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राजसत्ता के आतंक का जवाब जनसत्ता मौन रहकर भी देना जानती है

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राजसत्ता के आतंक का जवाब जनसत्ता मौन रहकर भी देना जानती है

जनता की चुप्पी सरकार की दमनकारी और जनविरोधी नीतियों और निर्णयों की स्वीकृति ही नहीं होती, उनकी अपनी राजनीतिक रणनीति भी होती है. राजसत्ता दमन और उत्पीड़न के अपने साधनों और माध्यमों द्वारा जनता को भयाक्रांत तो कर सकती है, पर उसे पराजित नहीं कर सकती. जनता का धैर्य, विश्वास और साहस ही उसका स्थायी संबल है, जिसे वह उचित अवसर पर उचित रणनीति के रूप में प्रयोग करती है. राजसत्ता अपने अहंकार में जनता को सताने, डराने, मारने-पीटने और अपमानित करना अपना अधिकार और धर्म समझने की भूल कर बैठती है, और यही भूल उसके पतन का कारण बनती है.

छः वर्षों से भारतीय जनता को जिस तरह सताया गया, दमित किया गया और अपमान का घूंट पीने को मजबूर किया गया, वही राजसत्ता के खिलाफ जनसत्ता के हाथों में एक मजबूत हथियार बनता गया. नोटबंदी से शुरू हुआ राजसत्ता की दमनकारी नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं के कारण बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को जितनी शारीरिक पीड़ा, अपमान, बेकारी, भूख और रोग जैसे दारुण दुखों का सामना करना पड़ा, वह उनके मन में घनीभूत होकर प्रतिरोध के एक ऐसे ब्रह्मास्त्र का रूप धारण कर लेती है कि जब जनता उसका प्रयोग अपनी सारी शक्ति लगाकर करती है, तो बैलेट बॉक्स से ऐसा जिन्न निकलता है, जो बड़े-बड़े शूरमाओं को दिन में भी तारे दिखा देती है, और वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं होते.

चंद पूंजीपतियों के हितों के संरक्षण और संवर्धन के लिए भारत की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को भूखमरी, रोग, बेरोजगारी, अधिकार विहीन, अशिक्षा और आज्ञानता के नागपाश में बांध देने का प्रयास न तो संवैधानिक था, न लोकतांत्रिक था, और न ही मानवीय ही था. किसानों और मजदूरों को अधिकार से वंचित कर एवं नवजवानों को बेरोजगार बनाकर उन्हें दाने-दाने को मोहताज बनाकर आत्महत्या करने के लिए विवश करना क्या सरकार की जिम्मेवारी और दायित्वबोध का प्रमाण था ? पांच लाख से अधिक कल-कारखानों और कंपनियों की तालाबंदी ने करोड़ों मजदूरों और अन्य कर्मचारियों को बेरोजगार बनाकर मरने को अभिशप्त किया. क्या यही सरकार सबका साथ और सबका विकास के नारे का परिणाम होना था ? देश के करोड़ों शिक्षित नवजवानों को पकौड़ा बेचने और साईकिल का पंक्चर बनाने को कहना भारत के नवजवानों को सरेआम जूता मारना नहीं था ?

क्या देश की जनता ने मोदी सरकार को इसलिए वोट दिया था कि वे धर्म, राष्ट्र, संस्कृति, रामराज्य, राममंदिर, हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान, मंदिर-मस्जिद और गाय-गोबर के नाम पर जनता के बीच नफरत फैलाते रहें, माब लिंचिंग करते रहें, दंगा करते और करवाते रहें, बहुसंख्यक भारतीयों को नागरिकता से वंचित करने का भय दिखलाते रहें, जनता को अधिकार से वंचित करते रहें, उन्हें गुलाम बनाते रहें, और जनता इनके दुष्कर्मों पर ताली, थाली, शंख और घंटा बजाकर इनकी जय-जयकार करती रहे ? जनता को क्या इतना मूर्ख समझ लिया था ? सारे सरकारी उद्योगों और लोक उपक्रमों, कंपनियों, निगमों, कल-कारखानों; संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों के हाथों कौड़ियों के मोल बेच देना ही क्या इनका राष्ट्रप्रेम और सबका विकास का माडल था ? सारे सरकारी शिक्षण संस्थाओं और अस्पतालों का निजीकरण कर उन्हें सामान्य मेहनतकश लोगों की पहुंच से दूर करना ही क्या इनका लोकतंत्र था ?

जो सरकार लाकडाउन के दौरान लाखों-करोड़ों मजदूरों को रोजगार से वंचित कर भूखों मरने के लिए छोड़ सकती है, उन्हें घर तक पहुंचने के लिए कोई साधन उपलब्ध न कराकर पुलिस से पिटवाती हो, जिन्हें हजारों किलोमीटर दूर जेठ की तपती धूप में कोलतार की सड़कों पर पैदल चलने के लिए मजबूर किया जा सकता है, क्वारांटाइन के नाम पर जिन्हें कैदियों की तरह साधनहीन डिटेंशन सेंटरों में रखा गया हो, और जिन्हें किसी तरह जीने के लिए महीने में पांच किलो गेहूं और एक किलो चना देने की घोषणा कर अपने को संत मानने वाली सरकार क्या वास्तव में अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन करने में समर्थ रही ? क्या जनता इन अत्याचारों और उत्पीड़नों को भूल जाए ? पीठ का दर्द भले ही हम भूल जाएं, पर भूखे पेट का दर्द भूलने वाला आजतक धरती पर कोई भी व्यक्ति पैदा नहीं हुआ, और यहां तो पेट और पीठ दोनों ही घायल थे. उनकी स्थिति थी ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं.’

यही गुस्से का जमा गुब्बार बिहार के चुनाव में मुखरित हुआ, और जिसका परिणाम भी जल्द ही सामने आनेवाला है. बिहार की जनता ने मोदी-नीतीश की आततायी सरकार को अपनी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हुए आखिरकार सबक तो सीखा ही दिया है. दुशासन बाबू, सबके सहने की भी एक सीमा होती है. सहने की परीक्षा लेने की कोशिश मत करना.

  • राम अयोध्या सिंह

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