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वैकल्पिक मीडिया व ‘सोशल मीडिया’ और बदलाव की राजनीति

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वैकल्पिक मीडिया व 'सोशल मीडिया' और बदलाव की राजनीति

जनतांत्रिक विश्व में सत्ता की लड़ाई अंततः अवधारणाओं का संघर्ष है. अवधारणाओं के संघर्ष में मीडिया की अहम भूमिका है. यह मीडिया ही है जिसके द्वारा जनता के बड़े हिस्से के साथ संवाद स्थापित किया जा सकता है. बदलाव की राजनीति करने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि अपनी अवधारणाओं के प्रचार-प्रसार के लिए वे सत्ता के द्वारा प्रस्तुत और नियंत्रित मीडिया पर निर्भर नहीं रह सकते हैं. उन्हें अपनी अवधारणाओं के प्रचार-प्रसार के लिए वैकल्पिक मीडिया को गढ़ना ही होगा. इस आलेख में वैकल्पिक मीडिया से संबंधित कुछ फुटकर टिप्पणियां प्रस्तुत की जा रही हैैं.

बदलाव की राजनीति के लिए मीडिया का मतलब

क) शोषण की सत्ता की नीतियों और कार्यक्रमों की पड़ताल और आलोचना करना.

ख) सत्ता के विरोध में जन उभार को गति एवं दिशा प्रदान करना.

ग) समतावादी और जनपक्षी विकल्प को सामान्य जनता के सामने प्रस्तुत करना.

वैकल्पिक मीडिया में ‘सोशल मीडिया’ की अहम भूमिका है. पिछले कुछ दिनों में यह मध्य आय समूहों के युवाओं में काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय होता जा रहा है.

सोशल मीडिया की विशेषता

क) इसके द्वारा सूचना को तत्काल प्रभाव से एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया जा सकता है.

ख) इसके द्वारा पाठ संदेश (text message), चित्रात्मक संदेश (pictorial message), ध्वनि संदेश (voice message) और वीडियो संदेश (video message) अथवा उनका मिला-जुला स्वरूप भेजा जा सकता है.

ग) संदेश में कोई सुधार करनी हो, तो वह भी इस माध्यम में तत्काल प्रभाव से संपादित किया जा सकता है.

घ) इसमें एक से अनेक के बीच संवाद करने की संभावना मौजूद होती है.

सोशल मीडिया की इन विशेषताओं को रेखांकित करते हुए यह जरूरी है कि ‘सोशल मीडिया’ के संबंध में बदलाव की राजनीति करने वाले अपनी समझ साफ रखें. आमतौर पर डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर मौजूद मीडिया के अवसरों को ‘सोशल मीडिया’ कह दिया जाता है. सिर्फ इस कारण से कोई मीडिया प्लेटफाॅर्म सोशल अथवा सामाजिक नहीं हो जाता है कि वह वैश्विक रूप से इंटरनेट पर उपलब्ध है.

‘सोशल मीडिया’ होने की पहली शर्त है कि उसमें एक से अनेक के बीच संवाद स्थापित होने की संभावना मौजूद हो; अर्थात एकालाप नहीं, वार्तालाप होने की संभावना मौजूद हो. डिजिटल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध मीडिया के अवसरों में यह संभावना असीम रूप से मौजूद है, लेकिन इस संभावना की तथ्यपरक पड़ताल भी आवश्यक है. इस संबंध में तथ्यपरक पड़ताल करते समय तथाकथित ‘सोशल मीडिया’ और पूंजी के संबंधों को जान लेना आवश्यक है.

सोशल मीडिया और पूंजी के सम्बंध

क) ‘सोशल मीडिया’ के तमाम प्लेटफार्म – फेसबुक, टि्वटर, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, यू-ट्युब, गूगल आदि – एकाधिकारवादी पूंजी के द्वारा नियंत्रित हैं.

ख) ‘सोशल मीडिया’ के लोकप्रिय प्लेटफाॅर्म जो एकाधिकारवादी पूंजी के द्वारा नियंत्रित हैं, स्वाभाविक रूप से शोषक व्यवस्था की राज्य सत्ता से सांठगांठ करते हैं.

ग) पूंजी के साथ अपने सांठ-गांठ के कारण ‘सोशल मीडिया’ पर सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों के सबसे उत्तेजनापूर्ण क्षणों में सत्ता विरोधी तत्वों को नियंत्रित किये जाने की प्रवृत्ति मौजूद होती है. फेसबुक पर सत्ता विरोधी टिप्पणियों को डिलीट कर देने के दृष्टांत और व्हाट्सएप पर समूह के सदस्यों एवं संदेश भेजने की संख्या को सीमित करना, इसी तथ्य की ओर इशारा करते हैं.

यह समझ लेने का है कि इंटरनेट आधारित ‘सोशल मीडिया’ किसी भी परिस्थिति में पूंजी के हितों का पोषण करने वाली राज्य सत्ता को अंतिम चुनौती देने वालों का साथ नहीं देगा. ‘सोशल मीडिया’ पर आधारित बदलाव की राजनीति के संचार तंत्र को पल भर में नष्ट किया जा सकता है. सत्ता के लिए सबसे आसान तरीका यह होगा कि वह अपने को मिलने वाली चुनौती के सबसे गंभीर क्षणों में इंटरनेट सेवा को ही प्रभावित क्षेत्रों में बंद कर दे. कई अवसरों पर पूरे विश्व में ऐसा हुआ है.

बावजूद इसके कि इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया में एक से अनेक के बीच संवाद स्थापित करने की अपार संभावना मौजूद है, समाज वैज्ञानिक और संचार विशेषज्ञ इस संभावना के फलीभूत होने पर शंका व्यक्त करते हैं. नीचे उक्त संबंध में कुछ तथ्य सामने रखे जा रहे हैं.

सोशल मीडिया से संबंधित कुछ व्यावहारिक तथ्य

क) तथाकथित ‘सोशल मीडिया’ अपने सामाजिक होने का जितना भी दंभ भर ले, यह वास्तव में आभासी दुनिया का निर्माण करता है.

ख) समाज वैज्ञानिक और संचार विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि सोशल मीडिया का अत्यधिक प्रयोग मनुष्य को सामूहिक प्रयासों से अलग करता है और उसे आत्म केंद्रित बना देता है.

ग) एक से अनेक के बीच संवाद को स्थापित करने की अपार संभावना के बावजूद सोशल मीडिया पर विचार विमर्श एक खास छोटे समूह जो आपस में पूर्व परिचित होते हैैं, के बीच ही होता है. इस माध्यम में संवाद स्थापित करने के स्थान पर एक दूसरे के द्वारा डाले गए पोस्ट को ‘लाइक’ करने का व्यापार अधिक होता है.

घ) यह कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया पर भीड़ के बीच व्यक्तिगत टिप्पणियों का कोलाहल होता है और उसमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं होता है.

‘सोशल मीडिया’ पर यह वातावरण यथास्थितिवादियों के लिए तो माकूल है, लेकिन बदलाव की शक्तियों के लिए एक गंभीर कमी प्रस्तुत करता है. ऐसे में ‘सोशल मीडिया’ किसी क्रांतिकारी बदलाव की राजनीति के दर्शन को गढ़ने का अवसर प्रदान नहीं करता है.

क्रांतिकारी बदलाव और मीडिया के अंतर्संबंध

क) क्रांतिकारी बदलाव के लिए आवश्यक है कि गंभीर सामूहिक विमर्श हो, जिसमें निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ने का संकल्प हो.

ख) मीडिया पर मौजूद सूचनाओं को क्रांतिकारी बदलाव के दर्शन को गढ़ने में उपयोग करने अथवा क्रांतिकारी ज्ञान के सृजन हेतु आवश्यक है कि उपलब्ध सूचना को सामूहिक प्रतिरोध के कार्यक्रम से जोड़ने का प्रयास किया जाए.

ग) क्रांतिकारी बदलाव के निमित्त ज्ञान के सृजन के लिए आवश्यक है कि उपलब्ध सूचनाओं को लगातार व्यवहार की कसौटी पर कसा जाए.

आभासी दुनिया में रहते हुए इसकी संभावना नहीं होती है. बदलाव की राजनीति में वैकल्पिक मीडिया का बहुत महत्व है, लेकिन इसमें ‘सोशल मीडिया’ एक अत्यंत छोटी भूमिका निभाता है. तथाकथित ‘सोशल मीडिया’ नेतृत्व के बीच संवाद स्थापित करने में उपयोगी हो सकता है, लेकिन इसके भरोसे क्रांतिकारी बदलाव की संभावना नहीं है.

युवाओं के बीच सोशल मीडिया को लेकर जो उत्साह है, उसका एक कारण तकनीक की नवीनता है. यह नवीनता निश्चित रूप से लुभाने वाली और साथ में उपयोगी भी है, लेकिन बदलाव की राजनीति करने वालों को तकनीक और सामाजिक परिवर्तन के बीच के संबंधों को थोड़े व्यापक पैमाने पर समझने की जरूरत है. जो बात मोटे पैमाने पर समझने की है, वह है कि तकनीक का अपना कोई वर्ग चरित्र नहीं होता है, लेकिन वर्ग विभाजित समाज में वह वर्ग विशेष के हितों को साधने लगता है. ‘सोशल मीडिया’ के बारे में बात करते समय इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत है.

डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर उपलब्ध ‘सोशल मीडिया’ समाज में सूचनाओं का डिजिटल विभाजन भी करता है. वह ज्ञान को पूंजी संकेंद्रित बनाने का प्रयास करता है. हमारे देश में दूरदराज के इलाकों में रहने वाले समाज के हाशिए पर रहने वाले वंचित लोग सूचनाओं के विपुल प्रवाह से न केवल वंचित हैं, बल्कि उनको उससे वंचित कर देने का सुनियोजित प्रयास हो रहा है.

महिला, दलित, अति पिछड़े, आर्थिक रूप से विपन्न, खेत मजदूर, सीमांत किसान, बेरोजगार ग्रामीण युवा आदि वंचित समुदाय सूचना विपन्नता का दंश भोगने को अभिशप्त हैं. सूचना के प्रवाह पर इंटरनेट और डिजिटल प्लेटफॉर्म का दबदबा डिजिटल विभाजन के साथ-साथ समाज में वर्ग विभाजन को तेज कर रहा है.

ऐसे में यह आवश्यक है कि बदलाव की शक्तियां ‘सोशल मीडिया’ की संभावनाओं, सीमाओं और वास्तविकताओं को समझते हुए ही इसका उपयोग करें. ‘सोशल मीडिया’ के तीव्र आकर्षण में संवाद के अन्य विकल्पों – अखबार, पुस्तिका, पर्चा, गोष्ठी, सामूहिक चर्चा आदि – को नजरअंदाज कर देना, बड़ी भूल होगी. अंत में जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, वह है कि संवाद की विश्वसनीयता हमेशा संवाद में शामिल लोगों की आपसी वैयक्तिक निकटता और विश्वास पर टिकी होती है.

  • अशोक कुमार सिन्हा

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