वह आदमी जो लिखता है. जो महीने-दर-महीने, हफ्ते-दर-हफ्ते, दिन-रात असबाब जुटाकर लोगों के विचारों को शक्लो-सूरत देता है, दरअसल वही आदमी है जो किसी अन्य व्यक्ति की बनिस्बत, लोगों के व्यक्तित्व या सिफत को तय करता है और साथ ही यह भी, कि वे किस तरह के निजाम के काबिल है.’ – थियोडोर रूजवेल्ट, 1904
समूचे इतिहास में राजनेता और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव मीडिया और पत्रकारों को पालतू बनाने को जरूरी मानते आए हैं क्योंकि उनके पास वह ताकत है जिसकी शिनाख्त रूजवेल्ट ने अपने कथन में की थी. सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी निर्भर करता है.
1909 में रूजवेल्ट को चुनौती देने वाले पत्रकार कोई और नहीं, बल्कि सुप्रसिद्ध जोसेफ पुलित्जर थे. ‘न्यूयॉर्क वर्ल्ड’ नामक अपने अखबार में उन्होंने ‘पनामा नहर’ के निर्माण में करीब 4 करोड़ डालर की रकम के गायब हो जाने की खबर छापी. यह पैसा अमेरिकी कंपनी जेपी मॉर्गन और रूजवेल्ट के साले की जेब में गया था. इस खुलासे के बाद रूजवेल्ट ने पुलित्जर पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया और उन्हें सलाखों के पीछे धकेलने की धमकी दी. आखिर सुप्रीम कोर्ट में पुलित्ज़र की जीत हुई.
पत्रकारिता का एक सांस्कृतिक पहलू भी है. हर समाज में पत्रकारिता की ताकत में अंतर होता है. पुलित्जर, ‘वॉशिंगटन पोस्ट’, ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अमेरिका, जो कि दुनिया का सबसे पुराना और सबसे ताकतवर लोकतंत्र है, से टकराने की जुर्रत की. कितने अखबारों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पत्रकारों और उनके काम का पक्ष लेते हुए, शक्तिशाली लोगों से टकराने की हिम्मत दिखाई है ? जवाब मिलेगा- बिरले ही.
पुलित्ज़र ने कहा था- ‘पत्रकार राज्यरूपी जहाज पर खड़ा एक पहरेदार है, जो समुद्र में दूर-दूर तक हर संभावित छोटे-बड़े खतरे पर नजर रखता है. वह लहरों में बह रहे उन लोगों पर भी नजर रखता, जिन्हें बचाया जा सकता है. वह धुंध और तूफान के परे छिपे खतरों के बारे में भी आगाह करता है. उस समय वह अपनी पगार या अपने मालिकों के मुनाफे के बारे में नहीं सोच रहा होता. वह वहां उन लोगों की सुरक्षा और भले के लिए होता है, जो उस पर भरोसा करते हैं.’
हालांकि, पुलित्ज़र भारत के संदर्भ में ग़लत साबित हो जाते हैं. आज के भारत में विवेक और नैतिक साहस-विहीन पत्रकारिता से बहुत से ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ और यथास्थितिवादी लोग खुश हैं लेकिन अगर आप में नैतिक साहस है, तो आपको सबसे ताकतवर इंसान से टकराने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह देश का प्रधानमंत्री है या राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश है या देश-दुनिया का सबसे अमीर आदमी.
पिछले छह साल में मोदी ने देश की सभी संवैधानिक-अर्ध संवैधानिक संस्थाओं पर बुलडोजर फेर दिया है लेकिन इसे दर्ज करने में पत्रकारों की भूमिका बेहद चिंतनीय रही है. जब भी राजनीतिक आकाओं ने अपनी अप्रसन्नता जाहिर की, मीडिया घरानों के मालिक उनके सामने साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में आ गए.
आज से 50 साल बाद पीछे मुड़कर देखने पर वर्तमान दौर के लिखे को पढ़ना ऐसा मालूम होगा, मानो धो-पोंछकर पेश किए गए भारत को जानने-समझने का प्रयास किया जा रहा हो. सत्य और न्याय के लिए आवाज उठाना आज के भारत में बहुत से लोगों को बेहद नैतिकता भरा काम लगता है. इसलिए, क्योंकि दिक्कत उन्हीं के साथ है. इसकी वजह या तो उनका संदेहास्पद अतीत होता है, या ताकतवर हितों की दलाली और रसूखदारों से रिश्ते बनाए रखने की मजबूरी या समाज में अपनी बनी बनाई साख से अपदस्थ हो जाने की फिक्र.
लोगों को लगता है कि एक संपादक बहुत शक्तिशाली होता है लेकिन सिद्धांतों पर चलने वाले संपादक उतना शक्तिशाली नहीं होता, जितना लोगों को दिखाई देता है. अंग्रेज़ी राजनीतिक व्यंगात्मक धारावाहिक ‘यस, प्राइम मिनिस्टर’ में इस बात को सही-सही पकड़ा है.
दरअसल, संपादक एक रिंग मास्टर की तरह होता है. वह काम निर्धारित कर सकता है, लेकिन कलाबाजों को यह नहीं बता सकता कि उन्हें किस दिशा में कूदना है. ज़रा तुलना तो कीजिये कि रिपब्लिक चैनल और उसके एडिटर-इन-चीफ अर्नब गोस्वामी पत्रकारिता के किन मानकों पर पत्रकार है ?
- सौमित्र राय
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