जैसा कि मैंने कहा कि संस्कृत एक भाषा के रूप में ईसा के बाद अस्तित्व में आई है. आइए, इसे शिलालेखों से सिलसिलेवार जांंच करें. इस सिलसिले में हमें सबसे पहले गांधार क्षेत्र में मौजूद तीसरी शती ई. पू. के शाहबाजगढ़ी शिलालेख का अध्ययन करना चाहिए.
सम्राट अशोक के शिलालेखों में जो ‘धम्म’ है, वही शाहबाजगढ़ी में ‘ध्रम’ है, यही ईसा के बाद रुद्रदामन के शिलालेख में संस्कृत का ‘धर्म’ हो गया है. सम्राट अशोक के शिलालेखों में जो ‘पियदसि’ है, वही शाहबाजगढ़ी में ‘प्रियद्रशि’ है, यही ईसा के बाद वाल्मीकि रामायण में ‘प्रियदर्शी’ हो गया है.
अशोक के शिलालेख तीसरी शती ई. पू. के हैं. अब हमें दूसरी शती ई. पू. के शिलालेखों का अध्ययन करना चाहिए. इसके लिए हम बेसनगर का गरुड़ध्वज अभिलेख को लेते हैं. यह अभिलेख प्राकृत मिश्रित संस्कृत में है, जिसमें संस्कृत तत्व कम हैं. इस अभिलेख की अंतिम पंक्ति है – नेयंति दम – चाग अप्रमाद. यही वाक्यांश ईसा के बाद महाभारत में संस्कृत का ‘दमस्त्यागोप्रमादश्च’ (5/43/23) हो गया है.
दूसरी शती ई. पू. के बाद हमें प्रथम शती का शिलालेख देखना चाहिए. इसके लिए हमें धन का अयोध्या अभिलेख की जांंच करनी चाहिए. यह अभिलेख भी प्राकृत और संस्कृत का मिश्रण है, जैसे कि इसमें संस्कृत नियमानुसार ‘पुष्यमित्रात्’ होना चाहिए, किंतु प्राकृत के कारण ‘पुष्यमित्रस्य’ लिखा है.
अभी तक ईसा से पहले के जितने भी शिलालेखों का अध्ययन किया गया, सभी प्रमाणित करते हैं कि ईसा से पहले बतौर भाषा संस्कृत का एक भी शिलालेख नहीं है, सभी प्राकृत के हैं और कुछ-कुछ पिजिन संस्कृत जैसे हैं. अब आइए, ईसा के बाद का रुद्रदामन के शिलालेख का अध्ययन करते हैं, इसमें बतौर भाषा संस्कृत मौजूद है. इसीलिए मैं कहता हूंं कि बतौर भाषा संस्कृत का अस्तित्व ईसा से पहले नहीं था.
हमारे यहांं उल्टा खूब चलता है. भाषावैज्ञानिकों ने बगैर सोचे-समझे बता दिए हैं कि ईसा के पूर्व के कुछ शिलालेख संस्कृत से प्रभावित हैं. दरअसल वे शिलालेख संस्कृत से प्रभावित नहीं हैं. ईसा से पहले संस्कृत भाषा थी ही नहीं, फिर प्रभावित होने की बात ही गलत है. सही बात यह है कि वह प्राचीन ईरानी और प्राकृत के मिश्रण से निर्माणाधीन थी, जिसे हम पिजिन संस्कृत कह रहे हैं.
आप ध्यान दीजिए ईसा के प्रथम शती और उसके कुछ आगे की भाषा को मिश्रित संस्कृत का काल कहा जाता है. इस मिश्रित संस्कृत में अनेक बौद्ध ग्रंथ लिखे गए जैसे ललितविस्तर, दिव्यावदान, अवदान शतक, लंकावतार, महावस्तु आदि. इनमें प्राकृत और संस्कृत का मिश्रण है. मगर भाषा मूलतः प्राकृत है, संस्कृत छौंक के रूप में है जैसे पुष्पेहि में प्रातिपदिक संस्कृत जैसा है, मगर विभक्ति प्राकृत जैसी है.
आप आसानी से निष्कर्ष दे सकते हैं कि जिसे हम मिश्रित संस्कृत कहते हैं, वह वस्तुतः मिश्रित प्राकृत है. यदि कालिदास ने नाटकों में निम्न वर्ग से प्राकृत और उच्च वर्ग से संस्कृत में संवाद समायोजित किए हैं तो यह कोई आश्चर्य नहीं.
- डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह
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