Home गेस्ट ब्लॉग भारत के किसानों, जय हुई या पराजय ?

भारत के किसानों, जय हुई या पराजय ?

6 second read
0
0
516

भारत के किसानों, जय हुई या पराजय ?

Ravish Kumarरवीश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तराष्ट्रीय पत्रकार

किसान भाइयों, आज आपकी आज़ादी का दिन है. सरकार ने इसकी घोषणा की है. 2017 में जीएसटी आई थी तो ऐसी ही एक आज़ादी का एलान हुआ था. 2016 मे जब नोटबंदी आई थी तब भी एक आज़ादी की घोषणा की गई थी. मुझे नहीं पता कि नोटबंदी और जीएसटी से मिली आज़ादी से आप हवा में उड़ रहे थे या ज़मीन पर दौड़ रहे थे, मुझे यह भी नहीं मालूम कि आज मिली आज़ादी के बाद आप आसमान में उड़ेंगे या अंतरिक्ष में उड़ेंगे ? पहले तो यही बताइये कि जिन तीन अध्यादेशों को लेकर लोकसभा और राज्य सभा में चर्चा हुई, उन पर आपके अखबारों और चैनलों ने कितनी चर्चा की ? आप जून के महीने से चैनलों पर सुशांत सिंह राजपूत के बहाने अश्लीलता की हदों को पार करते हुए मीडिया कवरेज़ में डूबे थे या कृषि अध्यादेश पर हो रही चर्चाओं से जागरुक किए जा रहे थे ? किसी ने कहा कि अखबार और चैनलों से किसान ग़ायब हो चुके हैं, फिर भी किसान अख़बार और चैनलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य हर महीने देते हैं. बधाई.

राज्य सभा में जो हुआ उसे छोड़ देते हैं. विपक्ष ने लोकतंत्र की हत्या के आरोप लगाए हैं. वोटिंग की जगह ध्वनिमत से पास कराना और राज्य सभा के टेलिविज़न चैनल पर प्रसारण रोकने के आरोप की सत्यता कभी सामने नहीं आ पाएगी. आ भी गई तो क्या हो जाएगा. मुझे यकीन है जब आप किसान 14 जून के बाद से सुशांत सिंह राजपूत का कवरेज़ देखने में लगे थे या मजबूर किए गए तो आज ऐसा क्या हो गया होगा कि उन चैनलों पर किसानों की ज़िंदगी से जुड़े बिल के पहलुओं पर चर्चा हो रही होगी ? नरेंद्र मोदी जी ने आपको आज़ादी दी है तो सोच कर ही दी होगी. इसलिए आपको बधाई.

पर क्या ये तीनों अध्यादेश जो आज कानून बने हैं किसान आंदोलनों की मांगों के नतीजे में लाए गए थे ? क्या आप भूल गए कि आपने मार्च, 2018 में और नवंबर, 2018 में महाराष्ट्र और दिल्ली में पदयात्रा और किसान मुक्ति संसद का आयोजन क्यों किया था ? मैं याद दिलाने की कोशिश करता हूं.

मार्च, 2018. नाशिक से हज़ारों किसानों का जत्था छह दिनों तक पैदल चल कर मुंबई पहुंचा था. 200 किमी की इस यात्रा में किसानों के अनुशासन ने मुंबई का भी दिल जीत लिया था. अखिल भारतीय किसान सभा के बीजू कृष्णन के नेतृत्व में इस मार्च का आयोजन हुआ था. किसान आज़ाद मैदान में जमा हुए थे और विधानसभा का घेराव करना चाहते थे. किसान सरकार से कह रहे थे कि लागत का डेढ़ गुना मांग रहे थे. महाराष्ट्र सरकार ने मांगों पर विचार करने के लिए एक कमेटी बनाई थी.

30 नवंबर 2018 को किसान फिर से दिल्ली में जमा हुए. 184 संगठनों के रंग-बिरंगे झंडे दिल्ली में लहरा रहे थे. देश के कई राज्यों से आए किसानों की एक दो ही मांग थी. कर्ज़ मुक्ति के लिए कानून बने. सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे. किसान मुक्ति संसद के हर भाषण में इन दो मांगों को प्रमुखता से उठाया गया था.

20 सितंबर 2020. मोदी सरकार किसानों के लिए तीन विधेयक को कानून का रुप देती है. उसमें किसान संगठनों की मुख्य मांगों की कोई झलक नहीं है. वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी की गारंटी की बात तक नहीं करती है. इस कानून के बनने के बाद प्रधानमंत्री बार-बार ट्वीट कर रहे हैं कि’ सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदी करती रहेगी. जो भी कह रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो गया है, वह अफवाह फैला रहा है.’ सवाल करने वाले कह रहे हैं कि यही बात कानून में क्यों नहीं है ? किसानों की जो मांग थी, उसके उलट सरकार कानून लेकर आ रही है.

किसानों ने कहा कि ‘इतना भी कर दीजिए कि उस कानून में यह लिख दीजिए कि कोई भी चाहे मंडी का आढ़ती हो या बिजनेसमैन का एजेंट, न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे पर ख़रीद नहीं करेगा.’ सरकार ने यह भी गारंटी नहीं दी. बिहार के किसान ही बता दें कि जहां मंडी सिस्टम नहीं है, क्या खुले बाज़ार में उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक पर बिक्री की है ? वहां सहकारिता समिति, जिसे पैक्स कहते हैं, के ज़रिए खरीदी होती है जिसके घोटाले को उजागर करने की बौद्धित कौशल आज के पत्रकारों में ही नहीं है.

यही नहीं कांट्रेक्ट फार्मिग में अगर कंपनी से विवाद हुआ तो ज़िला प्रशासन का एसडीएम एक बोर्ड बनाएगा. क्या एसडीएम के कोर्ट से बड़े-बड़े व्यापारिक घरानों के सामने किसानों को इंसाफ़ मिलेगा ? क्या कंपनी के दबाव के बाद भी एसडीएम साहब बोर्ड बना देंगे ? जब देश में कोर्ट है तब बोर्ड क्यों बन रहा है ? क्या इसलिए कि आप चाहें भी तो कोर्ट तक न पहुंच सकें, पहुंचे भी तो कई साल लग जाएं ? आज़ादी मिली है किसान भाइयों, आज तो गांवों में जश्न मनाइये.

भारत के किसान हमेशा से ही अपनी उपज खुले बाज़ार में बेचते रहे हैं. कई सरकारी रिकार्ड के अनुसार बहुत से बहुत छह प्रतिशत किसान ही मंडी सिस्टम में अपनी उपज बेच पाते थे. यानी उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल रहा था, मगर बाकी किसानों को नहीं मिल रहा था. अगर किसान एग्रीकल्टर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी के इतने खिलाफ थे तो यह मांग 184 किसान संगठनों की प्रमुख मांग क्यों नहीं थी ? वो क्यों न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे थे ?

हिन्दुस्तान टाइम्स में रोशन किशोर ने लिखा है कि 2018 में किसानों और व्यापारियों पर हुए एक सर्वे में रिज़र्व बैंक ने पाया है कि 50 प्रतिशत से अधिक किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की योजना को लाभकारी मानते हैं. सोचिए किसानों ने कहा कि हमारी उपज की खरीद की गारंटी दीजिए. सरकार कह रही है कि आप कहीं भी जाकर बेचिए, हमें क्या. हम आपको आज़ाद कर रहे हैं. आज़ादी मिली है तो हंसा भी कीजिए.

यह कहा गया कि मंडी में जो अनाज बिकता है उस पर सरकार और आढ़ती कमीशन लेते हैं. यह खत्म होगा. पता नहीं जो नया बिजनेसमैन आएगा वो जीएसटी के रूप में कमीशन लेगा देगा कि नहीं. अगर नहीं देगा तो सरकार को घाटा होगा. अगर कमीशन समस्या थी तो कानून बनाकर सरकार के कमीशन का हिस्सा किसानों को दिया जा सकता था. इसकी जगह मंडी सिस्टम को ही खत्म किया जा रहा है, जिसमें सरकारें दशकों से निवेश करती रही थी.

उसी के बाहर बिक्री की एक और व्यवस्था बनाने का आधार क्या है ? क्या प्राइवेट पार्टियां आकर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक दाम देंगी ? सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से घोषित रूप से पीछे हट रही है. 2022 सिर्फ 13 महीने दूर है. किसानों की आमदनी दुगनी होगी, यह भारत का किसान अपनी आंखों से देखेगा. वो आमदनी किस आमदनी से दुगनी होगी, यह सरकार कभी नहीं बताती है.

आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत अब कई चीज़ों का भंडारण असीमित हो सकेगा. पहले इसलिए रोक थी कि जमाखोरी न हो और किसान से सस्ते दाम पर खरीद कर व्यापारी बाद में बेच कर ज़्यादा मुनाफा न कमाए. दूसरा कानून मंडी सिस्टम के खत्म होने का है. उसके सामने एक और बाज़ार बनाने का दावा किया जा रहा है, जो पहले से मौजूद है. तर्क दिया जा रहा है कि मंडी सिस्टम का एकाधिकार ख़त्म होगा, जहां आढ़ती दामों को कम कर देते थे.

अगर फसलों की खरीद की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी की गारंटी दी जाती तो कोई आढ़ती दाम कैसे कम कर देता ? सरकार ने किसानों की इस मांग को क्यों नकार दिया ?
कोरपोरेट की आमद हो रही है, आप स्वागत नहीं करेंगे ?

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का हश्र आपने देखा है. हरियाणा में ही किसानों को प्रीमियम देने के बाद अपने मुआवज़े के लिए संघर्ष करना पड़ा. अपवाद को छोड़ किसानों को कहीं लाभ नहीं मिला है, तो किसान भाइयों इतना बता दीजिए, क्या आप कंपनी से लड़ लेंगे ? समस्या होगी तो कोई अखबार कवर करेगा ? कोई चैनल कवर करेगा ? वो अपने विज्ञापन का देखेगा या आपके हित का ?क्या आपको पता है कि अखबार और चैनल किसके हैं ?

चलिए आज मोदी जी ने आज आपको आज़ादी है. उम्मीद है गांवों में दिनों-दिनों तक खीर-सेवइयां बनेंगी. होली मुबारक हो. आजादी मुबारक हो. यह तो बता दीजिए कि आज आपकी जय हुई है या पराजय हुई है ?

आप जिस वक्त टीवी पर सुशांत सिंह राजपूत के कवरेज़ और हिन्दू मुसलमान में व्यस्त थे, तब रवीश कुमार नाम के एक पत्रकार ने इन अध्यादेशों पर एक प्राइम टाइम किया था, तब नहीं देखा तो अब देख लीजिए. 21 घंटे पहले मैंने अपने पुराने पेज को यहां पोस्ट किया. डेढ़ हज़ार शेयर हुआ लेकिन यू-ट्यूब का व्यूज़ जस का तस है. क्या मैं यू-ट्यूब और गूगल से लड़ सकता हूं, उसी तरह से जैसे आप नी-नी कंपनी से लड़ सकते है ? यदि हां, तो मुझे आज़ादी की खीर खिलाना न भूलिएगा.

Read Also –

अडानी लेने वाला है आढ़तियों की जगह
25 सितम्बर को 234 किसान संगठनों का भारतबन्द : यह जीवन और मौत के बीच का संघर्ष है
मोदी सरकार के तीन कृषि अध्यादेश : किसानों के गुलामी का जंजीर
भारतीय कृषि को रसातल में ले जाती मोदी सरकार
किसान यानी आत्महत्या और कफन
राजनीतिक दलों से क्या चाहते हैं किसान ?
किसानों को उल्लू बनाने के लिए बहुत ज़रूरी हैं राष्ट्रवाद के नारे
भारतीय कृषि का अर्द्ध सामन्तवाद से संबंध : एक अध्ययन

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…