रवीश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तराष्ट्रीय पत्रकार
मेरा फिर भी अनुरोध है कि चुनाव आए तो अखबार पढ़ना ही नहीं लेना भी बंद कर दें. चैनलों के कनेक्शन कटवा दें.
नोट- यह लेख एक पैराग्राफ का है. लंबा है. कृपया इसे अपनी साइट पर छापें तो इसमें पैराग्राफ चेंज न करें. मेरा फिर भी अनुरोध है कि चुनाव आए तो अखबार पढ़ना ही नहीं लेना भी बंद कर दें. चैनलों के कनेक्शन कटवा दें. इस एक महीने के कवरेज से कुछ होता नहीं है. ज़्यादातर कवरेज़ में फिक्सिंग होगी. क्या फायदा ? लोगों से बात करें. आपस में बात करें. फिर वोट दें. पांच साल में जो देखा है उस पर भरोसा रखें. न्यूज़ वेबसाइट, चैनल और अखबार के पास कुछ भी नया नहीं है. कुछ भी खोज कर लाई गई सामग्री नहीं है. बस वाक्य को आकर्षक बनाया जाएगा, हेडलाइन कैची होगी और आपके निगाहों को लूट लिया जाएगा, जिसे आई बॉल्स या टीआरपी कहते हैं. पढ़ भी रहे हैं तो ग़ौर से पढ़िए कि इस लेख में है क्या. केवल पंचिंग लाइन का खेला है या कुछ ठोस भी है. पाठक हैं तो बदल जाइये. दर्शक हैं तो चैनलों को घर से निकाल दीजिए.
बिहार : एक पैराग्राफ की कहानी का राज्य
साधारण कथाओं का यह असाधारण दौर है. बिहार उन्हीं साधारण कथाओं के फ्रेम में फंसा एक जहाज़ है. बिहार की राजनीति में जाति के कई टापू हैं. बिहार की राजनीति में गठबंधनों के सात महासागर हैं. कभी जहाज़ टापू पर होता है. कभी जहाज़ महासागर में तैर रहा होता है. चुनाव दर चुनाव बिहार उन्हीं धारणाओं की दीवारों पर सीलन की तरह नज़र आता है जो दिखता तो है मगर जाता नहीं है. सीलन की परतें उतरती हैं तो नईं परतें आ जाती हैं. बिहार को पुरानी धारणाओं से निकालने के लिए एक महीना कम समय है. सर्वे और समीकरण के नाम पर न्यूज़ चैनलों से बाकी देश ग़ायब हो जाएगा. पर्दे पर दिखेगा बिहार मगर बिहार भी ग़ायब रहेगा. बिहार में कुछ लोग अनैतिकता खोज रहे हैं और कुछ लोग नैतिकता. बिहार में जहां नैतिकता मिलती है वहीं अनैतिकता भी पाई जाती है. जहां अनैतिकता नहीं पाई जाती है वहां नैतिकता नहीं होती है. बिहार में दोनों को अकेले चलने में डर लगता है इसलिए आपस में गठबंधन कर लेती हैं. अनैतिक होना अनिवार्य है. अनैतिकता ही अमृत है. नैतिकता चरणामृत है. पी लेने के बाद सर में पोंछ लेने के लिए होती है. नेता और विश्लेषक पहले चुनाव में जाति खोजते थे. जाति से बोर हो गए तो जाति का समीकरण बनाने लगे. समीकरण से बोर हो गए तो गठबंधन बनाने लगे. गठबंधन से बोर हो गए तो महागठबंधन बनाने लगे. नेता जानता है इसके अलावा हर जात के ठेकेदार को पैसे देने पड़ते हैं. दरवाज़े पर बैठे लोग पैसे मांगते हैं. चीज़ सामान मांगते हैं. यह स्वीकार्य अनैतिकता है. पहले जनता नहीं बताती थी कि किसने दिया है. अब राजनीतिक दल नहीं बताते हैं कि करोड़ों का फंड किसने दिया है. इल्केटोरल फंड पर कई महीनों से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई नहीं हुई है. बहरहाल, जाति, समीकरण, गठबंधन और महागठबंधन के बाद फैक्टर का चलन आया है. किसमें ज़ेड फैक्टर है और किसमें एक्स फैक्टर है. स्विंग का भी फैक्टर है. सब कुछ खोजेंगे ताकि जीतने वाले की भविष्यवाणी कर सकें. कोशिश होगी कि जल्दी से महीना गुज़र जाए. वास्तविक अनैतिक शक्तियों तक न पहुंचा जाए वर्ना विज्ञापन बंद हो जाएगा और जोखिम बढ़ जाएगा. आम जनता जिसने पांच साल में घटिया अख़बारों और चैनलों के अलावा न कुछ देखा और पढ़ा है, उस पर दबाव होगा कि उसके बनाए ढांचे से निकल कर ज़मीनी अनुभव को सुना दे. अब तो वह जनता भी उसी फ्रेम में कैद है. वह ज़मीनी अनुभवों में तड़प रही है मगर आसमानी अनुभवों में ख़ुश है. सूचनाएं जब गईं नहीं तो जनता के मुखमंडल से लौट कर कैसे आएंगी. जनता समझदार है. यह बात जनता के लिए नहीं कही जाती बल्कि राजनीतिक दलों की अनैतिकताओं को सही ठहराने के लिए कही जाती है. जनता की मांग खारिज होगी. नेता जो मांग देंगे वही जनता को अपनी मांग बनानी होगी. नेता जनता को खोजते हैं और जनता नेता को खोजते हैं. चैनल वाले दोनों को मिला देंगे. ज़्यादा मिलन न हो जाए, उससे पहले महासंग्राम जैसे कार्यक्रम में खेला-भंडोल हो जाएगा. खोजा-खोजी बिहार के चुनाव का अभिन्न अंग है. आंंखों के सामने रखी हुई चीज़ भी खोजी जाती है. कोई नेता गठबंधन के पीछे लुकाया होगा तो कोई नेता उचित गठबंधन पाकर दहाड़ने लगा होगा. बिहार 15 साल आगे जाता है या फिर 15 साल पीछे जाता है. अभी 15 साल पीछे है, मगर खुश है कि उसके 15 साल में जितना पीछे था, उससे आगे है. उसके बगल से दौड़ कर कितने धावक निकल गए, उसकी परवाह नहीं. इसकी होड़ है कि जिससे वह आगे निकला था उसी को देखते हुए बाकियों से पीछे रहे. बिहार की राजधानी पटना भारत का सबसे गंदा शहर है. जिस राज्य की राजधानी भारत का सबसे गंदा शहर हो वह राज्य 15 साल आगे गया है या 15 साल पीछे गया है, बहस का भी विषय नहीं है. सबको पता है किसे कहां वोट देना है. जब पता ही है तो पता क्या करना कि कहां वोट पड़ेगा. नीतीश कहते हैं वो सबके हैं. चिराग़ कहते हैं कि मेरे नहीं हैं. चिराग कहते हैं कि मेरे तो मोदी हैं, दूजा न कोए. मोदी की बीजेपी कहती है मेरे तो नीतीश हैं, दूजा न कोए. गठबंधन से एक बंधन खोल कर विरोधी तैयार किया जाता है ताकि मैच का मैदान कहीं और शिफ्ट हो जाए. मुकाबला महागठबंधन बनाम राजग का न ले. चिराग और नीतीश का लगे. चिराग कहते हैं नीतीश भ्रष्ट हैं. बीजेपी कहती है नीतीश ही विकल्प हैं. नीतीश से नाराज़ मतदाता नोटा में न जाएंं, महागठबंधन में न जाए इसलिए चिराग़ को नोटा बैंक बना कर उतारा गया है. चिराग का काम है महागठबंधन की तरफ आती गेंद को दौड़कर लोक लेना है. राजग को आउट होने से बचाना है. बाद में तीनों कहेंगे कि हम तीनों में एक कॉमन हैं. भले नीतीश मेरे नहीं हैं मगर मोदी तो सबके हैं. मोदी नाम केवलम. हम उनकी खातिर नीतीश को समर्थन देंगे. ज़रूरत नहीं पड़ी तो मस्त रहेंगे. दिल्ली में मंत्री बन जाएंगे. ज़रूरत पड़ गई तो हरियाणा की तरह दुष्यंत चौटाला बन जाएंगे. बस इतनी सी बात है. एक पैराग्राफ की बात है. बिहार की कहानी दूसरे पैराग्राफ तक पहुंच ही नहीं पाती है.
Read Also –
बिहार विधानसभा चुनाव : जंगल राज की परिभाषा को संकीर्ण नहीं बनाया जा सकता
लकड़बग्घे की अन्तर्रात्मा !
इंटर के परीक्षा कॉपियों की पुनः जांच की मांग को लेकर आमरण अनशन
बिहार में पढ़ने वाले बच्चे जेएनयू, जामिया और डीयू को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं ?
बिहार में सिकुड़ता वामपंथी संघर्ष की जमीन ?
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]