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गुलाम बनती बहुसंख्यक आबादी के बीच बढ़ता आत्महत्या का दौर

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गुलाम बनती बहुसंख्यक आबादी के बीच बढ़ता आत्महत्या का दौर

भटिंडा (पंजाब) के व्यापारी देवेन्द्र गर्ग ने लाकडाउन के दौरान व्यापार में घाटा होने के कारण आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. स्वाभाविक है फेसबुक पर हार्दिक संवेदना और अफसोस जताने वालों का तांता लगा हुआ है. यह कोई अनहोनी घटना नहीं है, और न ही अकेली ऐसी घटना है. ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं, जिसका जिक्र यदा-कदा समाचारपत्रों में आता रहता है. लेकिन, छोटे और मध्यम दर्जे के व्यापारियों के साथ ही लाखों-करोड़ों वैसे लोगों की स्थिति कितनी कष्टमय और त्रासदपूर्ण हो गई है, जो कानून, होटलों, मॉलों, सिनेमा और ऐसे ही अन्य व्यवसायों से जुड़े हुए थे, और अचानक जीने का सहारा खत्म हो जाने से उनकी जिंदगी अंधकारमय हो गई है.

इसके पूर्व किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति के कारण उनका आत्महत्या करने की खबरें लगातार आती रही हैं, और उनके साथ बेरोजगार युवाओं की स्थिति से भी हम सभी अवगत हैं. पर, क्या ऐसी दारुण घटनाएं कभी राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनीं ? ऐसी घटनाएं न एकाकी हैं, और न ही अपवाद.

ये वर्तमान राजव्यवस्था के दौर की मुख्य प्रवृति के रूप में उत्पन्न हुई हैं. जैसे-जैसे भारत की संपति, संपदा, पूंजी और प्राकृतिक संसाधनों का मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रीकरण होता जा रहा है, ऐसी घटनाएं एक स्थायी प्रवृति के रूप में दृष्टिगोचर हो रही हैं. जिस निजाम के लिए अस्सी प्रतिशत आबादी की जिंदगी का कोई मोल ही नहीं है, वहां ऐसी घटनाओं का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.

साढ़े छः वर्षों के अपने कार्यकाल में मोदी सरकार ने जो कुछ भी किया है, उसका दुष्परिणाम अब सामने है. क्या भारत की जनता ने इस सरकार को संघ की फासीवादी नीतियों, निर्णयों और कार्ययोजनाओं को लागू करने के लिए चुना था ? क्या किसी देश की सरकार का जनता के प्रति यही दायित्व था कि वह जनता को भ्रम में डालने के लिए धर्म, जाति, राष्ट्र, सेना, गाय और गोबर, रामराज्य और विश्वगुरु का सपना, भारत माता, वंदेमातरम, हिन्दू और मुसलमान, भारत और पाकिस्तान और नागरिकता के सवालों को राष्ट्रीय विमर्श का मुख्य विषय बना दे ? और, जनता भी धर्म का अफीम सेवन कर इन्हीं अनर्गल और बकवास विषयों पर ताली बजाना ही अपना राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझने लगती है.

धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की संकीर्णताओं में जकड़ा समाज एक ऐसे मदहोशी की स्थिति में होता है, जो तब जगता है, जब उसका सब कुछ लूट चुका है. निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के पैरोकार करने वाले पूंजीपतियों, उच्च मध्यम वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था के हिमायती बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और व्यवसायियों को क्या इनके दुष्परिणाम पहले से ही पता नहीं था ? अगर सचमुच ही पता नहीं था, तो वे नीरे मूर्ख थे, और अगर पता था, तो राजसत्ता के दलाल, स्वार्थी, असंवेदनशील , मक्कार और राष्ट्रद्रोही थे. देश की सिर्फ बीस प्रतिशत आबादी के लिए देश की सारी संपत्ति, संपदा, प्राकृतिक संसाधनों, पूंजी और उद्योगों को सुरक्षित करने के साथ ही ऐसा करने वाले का हिमायती बनना भी राष्ट्रद्रोह की ही श्रेणी में आता है.

सचमुच आज भारत में राष्ट्रद्रोहियों की ही सरकार है, जो राष्ट्र की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम को शास्त्र, शस्त्र और संपत्ति से वंचित कर उन्हें गुलाम बनाने के सुनियोजित षड्यंत्र में लगी हुई है, और स्वयं को राष्ट्र और धर्म का रक्षक भी साबित करने पर तुली हुई है. अगर देश की बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के नागरिक अधिकारों का हनन करना, संविधान और संवैधानिक प्रावधानों के साथ ही लोकतंत्र की समाप्ति का लगातार प्रयास करना, सारे संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार एक प्रधानमंत्री के हाथों में केन्द्रित होते जाना, अपने शौक और महत्त्वाकांक्षाओं, अपनी पार्टी, संघ और उनसे जुड़े विभिन्न अनुषांगिक संगठनों और सबसे ऊपर मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हितों की पूर्ति के लिए राष्ट्र के सारे उद्योगों और लोक उपक्रमों, कल-कारखानों, कंपनियों, निगमों और खदानों को कौड़ियों के मोल बेच देना भी राष्ट्रद्रोह नहीं है ? तब आखिर राष्ट्रद्रोह है क्या ? सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि यही राष्ट्रद्रोही सरकार राष्ट्र के सच्चे सेवकों को राष्ट्रद्रोही साबित करने पर तुली हुई है.

जिस संगठन, पार्टी और व्यक्ति को जनता की लूट, हत्या, नरसंहार, दंगे, भूखमरी, रोग, अशिक्षा और जिंदगी की विषम परिस्थितियों से जुझते और बिलबिलाते हुए देखने में ही परमानंद की अनुभूति होती हो, वैसे लोगों को क्या राष्ट्रभक्त कहा जा सकता है ? कोविड-19 के नाम पर, लाकडाउन के नाम पर भारत के बहुसंख्यक मेहनतकश अवाम के साथ जितनी और जिस तरह की ज्यादतियां की गईं, वैसा आज तक के दुनिया के इतिहास में कभी देखने को नहीं मिला था. आजाद भारत की बहुसंख्यक आबादी को गुलाम बनाना भला कहां का लोकतंत्र है ?

क्या भारत की जनता ने इस सरकार को इसीलिए वोट दिया था कि यह सरकार इन्हीं बहुसंख्यक मतदाताओं को अधिकारविहीन कर गुलाम बना दे ? एक कुंठाग्रस्त, सनकी, मानसिक विकलांग हत्यारा जिस तरह शानो-शौकत और सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण भोग-विलास की जिंदगी जीते हुए बीते समय के राजाओं की तरह ऐश्वर्य जैन का नंगा प्रदर्शन कर रहा है, क्या यह राष्ट्रद्रोह के अपराध का मामला नहीं बनता है ? क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम यह तय करें कि सरकार जनता की सेवा करने के लिए है, या जनता सरकार की गुलामी करने के लिए ?

  • राम अयोध्या सिंह

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ROHIT SHARMA

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