83 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी, ‘देश’ के विरुद्ध युद्ध छेड़ देने के आरोप पर यूएपीए जैसी अनैतिक कानून के तहत गिरफ्तार कर लिए गये हैं. आज अंधेरा जब गहरा रहा है तब देश का सुप्रीम कोर्ट सत्ता के समक्ष न केवल सष्टांग लेट गया है, अपितु सत्ता के बीन पर नाच रहा है और देश के बुद्धिजीवियों, मजदूरों, किसानों, युवाओं को काट रहा है.
ऐसी अंधेरी रात में 18 सितंबर, 2020 को जस्टिस सुरेश मेमोरियल लेक्चर के मौके पर ‘फॉरगॉटन फ्रीडम एंड इरोडेड राइट्स’ शीर्षक से एक भाषण दिया गया है, जिसके एक सम्पादित अंश यहां प्रस्तुत हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह का यह भाषण जो यूएपीए का असली चेहरा देश के सामने लाता है, बार-बार पढ़ना चाहिए.
आज भारत में, हर संस्थान, व्यवस्था या उपकरण जिनकी तामीर कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने के लिए की गई थी, उन्हें योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया जा रहा है.
आज हमारा सामना एक ऐसी शक्ति से है जिसका मकसद कार्यपालिका में सारी शक्ति निहित करके लोकतांत्रिक शासन को व्यवहार में खोखला और बेजान कर देना है. अगर संसद शक्तिहीन कर दी गई है, तो दूसरी संस्थाओं को कार्यपालिका पर अंकुश लगाए रखने के लिए सामने आना चाहिए था, लेकिन जमाना हो गया. हमने लोकपाल के बारे में कुछ भी नहीं सुना है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग नींद में है. हल्का-सा भी मौका मिलने पर जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है. ऐसा लगता है कि भारत के चुनाव आयोग ने भी संदेहास्पद तरीके से घुटने टेक दिए हैं. सूचना आयोग पर लगभग ताला-सा लगा हुआ है. यहां तक कि अकादमिक जगत, प्रेस और सिविल सोसाइटी को भी सुनियोजित ढंग से नष्ट कर दिया गया है या चुप करा दिया गया है. सिविल सोसाइटी की आवाज को विभिन्न तरीकों से धीरे-धीरे मगर यकीनी तौर पर दबा दिया गया है. लेकिन सबसे ज्यादा चिंताजनक है न्यायपालिका की स्थिति.
मेरी नजर में कोर्ट के पतन की शुरुआत 2014 में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के बहुमत में आने के साथ हुई. एनडीए के सत्तासीन होने के ठीक बाद 2015 में (न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच) एक टकराव राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमीशन) अधिनियम की संवैधानिक वैधता के सवाल पर हुआ. कोर्ट ने अपनी आजादख्याली का साहसी इजहार करते हुए इस कानून को निरस्त कर दिया. सभी उच्च न्यायालयों में कई बार नए जजों की नियुक्तियां और वर्तमान जजों के तबादलों का फैसला या उसके लिए भूमिका तैयार करने का काम कानून मंत्रालय द्वारा किया जाता है.
जस्टिस अकील क़ुरैशी, जस्टिस मुरलीधर, जस्टिस जयंत पटेल के तबादलों के हालिया मामले हर तरह से सवाल खड़े किए जाने लायक थे, लेकिन कोर्ट ने इनको लेकर एक शब्द भी नहीं कहा और जजों को एक जगह से दूसरी जगह भेजने पर अपनी रजामंदी दे दी.
इंडियन एक्सप्रेस की एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सुप्रीम कोर्ट के हाल के दस सबसे महत्वपूर्ण फैसलों में से सिर्फ चार इस आज़ादी के अधिकार का दावा करने वाले व्यक्ति के हक में गए हैं. चारों मामलों में सरकार ने या तो याचिकाकर्ता का समर्थन दिया या अपनी कोई आपत्ति प्रकट नहीं की. इसके उलट जिन मामलों में सरकार ने विरोध किया, उन मामलों का फैसला व्यक्ति के पक्ष में न होकर सरकार के पक्ष में हुआ. सारे मामलों में कोर्ट का रवैया कुछ ऐसा ही दिख रहा है.
कोविड-19 से उपजे भीषण सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट ने प्रवासी मजदूरों के जीवन को उलट-पलट दिया लेकिन इस हालात पर सवाल उठाने वाली याचिकाओं को स्वीकार करने की जगह कोर्ट ने या तो इन याचिकाओं को स्वीकार करने से इनकार कर दिया या इन्हें आगे के लिए टाल दिया. कोर्ट ने कई ऐसी टिप्पणियां कीं, जो सवाल पैदा करते हैं: इसने कहा कि सरकार ने पहले ही मजदूरों के लिए दो शाम के खाने की व्यवस्था कर दी है, तो ऐसे में उनको और किस चीज की (निश्चित ही ‘मजदूरी नहीं ही) जरूरत पड़ सकती है. और रेल की पटरियों पर सोते हुए मजदूरों कर मृत्यु की भयावह घटनाओं को टाला नहीं जा सकता था क्योंकि आखिर ‘ऐसी घटनाओं को कोई कैसे रोक सकता है ?
अगर हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने पर गर्व करना चाहते हैं, तो यह पहली चीज है कि जिससे हमें चिंतित होना चाहिए. मिसाल के लिए असंवैधानिक नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को ले सकते हैं ? इस कानून की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन कोर्ट ने तुच्छ कारणों से इस मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया. आखिर राजनीतिक सत्ता और पुलिस में इतना साहस कहां से आ गया है ? इसमें कोई शक नहीं है कि यह भारत की वर्तमान कमजोर न्यायपालिका के कारण है.
अगर सुप्रीम कोर्ट इन सबका मूकदर्शक नहीं रहता और इसने ज्यादा सक्रियता के साथ हस्तक्षेप किया होता तो कहा जा सकता है कि यह सब नहीं हुआ होता. यूएपीए की व्याख्या से संबंधित एनआईए बनाम जहूर वटाली मामले में सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल, 2019 के फ़ैसले ने इस कानून से संबंधित निचले स्तर पर किए जाने वाले सभी फैसलों को प्रभावित किया है. इस फैसले ने एक नया सिद्धांत गढ़ा है, जिसके मुताबिक प्रभावी तौर पर, एक आरोपी को सुनवाई (ट्रायल) की पूरी अवधि के दौरान हिरासत में ही रहना होगा, भले ही अंत में यह साबित हो जाए कि व्यक्ति के ख़िलाफ़ पेश गया सबूत स्वीकार्य नहीं था और आरोपी को आख़िरकार बरी कर दिया जाए.
जस्टिस खानविलकर और जस्टिस रस्तोगी द्वारा यूएपीए के तहत जमानत अर्जियों पर विचार करते हुए दिए गए फैसले के मुताबिक कोर्ट को एफआईआर में लगाए गए सभी आरोपों को सही मानकर चलना चाहिए. इस कानून के तहत व्यक्ति को जमानत तभी मिल सकती है, अगर वह अभियोजन के आरोपों को नकारने वाले सबूत पेश कर दे. दूसरे शब्दों में आरोपों को गलत साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी पर है, जो ज्यादातर मामलों में एक तरह से नामुमकिन है. इस फैसले ने जमानत के चरण में सबूत की स्वीकार्यता के सवाल को बाहर कर दिया है. दरअसल ऐसा करते हुए इसने साक्ष्य कानून (एविडेंस एक्ट) को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है, जिसके हिसाब से यह फैसला असंवैधानिक ठहरता है.
यूएपीए के तहत अब जमानत याचिकाओं पर सुनवाई एक मजाक के अलावा और कुछ नहीं है. सबूत के ऐसे ऊंचे अवरोध लगा दिए गए हैं कि अब किसी आरोपी के लिए जमानत ले पाना नामुमकिन है और यह कानून वास्तव में किसी व्यक्ति को असीमित समय तक जेल की सलाखों के पीछे डाल देने का सुविधाजनक औजार बन गया है.
यह गिरफ्तार किए जाने वाले लोगों के लिए किसी दुस्वप्न के सच होने सरीखा है. इस कानून का दुरुपयोग सरकार, पुलिस और अभियोजन द्वारा खुले हाथों से किया जा रहा है, अब सभी विरोध करनेवालों पर नियमित तौर पर राजद्रोह या आपराधिक साजिश के (निराधार और असंभव) आरोपों के तहत और यूएपीए के तहत शिकंजा कसा जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उच्च न्यायालयों के हाथ बांध दिए हैं और उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है कि वे जमानत की अर्जी को खारिज कर दें, क्योंकि उनके पास केस को झूठा करार देने का अधिकार नहीं है. उच्च न्यायालय का जज अब वास्तव में किसी मामले के सबूत की न्यायिक समीक्षा या उसका आकलन नहीं कर सकता है. सभी मामलों के लिए अब जमानत को ख़ारिज कर देने के तयशुदा फॉर्मूले का पालन करने के अलावा और कोई चारा नहीं है. इसका असर आपातकाल के दौर के दमनकारी निवारक हिरासत (प्रिवेंटिव डिटेंशन) कानून के लगभग समान है, जिसमें अदालतों ने लोगों को न्यायिक उपचार के अधिकार का इस्तेमाल करने से वंचित कर दिया था.
अगर हम उस दौर की आपदा को टालना चाहते हैं, तो इस फैसले को जल्दी से जल्दी पलटा जाना चाहिए या उसमें नरमी लाई जानी चाहिए, अन्यथा हमारे सामने निजी आज़ादियों के बेहद आसानी से कुचल दिए जाने का ख़तरा है. मास्टर ऑफ रोस्टर जैसी अपारदर्शी व्यवस्था और एक खास तरह के मुख्य न्यायाधीश और मुट्ठीभर विश्वासपात्र जज उन सभी चीजों को नष्ट कर देने के लिए काफी हैं, जिन्हें एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए बहुमूल्य माना जाता है.
आज की स्थिति की भविष्यवाणी कई दशक पहले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वायवी चंद्रचूड़ ने कर दी थी, जब उन्होंने 1985 में कहा, ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ज्यादा बड़ा खतरा बाहर के बजाय भीतर से है…’. बगैर किसी लाग-लपेट के कहा जाए, तो आज भारत में यही हो रहा है. इन सबके बीच बस एक संस्था है, जिसमें इस विनाश को रोकने की क्षमता है, और वह है न्यायपालिका लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से ऐसा लगता है कि वह रास्ता भटक गई है.
(सौमित्र राय के सौजन्य से)
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