपराध नहीं है, जिसमें उसे गिरफ्तार किया जा सके. यह तो वह पुण्य कर्म है, जिसके लिए उसे भारत रत्न का पुरस्कार दिया जाना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट को यह भी जोड़ देना चाहिए. वाह रे सुप्रीम कोर्ट ! जो एक वेश्यालय से भी बदतर हो चला है.
सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब मामले में कहा है कि ‘हमारा लोकतंत्र असाधारण रूप से लचीला है. पॉइंट है कि सरकारों को उन्हें (टीवी पर ताना मारने को) अनदेखा करना चाहिए. आप (महाराष्ट्र) सोचते हैं कि वे जो कहते हैं, उससे चुनाव में कोई फर्क पड़ता है ?’ क्या नहीं लगता सुप्रीम कोर्ट न्यायिक संस्थान की जगह चुनाव आयोग की भूमिका में आ रहा है, जहां वह मोदी सरकार विरोधी राजनीतिक दलों का मजाक बना रही है ? भारत में अब लोकतंत्र बचा ही नहीं है. यह लोकतंत्र के नाम पर केवल फासीवाद को सुरक्षित किया जा रहा है. स्वीडन की संस्था ने कहा, भारत में लोकतंत्र खत्म होने के करीब है. ‘वी- डेम इंस्टीट्यूट’ ने 179 देशों का अध्ययन करते हुए ‘उदार लोकतंत्र सूचकांक’ जारी किया है. इस सूची में भारत 179 देशों में 90वें पायदान पर है. इस सूची में भारत के पड़ोसी श्रीलंका 70वें और नेपाल 72वें स्थान पर हैं.
सुप्रीम कोर्ट अब अर्नब गोस्वामी और कपिल मिश्रा जैसे दंगाइयों को बचाने और मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सवाल खड़े करने वाले लोगों को निपटाने का औजार मात्र है. अर्नब गोस्वामी को रिहा करते हुए सुप्रीम कोर्ट कहता है, ‘अगर हम एक संवैधानिक अदालत के रूप में कानून नहीं बनाते और स्वतंत्रता की रक्षा नहीं करते हैं तो कौन करेगा ?’ जाहिर है राज्य सभा की सदस्यता कौन लेगा, यह प्रश्न भी सामने हो ?? क्या मालूम कहीं के मुख्यमंत्री बनने का भी तगड़ा ऑफर सामने इंतजार कर रहा हो ??
कहीं ऐसा न हो कि दंगाईयों और अपराधियों को बचाते-बचाते सुप्रीम कोर्ट भी इतना बदनाम हो जाये कि लोगों के थूकों और बद्दुआओं में सुप्रीम कोर्ट डूबकर मर जाये. सोशल मीडिया पर अनेक बुद्धजीवियों ने अपने-अपने तरीके से सवाल उठाया है, जो इस प्रकार है.
सौमित्र राय : अर्नब को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलनी थी, सो मिल गई लेकिन इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का जो तर्क है, वह हैरतअंगेज़ है. इसे यूं समझें. एक बाप के दो बेटे थे. बड़ा बेटा ढीठ, तुनकमिजाज और कुतर्की. छोटा वाजिब सवाल पूछने वाला. दोनों के बीच जब बहसबाज़ी होती तो ढीठ अपनी शिकायत लेकर बाप के पास पहुंचता और जीत उसी की होती. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल जो था. दूसरे को उसके सवालों के लिए अक्सर डांट खानी पड़ती और कभी सज़ा भी मिलती. एक दिन बड़े ने सरेआम बाप की इज़्ज़त उतार दी. बाप खून के आंसू पीकर रह गया.
अर्नब के मामले में सुप्रीम कोर्ट को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हद पहले तय करनी थी. फिर देखना था कि क्या लक्ष्मण रेखा तोड़ी गई है ? जब भी प्रेस या मीडिया की लक्ष्मण रेखा तय करने का मौका आता है तो सरकारें यह कहकर पीछे हट जाती हैं कि ऐसा करना सेंसरशिप लगाने जैसा होगा. लेकिन जब भी कोई पत्रकार सरकार की नाक के नीचे चल रहे गैरकानूनी खेल को उजागर करता है, उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है. गाहे-बगाहे सरकार उसे उठा लेती है या फिर वह माफिया का निशाना बन जाता है.
क्या करना चाहिए और क्या नहीं- यानी नियम और शर्तें किसी भी कानून को एक तय सीमा में मज़बूत ही करती है. जब सरकार यह सीमा तय न करे और प्रेस की आज़ादी को स्वनियंत्रण के हवाले कर दे तो इसमें उसका हित भी शामिल होता ही है. सरकार को अर्नब से कोई परेशानी नहीं, क्योंकि वे सरकार के हित साधक हैं. आज कोर्ट ने भी दिखा दिया कि अर्नब ज़्यादा जरूरी हैं, बनिस्बत पत्रकारिता का वास्तविक निर्वहन करने वालों के.
कोर्ट ने आज यह भी बता दिया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता सिर्फ अर्नब जैसे चंद VVIP लोगों की जागीर है. इसके लिए सरकार का भोंपू बनना होगा. सुप्रीम कोर्ट बार-बार दिखा रही है कि अर्नब जैसों के लिए उसके दरवाज़े हमेशा खुले हैं. जज भी तैयार हैं और कथित न्याय भी. बाकी चाहें तो अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक रुपए के सिक्के के बराबर समझें.
हिमांशु कुमार : सुप्रीम कोर्ट ने अर्नब गोस्वामी को अंतरिम बेल दे दी है. हजारों बच्चे और कश्मीरी नौजवान बुजुर्ग जेलों में सड़ रहे हैं. बुद्धिजीवी वकील पत्रकार प्रोफेसर जिन्होंने सारी जिंदगी देश के लिए कुर्बान कर दी. वह फर्जी आरोपों में जेलों में कई सालों से पड़े हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट की उनकी तरफ देखने की हिम्मत नहीं है. अपने राजनीतिक आकाओं के हुकुम से देश को तोड़ने वाला नफरत की आग में झोंकने वाला एक पार्टी का भोंपू प्रचारक जो किसी के पैसे मार कर उसको आत्महत्या के लिए विवश करने का आरोपी है, उसकी फिक्र यह सुप्रीम कोर्ट कर रहा है.
अब न्यायालय न्याय नहीं करता. अब जज फैसला देते हैं और जज खरीदे जा सकते हैं, डराए जा सकते हैं, ब्लैकमेल किए जा सकते हैं, अब जनता लगभग बेसहारा है.
राम अयोध्या सिंह : माननीय सुप्रीम कोर्ट, यह आपके न्याय का कौन-सा सिद्धांत है कि समाज में नफरत फ़ैलाने वाले पत्रकार अर्नब गोस्वामी को तो आनन-फानन में बेल मिल जाता है, पर मानवाधिकारवाद, धर्मनिरपेक्षता और जनजातीय समुदायों के लिए संघर्ष करने वाले 83 वर्षीय फादर ग्राहम स्टेंस, 80 वर्षीय वरवर राव, आनंद तेलतुंबडे, प्रोफेसर साईं नाथ और सुधा भारद्वाज को बिना किसी गुनाह के जेल में बंद रखा जाए ? न्याय का ऐसा विकृत स्वरूप क्या खुद न्याय को ही कठघरे में खड़ा नहीं करता ?
संजीव त्यागी : अर्नब को बेल. 83 वर्षीय फादर स्टेंस, 72 वर्षीय बरबर राव, विकलांग प्रो. साईनाथ, गौतम नवलखा, आंनद तेलतुबंड़े, सुधा भारद्वाज को जेल
सुप्रीम कोर्ट का अजब तमाशा गजब खेल.
कनक तिवारी : अब तो हुजूर आपका सुप्रीम कोर्ट रक्षक है. कुछ भी करेंगे. आप सुरक्षित हैं. वाह रे देश की हालत. अर्णव गोस्वामी की जमानत के मामले में मैं बंबई हाई कोर्ट के जजों को सलाम करता हूं और किसी को नहीं कर पाऊंगा. यह तो बंबई हाई कोर्ट के जरिए देश के सारे हाईकोर्ट जजों को धौंस बताने का मामला हो गया. आवारा चीखों का मौसम उगेगा. एक शब्द है न्यायिक अन्याय. उसके खिलाफ नागरिक आजा़दी के पैरोकार नहीं लड़ेंगे तो सब तबाह हो जाएंगे.
सुब्रतो चटर्जी : कोठे ने भंडुवे को ज़मानत दी. ये कोई ख़बर है क्या ?
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