पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
रहा होगा भारत किसी जमाने में विश्वगुरु मगर आज का भारत कुप्रथाओं और पाखंडों का देश बन चुका है, जहांं धार्मिक ढोंग तो इतने आडंबरयुक्त तरीके से किया जाता है कि उसे अंधी आस्था या अन्धविश्वास कहने के बजाय अब मूर्खता कहना ज्यादा उचित समझता हूंं. और ऐसा ही एक आडंबरयुक्त मूर्खतापूर्ण ढोंग है – करवाचौथ और उससे जुड़ा अन्धविश्वास !
मान लिया भई कि हमारे भारत की संस्कृति में पति परमेश्वर होता है सो बना रहे मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं परन्तु पत्नी को भी तो देवी का दर्जा हमारे धार्मिक ग्रंथों में दिया हुआ है न, वो उसे परिवार के अंदर कब मिलेगा ?
व्रत रखना सेहत के लिये अच्छा होता है और एक दिन पानी ना पीने से बदन का कुछ बिगडता भी नहीं है. लेकिन ये बात उसे तय करने दीजिये जिसे व्रत करना हो क्योंकि ये अधिकार किसी सास या पति का नहीं है कि वे धार्मिक पाखंडों से प्रेरित होकर इस ढोंग को करने के लिये किसी महिला को मजबूर करे. (मुझे एक पुरानी खबर की याद आ रही है जिसमे करवाचौथ का व्रत न रखने पर एक पति ने अपनी पत्नी पर तेजाब फेंक दिया था). इस तरह अपनी लंबी उम्र के लिये पत्नी को व्रत करने के लिये मजबूर करना गलत तो है ही, संज्ञेय अपराध भी है सो ऐसा तो बिल्कुल न करे.
वैसे मेरे ख्याल से न तो पति को परमेश्वर होने की जरूरत है और न ही पत्नी को देवीस्वरूपा होने की. दोनों को परिवार में बराबरी के दर्जे की जरूरत है, सो पति को अपनी परमेश्वर वाली पदवी से नीचे उतर कर सोचना चाहिये. क्योंकि मेरा मानना है कि आप भले ही त्यौहार मनाये और अपनी परपंराओं को भी निभाते रहे मगर इनमें जुड़े पाखंडों-ढोंगों से दूर रहे और अंधी आस्थाओं वाली कुप्रथाओं के नाम पर अत्याचार तो बिल्कुल न करे.
कल उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में हिन्दू धर्म से जुडी ज्यादातर शादीशुदा महिलायें पूरे दिन अन्न जल त्याग कर अपने पति की लंबी उम्र की कामना में भूखी मरेगी और रात को चांंद निकलने पर पति के हाथ से पानी पीकर अपना अन्धविश्वास का आडंबरयुक्त ढोंगी व्रत खोलेगी. मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि ऐसे मुर्ख सिर्फ भारत में ही क्यों पैदा होते हैं ? क्या विश्व के उन तमाम हिस्सों में और उन तमाम औरतों के पति कम उम्र में मर जाते हैं, जहांं ये अंधी आस्था नहीं है ?
आजादी के पहले भारत में ये अन्धविश्वास नहीं था मगर आज़ादी के बाद इस अन्धविश्वास को सिनेमा और टीवी सीरियलों के जरिये भारत में फैलाया गया. 50-60 के दशक तक भारत में ये ढोंग सिर्फ पाकिस्तान से आये सिख पंजाबियों तक सीमित था. उसके बाद 60 से 70 के दशक में कपूर खानदान ने इस पर लगातार कई फिल्में की.
उस समय भारतीयों की मानसिकता पर कपूर (पृथ्वीराज से लेकर शमी कपूर तक) छाये हुए थे. इसके फिल्मों से प्रेरित होकर इसका चलन बढ़ा. किसी भी 80-90 साल के बुजुर्ग शख्स से बात कर लीजिये, वो यही कहेगा कि आज से पचास-साठ साल पहले तक ये सिर्फ दिल्ली-पंजाब के इलाकों में मनाया जाता था और मनाने वाले भी पाकिस्तान की तरफ से आये सिख ही थे.
असल में बंटवारे के बाद पाकिस्तानी पंजाबी समुदाय के लोग बॉलीवुड तक पहुंचे और बॉलीवुड से ये पूरे हिंदी बेल्ट तक पहुंचा. बाद में 90 के दशक में भी इस पर लगातार सीरियल बनवाकर प्रसारित करवाये गये, जिसकी लागत का खर्च धार्मिक संस्थाओं द्वारा वहन किया गया ताकि इस पाखंड को लोगों की मानसिकता में फिट किया जा सके और ऐसा हुआ भी.
आज लगभग पूरा उत्तर भारत इसकी चपेट में है. अब तो बाकायदा धार्मिक ढकोसलों को फैलाने और टीआरपी भुनाने के लिये धार्मिक सीरियलों की बाढ़ आयी हुई है. हर मनोरंजन चैनल झूठे और काल्पनिक तथ्यों को जोड़कर उसमें स्पेशल इफेक्ट से रोचकता डाले हुए धार्मिक सीरियल दिखा रहा है ताकि लोग उसे देखे. और इस तरह से उनकी मानसिकता में वो सब भर दिया जाता है जो असल में होता ही नहीं.
धार्मिक ठेकेदारों ने भी अपनी आवक की बढ़त देखकर इस पाखंड को फ़ैलाने के लिये काल्पनिक और झूठी किताबें छापी और बांटी. घर घर जाकर धार्मिक रूप से प्रचार प्रसार किया गया और इससे 1991 के बाद ग्लोब्लाइजेशन के दौर में करवाचौथ और तेजी से ट्रेंड बन गया क्योंकि बाजार ने त्यौहार और उसके साथ जुड़ी भावना को पहचान लिया और देखते ही देखते करवाचौथ को इवेंट बनाकर बाज़ारवाद ने भी खूब माल बनाना शुरू कर दिया.
हम जब इंश्योरेंस कराते हैं तो इस बात की गारंटी मिलती है कि उसके ट्रम्स एंड कंडीशन के हिसाब से उसके मेच्योर होने तक अगर बीमाधारी को कुछ होता है तो उतना पैसा बीमा कंपनी उसके नॉमिनी सख्श को प्रदान करेगी. मगर धर्म का कोई ठेकेदार इस बात की गारंटी नहीं दे सकता कि ऐसा कोई मूर्खतापूर्ण व्रत करने से पति की उम्र बढ़ेगी. बहुत से लोग तो इसी व्रत वाले दिन मरते हैं और करवाचौथ करने वाली स्त्रियां उसी दिन विधवा हो जाती है. जैन पारसी या बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम औरतें इसको नहीं मानती तो क्या इनके पति जल्दी मर जाते हैं ?
चलिये इन्हे छोड़िये क्योंकि ये तो दूसरे धर्म और जाति के लोग हैं, मगर इसी भारत में ही दक्षिण या पूर्व की हिन्दू महिलायें भी करवाचौथ नहीं मानती लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इन तमाम जगहों पर पति की उम्र कम होती हो बल्कि उल्टा दक्षिण भारत के पुरुष उत्तर भारत के लोगों से ज्यादा लम्बी उम्र जीते हैं. एक सर्वे के हिसाब से उत्तर भारत के पुरुषों की औसत उम्र 74 साल है जबकि दक्षिण भारत में ये 82 साल है. अर्थात करवाचौथ करके पति की उम्र बढ़ाने वाली औरतों के पति उन लोगों से भी कम जीते है जिनकी औरतें ये व्रत नहीं करती.
अर्थात स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है कि सबने अपने अपने स्वार्थ के वशीभूत हो इस अन्धविश्वास का पोषण किया. मगर इस चकाचौंध में मेरा एक सीधा सा सवाल है कि इस ढोंग के बजाय क्यों न लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया जाये और उनकी डाइट में जरूरी पोषक तत्वों और कैलोरी इत्यादि के बारे में बताया जाये ताकि एक तरफ जहाँ मूर्खतापूर्ण प्रथा ख़त्म हो वहीं दूसरी तरफ लोग भी जागरूक बने ? इस तरह उनकी उम्र जरूर बढ़ सकती है क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति हमेशा ज्यादा जीता है. इसे करवाचौथ के बजाय स्वास्थ्य दिवस के रूप में मनाया जाये तो सच में कई पतियों की उम्र जरूर बढ़ जायेगी.
इस पाखंड के साथ ‘सावित्री-यमराज से अपने पति को वापिस ले आई थी’ वाली काल्पनिक कथा को जोड़ा गया ताकि ये अन्धविश्वास स्त्रियों की मानसिकता में बैठ जाये और उन्हें मानसिक गुलाम बना ले. खैर ! कथा तो कथा है और कथा में तो कुछ भी कह सकते हैं मगर समाजिक सच्चाई इससे अलग है.
भारत में पति की मौत के बाद उस विधवा स्त्री की हालत कितनी बदतर हो जाती है इसका जवाब कोई ठेकेदार या पुरुष समाज नहीं देना चाहेगा. क्योंकि उन्हें ये मंजूर नहीं कि जिस स्त्री को उन्होंने विवाह कर भोगा, वो उसके मरने के बाद भी किसी दूसरे पुरुष से विवाह कर सुख हासिल कर ले. हालांंकि संविधान और कानून ने उन्हें इसका हक़ दिया है मगर समाज ने उनका वो हक़ जबरन छीना हुआ है.
आज भी ज्यादातर हिन्दू समाज में विधवा विवाह सपना ही है चाहे वे ब्राह्मण हो या राजपूत अथवा अन्य ज्यादातर स्त्रियों को तिल तिल मरने को मजबूर किया जाता है, उनसे सुख छीन लिया जाता है, उनसे श्रृंगार तक करने का अधिकार और हंसने-बोलने तक का अधिकार नहीं दिया जाता. और ये वही स्त्रियां होती है जो अपने पति की लम्बी उम्र के लिये करवाचौथ का व्रत रखती है जबकि उनके विधवा होने पर उनके आसपास के पुरुषों की मानसिकता में वो आसानी से उपलब्ध होनी वाली कोई ऐसी चीज हो जाती है, जो वेश्या तो नहीं होती मगर फिर भी उन तमाम आसपास के पुरुषों के लिये वो ‘एवरीटाइम ओपन फॉर ऑल’ हो जाती है.
सच्चाई यही है जो आज तक ऐसी औरतें समझ नहीं पायी है और ऐसी मूर्खतापूर्ण मान्यताओं में मानसिक गुलाम बन जकड़ी हुई है. ऐसी ही किसी स्त्री के विधवा होते ही सबसे पहले उनका नॉमिनी हक़ छीना जाता है और उन्हें जो पति का पैसा और संपत्ति मिलती है, उस पर कहीं सास-ससुर तो देवर-जेठ कब्जा कर लेते है और कहीं कहीं तो ननद नन्दोई भी उसे उल्लू बना कर रकम ले उड़ते हैं. ये वो सच्चाई है जो एक महिला को असुरक्षित बनाती है और करवाचौथ जैसे पाखंडों को लोकप्रिय.
मथुरा में घूम आइये कभी. वहां उन विधवाओं की ऐसी भीड़ मिलेगी जिनसे उनके जीने के हक़ को भी उन्हें इस शर्त पर दिया जाता है कि वे किसी भी सांसारिक सुख से दूर रहकर अपनी जिंदगी बसर करेगी. ये वो औरतें है, जिन्हें जबरन घर से बाहर फेंक दिया जाता है. ऐसी औरतों से अगर पूछ लिया जाय तो अपने आंसुओं को छुपाकर यही बोलती मिलेंगी कि अच्छा होता अगर वो पति की मौत से पहले मर जाती. ये वो कड़वा सच है जो अकेले पड़ जाने पर भी उपेक्षित हो जाने के डर से करवाचौथ जैसी मूर्खतापूर्ण कुप्रथाओ को और भी ज्यादा हिट बनाता है. जबकि जिन लोगों में ऐसी मूर्खतापूर्ण मान्यतायें नहीं है उनके घर में जब कोई स्त्री विधवा होती है तो उनका उनकी इच्छा से पुनर्विवाह कर दिया जाता है और वो मथुरा की औरतों की तरह जबरन उपेक्षित-सी जिंदगी जीने को मजबूर नहीं होती और न ही कोई छुपकर उनका यौन शोषण कर पाता है.
जो परिवार में समानता तक पैदा नहीं कर सकता वो प्रेम या रिश्ता किस काम का ? चलिये मान लिया कि ये पत्नी का प्यार और श्रद्धा है परन्तु अब जरा ये बताइये कि कितने पुरूष अपनी पत्नी के लिये व्रत रखते हैं ? अपवाद में भी अगर कोई पुरुष ऐसा कर ले तो समाज में उनके लिये ‘जोरू के गुलाम’ वाला कॉन्सेप्ट एकदम तैयार रहता है, व्रत की बात छोड़िये कितने पति पत्नी के साथ घर के कामो में हाथ बंटाने तक में शर्म महसूस करते है.
ये कैसा प्यार है जो बीवी को अपने से नीचे बनाये रखने की बात मानता है, बीवी से व्रत करवाने की बात भी बतलाता है मगर पति के लिये कुछ भी नियम-कायदा नहीं. एक मरेगी तो दूसरी ले आयेगा फिर तीसरी और चौथी भी ले आयेगा मगर बीवी की लम्बी उम्र के लिये ऐसा कोई व्रत नहीं रखेगा ? तो फिर स्त्रियां क्योंकर रखे ? वो भी पति के मरने पर दूसरे से शादी कर लेगी, इसमें बुराई क्या है ?
किसी के एक से शादी हो जाने का अर्थ ये तो नहीं कि उसके जीने के मौलिक अधिकारों को छीन लिया जाये ?
हालांंकि बहुत से मेरी इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखेंगे और कोई तो शायद ये भी कह दे कि ये त्यौहार बिना शर्त और प्यार का त्यौहार है. ठीक है, मान ली आपकी बात लेकिन प्यार बिना व्रत के भी जाहिर किया जा सकता है न. त्यौहार मनाने से मुझे कोई दिक्कत नहीं है, मुझे दिक्कत इसके साथ जुड़े ढोंग और पाखंड से है. क्या आपके भगवान सिर्फ भूखे की बात ही सुनते हैं ? अगर ऐसा है तो उन बेचारे हज़ारों गरीबों की क्यों नहीं सुनता जो महीने में बीस दिन भूखे रहकर आपके उस भगवान् को याद करते है ?
चलिये ये तर्क भी छोड़ देता हूंं मगर आप अपने धर्म में कोई ऐसी एक कथा बता दीजिये जिसमे बिना डर के भक्ति की बात कहीं हो ? डराना भगवान का काम नहीं है बल्कि धर्म के ठेकेदारों का है. क्योंकि उसी डर से वे अपना धंधा चलाते हैं और ऐसे सभी पर्व-त्यौहार को रीति-रिवाजों से बाहर करना जरूरी है जो डर के धंधे से चल रहे हैं.
आप भले ही इसे त्यौहार के रूप में मनाये और कुछ ख़ास परिवर्तन करके मनाये तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी जैसे – इस त्यौहार में जो सबसे अच्छी बात है वो है – चांद देखऩा. शहरी जीवन में और धन कमाने की होड़ में सभी ये भूल से गये हैं कि सूरज कब निकलता है और चांद कब ? सो उसके साथ कुछ अच्छी चीजें प्लान करके इसकी खूबसूरती बढ़ाई जा सकती है.
जैसे – पत्नी व्रत करने की जगह दोनों समय पति के हाथ से बनाया खाना खाये और सिर्फ आराम करे, घर के सारे काम पति अपने काम से छुट्टी लेकर जरूरी तौर पर करे. चाहे तो इसे नेशनल लीव के रूप में भी मान्यता दिलवा ले. और हाँ, इस दिन सारे रेस्टोरेंट, होटल, फास्टफूड कॉर्नर इत्यादि बाज़ारी खाने-पीने के सामान और पैकिंग फ़ूड पर प्रतिबंध हो ताकि सारा खाना पति महोदय खुद के हाथों से पूरी मेहनत के साथ बनाये, न कि किसी फ़ूड चेन को ऑर्डर देकर मंगवा ले या फुसलाकर घुमाने के बहाने बाहर से खिलाकर ले आये. इस दिन को अगर ये निश्चित कर दें तो मुझे ये त्यौहार बहुत पसंद आयेगा और मैं इसके विरोध की जगह समर्थन में लिखूंगा.
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