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बहसबाजी के अड्डेवाली व्यवस्था को धता बताकर जनता के द्वारा स्थापित विकल्प की ओर क्यों न बढ़ें ?

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बहसबाजी के अड्डेवाली व्यवस्था को धता बताकर जनता के द्वारा स्थापित विकल्प की ओर क्यों न बढ़ें ?

संजय श्याम

साम्राज्यवादी डाकुओं की बढ़ती लूट, देशी सरमायेदारों की फूलती थैलियां, मेहनतकशों की बढ़ती तबाही, बेरोजगारी, आसमान छूती मंहगाई, छंटनी-तालाबन्दी, तबाही-बर्बादी, काले कानून, लाठी, गोली का प्रजातंत्र, बिकता न्याय, अराजकता, लूटपाट, गुण्डागर्दी, दलाली, कमीशनखोरी, भ्रष्टाचार, मंडल-कमंडल, दंगे-फसाद, भ्रष्ट सरकार, झूठी संसद, नपुंसक विरोध् के बीच शुरू हुआ है बिहार विधानसभा, 2020 का चुनाव.

दरअसल तमाम संसदीय चुनाव देशी-पूंजीपतियों, इजारेदारों और बड़े-बड़े व्यापारियों के बीच की स्पर्धा है, पूंजीवादी लूट-छूट-भोग और शोषण-शासन की मजबूती एवं उसकी निरंतरता को कायम रखने की एक राजनीतिक तिकड़म का नाम ससंदीय चुनाव है, जिसके द्वारा दलाल नौकरशाह और पूंजीपति वर्ग समूह के बीच एक होड़ होती है कि अपने व्यवसाय को चमकाने के लिए कौन पूंजीपति कितनी पार्टियों को खरीदकर उसके साथ अपना आर्थिक तालमेल बैठा सकता है ? ताकि संसदीय सरकार में उसका गहरा राजनैतिक पैठ कायम हो सके जबकि दशकों से चुनावी जाल में फंसकर आम जनता निरतंर भय, भूख, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, कुशिक्षा, कर्ज, राहत, अनुदान और भ्रष्टाचार की ज्वाला में झुलसकर मरने के लिए अभिशप्त है.

जरा गौर कीजिए, आज के नेताओं, सांसदों, विधायकों और नौकरशाहों के ठाठ-बाट पर. इनके बंगले, कोठियां, ध्न-सम्पत्ति, भोग का सारा सामान, बंदूकें, गाड़ियां, अर्दली, चपरासी, अंगरक्षक, नौकर-नौकरानी और अनेक तरह की सरकारी सुविधएं क्या ये सब इनकी मेहनत-मशक्कत की कमाई है ? नहीं, ये सब जनता का गाढ़ी कमाई, रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी और दलाली का हिस्सा है. आम जनता का जीवन गुलाम से भी बदतर है. उसके जीवन के हर मोड़ पर शोषण, अत्याचार, कंगाली, बीमारी और मौत खड़ी है.

देखिए और सोचिए, चुनाव को महापर्व बतानेवाला यह तथाकथित लोकतंत्र कितना महान है ? जनता कंगाल और नेता मालामाल. वर्तमान चुनाव में खर्च का सरकारी आंकड़ा 625 करोड़ का है. चुनाव आयोग के अनुसार एक प्रत्याशी अपने चुनाव अभियान में अध्कितम 28 लाख रूपया खर्च कर सकेगा लेकिन जमीनी सच्चाई क्या है ? करोड़ों में टिकटों की खरीदारी से लेकर पूरे चुनाव प्रचार में पैसे का जो नंगा नाच होता है, क्या वह शर्मसार करनेवाला दृश्य नहीं है ? चुनावी पहरेदारी के लिए सबसे अध्कि खर्च सेना-पुलिस की तैनाती पर होगा. जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई की इतनी बड़ी रकम पानी की तरह खर्च करके राज्य और देश को कर्ज में डुबोनेवाला कोई भी क्या कभी भी जनहितैषी या सच्चा जनप्रतिनिध् िबन सकता है ?

साफ है कि यह विधान सभा चुनाव भी अन्य संसदीय चुनावों की तरह धनवानों का एक राजनीतिक व्यापार ही है जो जनता को अहसास कराता है कि वे मतदान के लिए स्वतंत्र हैं और यह उनका अपना लोकतंत्र है परन्तु, दो और दो चार की तरह साफ हो चुका है कि चुनाव द्वारा चुने गये उम्मीदवार किसी भी प्रकार से आम जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि पूंजीपतियों, सामन्तों और साम्राज्यवादियों का सेवा दास बनकर उनके विशेषाधिकरों की रक्षा में लिप्त रहते हैं. सत्ता के डंडे से ‘लोक’ को हांकना, लोकतंत्र नहीं हो सकता. आज लोकतंत्र से ‘लोक’ गायब है, सिर्फ तंत्र रह गया है. भ्रष्टों का तंत्र – भ्रष्टतंत्र.

वास्तविकता तो यह कि लोकतंत्र एवं जनवादी भावना का इस चुनावी राजनीति से कोई संबंध नहीं है. यह जनता में अलगाव और विभेद पैदा करता है. तमाम चुनावी पार्टियां समाज में फूट डालने और अपना वोट बैंक बनाने में लिप्त हैं. एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ तथा एक धर्म को दूसरे धर्म के खिलाफ भड़काकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है. अगड़े-पिछड़े का भेद चरम पर है. लोकतंत्र की भावना खण्ड-खण्ड हो रही है. अद्धर्सामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक, दलाल पूंजीवादी ढांचे पर खड़ा वर्तमान संसदीय तंत्र, धेखातंत्र के अलावा और क्या है ? सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए अन्यायपूर्ण व्यवस्था को जड़-मूल समेत ध्वस्त कर वर्ग हित की स्थापना के लिए वर्ग-संघर्ष आवश्यक है.

देश की जनता एक नये वैकल्पिक समाज व्यवस्था के लिए लालायित है जो हर मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देने में सहायक हो. वह नया समाज ऊंच-नीच और धनिक-गरीबों में बंटा वर्ग समाज के आंतरिक विरोधों एवं प्रतिस्पर्धाओं पर आधरित न होकर सामाजिक सहयोग पर आधारित हो. आज की संसदीय व्यवस्था सामाजिक उत्पादन, देश की श्रमशक्ति, हमारी समझ, सामाजिक विचारों और समाज के हर चीज को खरीद-पफरोख्त का केन्द्र बिन्दु बना रही है. देश की अर्थव्यवस्था को विनाश की ओर धकेलनेवाली भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों से बचने के लिए वर्तमान आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन ही विकल्प है ताकि आर्थिक संसाधनों, उत्पादन और वितरण पर बहुसंख्यक जनता के हित, आवश्यकता एवं संरक्षा को ध्यान में रखकर किया जाए.

ऐसी व्यवस्था कायम हो जिसमें सत्ता एवं समाज के संचालकों तथा प्रबंध कार्यकर्ताओं को आम जनता के नियंत्रण में रहकर काम करने की पद्धति हो. सामाजिक अन्तरविरोधों और झगड़ों को निपटाने के लिए जन-अदालतों का निर्माण हो, जिसमें अदालतों, वकीलों और जजों के मंहगे और नौकरशाही के धौंस से छुटकारा मिल सके. देश के कई भागों में जहां संगठित रूप से क्रांतिकारी आन्दोलन जारी है, वहां की जनता ने वैकल्पिक व्यवस्था कायम कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. उन इलाकों में जनता सत्ता के द्वारा गांवों के विकास कार्य, खेती-बाड़ी का विकास, शिक्षा एवं स्वास्थ्य केन्द्रों का विकास, बीज बैंक बनाने, सिंचाई व्यवस्था विकसित करने, परस्पर आर्थिक सहयोग करने, तालाबों का निर्माण करने, वनों की रक्षा करने, यातायात साधनों को विकसित करने, सहकारी संस्थाओं का निर्माण करने, क्षेत्र की सुरक्षा करने, न्याय की उन्नत व्यवस्था आदि का काम अलग-अलग कमिटियों को जिम्मेवारियां बांटकर किया जाता है.

तो फिर हम बहसबाजी के अड्डेवाली व्यवस्था को धता बताकर जनता के द्वारा स्थापित विकल्प की ओर क्यों न बढ़ें ?

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