रवीश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तराष्ट्रीय पत्रकार
‘लक्ष्य समझिए. कठिन बात नहीं है. आपकी ज़मीन और आपका पैसा, हिंदुस्तान के दो तीन सबसे बड़े अरबपति चाहते हैं. पुराने समय में कठपुतली का शो होता था, याद है आपको ? कठपुतली चलती थी. पीछे से कोई चलाता था उसको, धागे बंधे होते थे. रावत जी आपने कहा मोदी जी की सरकार है. भाइयों और बहनों, ये मोदी सरकार नहीं है. ये अडानी और अम्बानी की सरकार है. नरेंद्र मोदी जी को अडानी और अम्बानी चलाते हैं. नरेंद्र मोदी जी को अडानी और अम्बानी जीवन देते हैं, कैसे ? मीडिया में नरेंद्र मोदी जी का चहरा दिखा के, 24 घंटे. सीधा-सा रिश्ता है. नरेंद्र मोदी जी इनके लिए ज़मीन साफ़ करते हैं और ये पूरा समर्थन नरेंद्र मोदी जी को मीडिया में देते हैं.’
यह बयान राहुल गांधी का है. किसी राजनीतिक दल के लिए अंबानी और अडानी का नाम लेना आसान नहीं है. उन्हीं की पार्टी में कई लोग इनके आदमी की तरह कहे जाते हैं. कई बार दबी ज़ुबान में. कई बार खुली ज़ुबान से. राहुल गांधी का यह बयान कभी उनका भी इम्तहान लेगा. फिलहाल जिस देश के मीडिया में जहां चैनलों के मालिक और एंकर अडानी और अंबानी का नाम लेने से पहले ही कांप जाते हैं, उस देश में राजनीतिक मंच से इसे मुद्दा बना देना कम जोखिम का काम नहीं होगा.
अंबानी और अडानी भी असहज महसूस कर रहे होंगे कि इससे तो एक दिन जनता में भी इन दोनों का नाम लेकर बोलने में साहस आ जाएगा. इंटरनेट सर्च करेंगे तो एक बयान मिलेगा. कांग्रेस और भाजपा दोनों मेरी दुकान हैं. क्या भारत की राजनीति में कोरपोरेट की गुलामी से कोई नई शुरूआत हो रही है या कोई कोरपोरेट का कोई नया गठबंधन बनने वाला है ? यह भी सवाल है. बोलना आसान है. इन्हें विस्थापित करना आसान नहीं है.
मैं कई बार कह चुका हूं कि मीडिया ने भारत के लोकतंत्र की हत्या की है. चैनलों में जो होता है वह लोकतंत्र की हत्या का ही सीधा प्रसारण होता है. नए भविष्य की कोई भी लड़ाई बग़ैर हत्यारे चैनलों से लड़े बग़ैर नहीं हो सकती है. यह लड़ाई सिर्फ विपक्ष को ही नहीं, जनता को भी लड़नी होगी. यह लड़ाई लाठी डंडे की नहीं होगी. विचारों और समझ की होगी. बेरोज़गार से लेकर किसान तक सबने देख लिया कि इन चैनलों के सामने उनके जनता होने का कोई मोल नहीं है.
जनता चैनलों और बाकी प्रेस से घिर चुकी है. उसका घेरा कसता जा रहा है. इससे पहले कि माध्यमों के इस महाजाल से उसका गला हमेशा के लिए घोंट दिया जाए जनता को फंदा हटाना पड़ेगा. यह आसान नहीं होगा. इसके लिए एक ज़िम्मेदार पाठक और दर्शक बनाने में पसीने छूट जाएंगे. अभी ऐसा नहीं लगता है. जनता के भीतर कई तरह के पूर्वाग्रह हैं. जाति से लेकर धर्म तक के. मीडिया इसके बहाने फंदा कसता रहेगा. अच्छी बात है कि विपक्षी दल के नाते राहुल गांधी मीडिया को लेकर अपनी बात रख रहे हैं. बस उस बात पर बहस नहीं हो रही है. उनके पूजा करने पर बीजेपी कितनी आक्रामक हो जाती है मगर मीडिया के स्वरूप पर वह बहस करने नहीं आएगी. गेंद को विकेट कीपर के हाथ में जाने देती है.
इस बीच कोरोना महामारी के बहाने जुर्माने के नाम पर गरीब जनता से करोड़ों वसूले जा रहे हैं. गुजरात में 53 करोड़ से अधिक का जुर्माना वसूला गया है. पान और चाय की दुकानें सील हो गई हैं. हरियाणा, पंजाब में किसानों का आंदोलन चल रहा है. चैनलों पर ग़ायब है. बेरोज़गार नौजवान हर दिन अपनी समस्या के लिए मीडिया से संपर्क कर रहा है, निराशा हाथ लग रही है. निजीकरण के फैसले लिए जा चुके हैं. उनके प्रदर्शनों को देशविरोधी खाते में डाल कर बंद कर दिया गया है.
सारे नक़ली रिपब्लिक चैनल वाले असली रिपब्लिक चैनल पर टूट पड़े हैं. ये सिस्टम ही फ़्राड है और इस फ़्राड के सभी लाभार्थी रहे हैं. रेटिंग का फ़्राड सिर्फ़ एक तरीक़े से नहीं किया जाता है. यह काम सिर्फ़ अकेले चैनल नहीं करता है बल्कि इस खेल में सत्ता भी मदद करती है. मुंबई पुलिस की कार्रवाई से मुझे कुछ नया जानने को नहीं मिला. यह सारी बातें हम कानों सुनी जानते हैं. अर्णब गोस्वामी का नाम आते ही बाक़ी गोदी मीडिया ऐसे एकजुट हो गया जैसे उनके वहाँ पत्रकारिता होती हो.
अर्णब के चैनल पर FIR से उछलने वाले चैनल भी कम गोदी मीडिया और गंध नहीं है. आज की तारीख़ में ज़्यादातर चैनल रिपब्लिक हो चुके हैं और भी रिपब्लिक होना चाहते हैं. आप ज़रा-सा याद करें कि उन चैनलों पर क्या दिखाया जाता रहा है तो समझने में देर नहीं लगेगी. इन गंध चैनलों को एक महागंध चैनलों ने मात दे दी है इसलिए वे अर्णब पर टूट पड़े हैं जबकि हैं सब एक. गोदी मीडिया. आप इस खेल में मज़ा लेने से बचिए.
टीआरपी का फ़्राड कई तरीक़े से होता है. आपने जाना कि दिन घरों में टीआरपी का मीटर लगा था वहाँ पैसे दिए जाते थे ताकि वे कथित रूप से रिपब्लिक चैनल चलता हुआ छोड़ दें. देखें या न देखें. यहाँ पर मुंबई पुलिस और बार्क को बताना चाहिए कि अर्णब के चैनल की रेटिंग मुंबई से कितनी मिलती है ? क्या ऐसा दूसरे शहरों में भी होता था ? अकेले मुंबई की रेटिंग को माइनस कर देने से उन शहरों में क्या अर्णब की रेटिंग कम हुआ करती थी ? टीआरपी की दुकान चलाने वाली संस्था BARC को कुछ और तथ्य सामने रखने चाहिए ?
टीआरपी का एक फ़्राड यह भी होता है कि आप मीटर किन घरों या इलाक़े में लगाते हैं. मान लें आप किसी कट्टर समर्थक के घर मीटर लगा दें. आप उसे पैसा दें या न दें वो देखेगा नहीं चैनल जिन पर सांप्रदायिक प्रसारण होता है. आज कल किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रोफ़ाइल जानने में दो मिनट लगता है. क्या यह मीटर दलित आदिवासी और मुस्लिम घरों में लगे हैं ? क्या ये मीटर सिर्फ़ भाजपा समर्थकों के घर लगे हैं ? हम कैसे मान लें कि टीआरपी का मीटर सिर्फ़ एक सामान्य दर्शक के घर में लगा है, सवाल ये कीजिए.
रेटिंग का फ़्राड केबल से होता है. मान लीजिए मुंबई की धारावी में 200 मीटर लगे हैं. वहाँ का केबल वाला प्राइम टाइम नहीं दिखाएगा तो मेरी रेटिंग कम होगी. यूपी के सबसे बड़े केबल वाले से कहा जाएगा कि NDTV INDIA नौ बजे बंद कर दो. मेरी रेटिंग ज़ीरो हो जाएगी. इस खेल में प्रशासन भी शामिल होता है और केबल वाले भी. हर घर में मीटर नहीं होता है. जिन घरों में मीटर नहीं होता है उन घरों में आप मुझे दिन भर देखें रेटिंग नहीं आएगी. शायद पूरे देश में 50,000 से भी कम मीटर हैं. BARC से आप सही संख्या पूछ सकते हैं. यह भी एक फ़्राड है.
एक फ़्राड है रातों रात चैनल को किसी दूसरे नंबर पर शिफ़्ट कर दिया जाता है. आपको पता नहीं चलेगा कि चैनल कहाँ गया. कभी वीडियो तो कभी आवाज़ नहीं आएगी. मेरे केस में इस राजनीतिक दबाव का नाम तकनीकी ख़राबी है. बिज़नेस का लोचा है ! समझे. जब आप केबल ऑन करेंगे तो तीस सेकंड तक रिपब्लिक ही दिखेगा या इस तरह का कोई और चैनल. होटलों में भी किसी चैनल को फ़िक्स किया जाता है.
इस खेल में कई चैनल होते हैं इसलिए अर्णब पर सब हमला कर रहे हैं ताकि उनका खेल चलता रहे. नया खिलाड़ी चला जाए. टीआरपी मीटर का सिस्टम आज ख़राब नहीं हुआ. इस मसले को हड़बड़ में न समझें. ऐसा न हो कि टीआरपी कराने वाली संस्था बार्क अपनी साख बढ़ा ले कि उसी ने चोरी पकड़ी और पुलिस ने कार्रवाई की. यह चोरी न भी पकड़ी जाती तब भी इस सिस्टम में बहुत कमियाँ हैं. इस भ्रम में न रहें कि मीडिया में सब टीआरपी के अनावश्यक बोझ के कारण होता है. कुछ आवश्यक दबाव के कारण भी होता है.
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