हाथरस में दलित लड़की से दुष्कर्म और उसकी हत्या के बाद बाराबंकी जिले से दिल दहलाने वाली लोमहर्षक घटना से पुलिस -प्रशासन की विफलता पुनः उजागर हुई है. इस मामले में भी पुलिस ने फुर्ती दिखाते हुए शव को जला दिया, फिर केस दर्ज किया. छतरपुर, झांसी, शाहजहांपुर, शामली, रोहतक, वीकानेर, मुजफ्फरपुर, पुरुलिया – फेहरिश्त काफी लंबी है. तमाम मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने में दिलचस्पी नहीं दिखाना, शिकायतों की जांच तो दूर सुनने तक कि जहमत नहीं उठाना और दुस्साहस की हद पार कर दी जब ये स्वयं सबूतों को मिटाने में जुटे रहते हैं.
अगर मामले ने तूल पकड़ा तो थानेदार का तबादला कर दिया जाता है. यह सब शेयर में गिरावट, आयात में कमी न हो पाने पर मैराथन वैठक करने जैसा हो गया है. दूर-दूर तक कहीं भी किसी भी स्तर पर संवेदनाओं की नितांत कमी चिंतनीय है. जिस प्रकार का दबाव बनाया जाता है, उसी प्रकार से जांच का स्तर तय किया जाता अर्थात हत्या, दुष्कर्म आदि आपराधिक घटनाओं की जांच के लिए पीड़ित परिवारों की औकात देखी जाती है. कहां है कानून ? हां, यह अंधा कानून है, पहले सामूहिक दुष्कर्म फिर गला घोंट कर या पूरे शरीर को धारदार हथियार से गोद देने की घटनाएं लगातार वढ़ी हैं.
छेड़छाड़ या तंग करने की शिकायतें पीड़िता परिवार लगातार थाने में जाकर करता है, किन्तु पुलिस रिपोर्ट करने के वजाय दुत्कार कर भागा देती है. दबंग, प्रताड़ित करने वालों तक यह सूचना दे दी जाती है, फिर ऐसे असामाजिक तत्व घिनौने तांडव क्यों न करें ? जान बूझकर पुलिस इसे उकसाती है, ताकि पीड़ित और असामाजिक तत्वों से कुछ कमा सके. वर्दी की शपथ और बेरोजगारी में उत्पीड़न को समाप्त करने जैसे वायदे नौकरी में आने के चंद दिनों बाद ही काफूर हो जाती है. यह सारा तमाशा पुलिस के आला अफसरों को पता रहता है, किन्तु अराजक कायम रहे, इसी में उन्हें भी लाभ है.
भला, आंकड़ों की जुगाली न करें तो भी साफ दिखता है कि खास तौर पर कमजोर तबकों की भूमि पर कब्जे, यौन उत्पीड़न, अकारण हत्या की वारदातें काफी बढ़ी हैं. जब कोई घटना निर्भया की भांति सुर्खियों में आता है तो जनता में ओढ़ी छवि को बनाए रखने के लिए सरकार थोड़ी हरकत में आती है. यह भी घटना और पीड़ित जाति के वोट के आधार पर तय किए जाते हैं.
ताजा उदाहरण हाथरस की लें तो पता चलता है कि दलित कन्या के साथ ज्यादती और फिर नृशंस हत्या को मीडिया अगर स्पेस नहीं देती तो सुप्त सरकार भला कैसे स्फूर्ति दिखाती ? सुरक्षा, मुआवजा और सरकारी नौकरी देकर सरकार ने अपनी ड्यूटि की इतिश्री कर ली. राजनैतिक दल सामाजिक संगठन, एनजीओ अब बयान तक ही सीमित हो गए. केवल हल्ला मचाकर सुर्खियां बटोरना ही मकसद हो तो कैसे व्यवस्था में सुधार होगा ?
हाल के दिनों में बाराबंकी, मुजफ्फरपुर जैसे कई जिलों में शर्मनाक वारदातें हुईं, किन्तु कवरेज कम मिलने के कारण सरकार, व्यवस्था में परिवर्तन का दावा करने वाले दल भी खामोश हैं. बिहार में विधान सभा चुनाव और मध्य प्रदेश में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में यह मुद्दा ही नहीं है. ऐसे में पुलिस प्रशासन और असामाजिक तत्वों की चांदी है. बहुत विरोध पर कुछ पुलिसकर्मियों के निलंबन और तबादले को ही समाधान मान लिया गया. किसी कांड पर एसआईटी, सीबीआई जांच आयोग के गठन के बाद सब कुछ भुला दिया जाता है. आज भी कई इलाकों में प्राथमिकी दर्ज करने के लिए सिफारिश, रिश्वत, धरना का सहारा लिया जाता है.
पुलिस की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली में सुधार को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अनुसंधान शाखा है. राज्यों में भी ऐसी व्यवस्था है. कई आयोग भी बने, जिसमें प्रकाश सिंह आयोग खासा महत्त्व का है किन्तु सुधार शून्य है. आज भी औपनिवेशिक शासन की झलक देखने को मिलती है जहां हत्या, बलात्कार की जांच पीड़ित की हैसियत और जाति के आधार पर तय की जाती है. विधि सम्मत और ईमानदारी केवल शपथ के समय ली जाती है.
दरिंदगी के बाद कुछ पल के लिए ही सरकार रक्षात्मक रहती है. विदित है कि 1861 में उपनिवेशवादी पुलिस कानून का अभी तक पालन हो रहा है. 2005 में ‘ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल इन इंडिया’ के एक सर्वे में 37 प्रतिशत लोगों ने बताया कि पुलिस में भ्रष्टाचार चरम पर है, जबकि 74 फीसद के मत में सेवा की गुणवत्ता में भारी कमी. 47 प्रतिशत लोगों का मानना है कि प्राथमिकी दर्ज करने के लिए रिश्वत ली जाती है. 1979 में नेशनल पुलिस कमीशन ने कई ठोस उपाय बताए थे, किन्तु इस पर अमल करना जरूरी नहीं समझा गया. ऐसे में सड़ी-गली व्यवस्था के खिलाफ जन-विद्रोह के द्वारा ही मुक्ति की राह मिलने की संभावना उभरकर सामने आती है.
- डॉ. अंजनी कुमार झा
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