फासीवादी विचारधारा वामपंथी सड़ांध पर पैदा होता है. ठीक उसी तरह जैसा पका हुआ फल अधिक समय तक छोड़ देने पर सड़ जाता है, उससे दुर्गंध आने लगती है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं. फासीवाद वही सड़ांध कीड़ा है, जो वामपंथ के अत्यधिक पक जाने और ससमय क्रांति नहीं करने पर समाज में पैदा होता है. फासीवाद, वामपंथी वितृष्णा के फलस्वरूप पैदा होता है जब वामपंथी नेता अपनी नपुंसकता के कारण समाज को आगे ले जाने से ढिठाईपूर्वक इंकार करता है, यानी क्रांति करने से इंकार कर देता है.
वर्ष 1917 वामपंथ और फासीवाद दोनों के लिए महत्वपूर्ण वर्ष है. जर्मनी और रुस दोनों ही क्रांति के लिए परिपक्व हो गया था, बल्कि यों कहा जाये जर्मनी में कम्युनिस्ट, रुस की तुलना में ज्यादा मजबूत था. क्रांति करने के लिए ज्यादा तैयार था, जिसके तुलना में रुस का कम्युनिस्ट संख्यात्मक तौर पर बेहद कमजोर था. लेनिन की महानता इसी बात में निहित है कि उन्होंने वक्त के सही नब्ज को समझा और उच्चकोटि के कम्युनिस्ट साहस का प्रर्दशन करते हुए आगे बढ़कर सोवियत संघ की स्थापना की और दुनिया में पहली बार समाजवादी राष्ट्र का निर्माण किया.
इसके उलट, जर्मनी के कम्युनिस्ट ज्यादा मजबूत होने के बावजूद, क्रांति की बेहतरीन परिस्थिति होने के वाबजूद वामपंथी नेतृत्व, कम्युनिस्ट साहस का प्रदर्शन नहीं कर पाये, जिसका परिणाम यह हुआ कि लोगों में निराशा फैल गई, वे वामपंथी नेतृत्व की नपुंसकता को देख वितृष्णा से भर गये और कम्युनिस्टों के ही खिलाफ हो गये. प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार ने इस वितृष्णा में घी डालने का काम किया, जो हिटलर जैसे फासिस्ट कीड़े को पनपने के लिए उर्वर जमीन दी.
फासीवादी कीड़े हिटलर की पुस्तक ‘मेन कैम्फ’ को पढ़ने के बाद आप यही कहेंगे कि यह उच्चकोटि का वामपंथी साहित्य है. वजह, हिटलर भी अपने दौर में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित था, पर कम्युनिस्ट नेतृत्व की नपुंसकता से उभरे वितृष्णा ने बजाय समाजवादी क्रांति के, जर्मनी में सड़ांध वामपंथ ने फासीवाद की जमीन तैयार कर दी. दूसरे शब्दों में, जर्मनी में पक चुकी समाजवादी क्रांति की जमीन ने उचित समय पर समाजवादी क्रांति न करने के कारण, वही जमीन फासीवाद जैसे कीड़ों को मुहैय्या करा दी, जिसने अपनी दुर्गंध से पूरी दुनिया को तबाह कर दिया और करोड़ों लोगों के क्रूर मौत का कारण बनी.
अगर हम वर्ष 1917 के रूसी इतिहास, खासकर लेनिन द्वारा लिए गये फैसलों यानि बोल्शेविक पार्टी के केन्द्रीय कमिटी के बहसों पर पर नजर डालते हैं तो यह साफ पता चलता है कि लेनिन के अलावा अन्य कोई भी केन्द्रीय नेता रुस में समाजवादी क्रांति के पक्ष में नहीं था, बल्कि दो नेता तो रुस में समाजवादी क्रांति के लेनिन के निर्णय से इतने ज्यादा असहमत (भयभीत) थे कि उसने बकायदा गद्दारी करते हुए क्रांति के गोपनीय तारीख का खुलासा तक मीडिया के माध्यम से दुश्मन के समक्ष कर दिया, ताकि वह क्रांति के असफलता की जिम्मेदारी से खुद को बचा ले जाये.
बोल्शेविक पार्टी के इन केन्द्रीय नेताओं का साफ मानना था कि रुस में क्रांति करने के बजाय जर्मनी में क्रांति होने तक हमें इंतजार करना चाहिए क्योंकि ‘रुस क्रांति के लिए तैयार नहीं है.’ जर्मनी में समाजवादी क्रांति हो जाने के बाद रुस में समाजवादी क्रांति करना आसान हो जायेगा. इस कुतर्क पर लेनिन का साफ कहना था कि ‘मुझे बताओ, किस तारीख को जर्मनी में समाजवादी क्रांति हो रही है ?’ इसका कोई भी जवाब इन नेताओं के पास नहीं था. तब लेनिन ने कहा था, ‘हम जर्मन समाजवादी क्रांति का अनंतकाल तक इंतजार नहीं कर सकते. इसलिए क्रांति की कमान हमें संभालनी होगी.’ बोल्शेविक पार्टी के केन्द्रीय कमिटी के अन्दर तनाव का यह आलम था कि एक बार तो लेनिन ने पार्टी से इस्तीफा तक देने की धमकी दे दी. इसके बाद जो हुआ वह तो इतिहास के पन्नों में समाहित है. इतिहास ने लेनिन को समाजवादी क्रांति का प्रणेता घोषित किया तो वहीं जर्मनी को फासीवाद का जनक.
यह भी सच था कि लेनिन भी रुस में समाजवादी क्रांति के भविष्य के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं थे, कारण था दुनियाभर के पूंजीवादी देशों का भयंकर दवाब. परन्तु, वे इस बात पर पूरी तरह दृढ़ थे कि ‘यदि रुस में समाजवादी व्यवस्था को हम दो महीने तक भी टिका सके तो विश्व को क्रांति और समाजवादी व्यवस्था को समझने के लिए एक दृष्टान्त पैदा हो जायेगा.’ इतिहास गवाह है, लेनिन सही साबित हुए और रुस में सोवियत समाजवादी व्यवस्था दो महीने नहीं, पूरे 39 साल चला जिसने विश्व में समाजवादी व्यवस्था के प्रति एक बेहतरीन समझ और लहर पैदा कर दिया.
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि 39 वर्षोंं के समाजवादी सोवियत संघ के अथक प्रयासों के बाद भी विश्व में आज समाजवादी क्रांति की जगह फासीवादी दुराग्रह ने ले ली है. भारत जैसे अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक राष्ट्र ने दीठ (सड़ांध) वामपंथी नेतृत्व के कारण समाजवाद की प्रथम सीढ़ी सशस्त्र नवजनवादी क्रांति को नकारते हुए आरएसएस जैसे फासीवादियों को देश में फलने-फूलने और तदांतर में सत्तारुढ़ होने का बेहतरीन अवसर प्रदान किया.
ठीक इसी घटना की छोटी परिणति नेपाल जैसे छोटे राजतंत्र वाले राष्ट्र में घटित हुई, जब राजनीतिक साहस के अभाव के कारण माओवादियों ने नेपाल में क्रांति को रोक दिया, वाबजूद इसके इसने राजतंत्र को खत्म कर दिया, वरना वह भी आज जर्मनी और भारत जैसे ही फासीवादी दंश को भोगता.
भारत में फासीवाद
प्रथम समाजवादी क्रांति के सौ साल बाद दुनिया में भारी परिवर्तन आये और भारत में आरएसएस के नेतृत्व में फासीवादी ताकतों ने अपेक्षाकृत उदार ताकतों को बदनाम करते हुए सत्ता हथिया लिया और देश को फासीवादी दलदल में धकेल दिया. इसके पीछे के कारणों को हमें समझना होगा.
इसे महज संयोग नहीं माना जा सकता है कि भारत में वर्ष 1925 में एक साथ वामपंथ और फासीवाद दोनों की ही नींव रखी गई थी. यही एक तथ्य यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सोवियत संघ और जर्मनी का फासीवाद दुनिया भर में एक साथ अपने पैर फैला रहे थे और दोनों ही प्रथम विश्व युद्ध की मारक दौर से निकला था. एक ने समाजवाद में अपना भविष्य ढूंढा तो दूसरे ने अतीत में. जर्मन फासीवाद ने द्वितीय विश्वयुद्ध को जन्म दिया तो समाजवादी सोवियत संघ ने फासीवादी राजसत्ता को जमीनदोंंज कर दुनिया के दर्जनों देशों में समाजवादी व्यवस्था स्थापित किया. परन्तु, जैसा कि हम जानते हैं राजसत्ता खत्म होने से विचारधारा खत्म नहीं होती.
द्वितीय विश्वयुद्ध में फासीवादी ताकतों की बुरी पराजय ने फासीवादियों के हौसले पस्त कर दिये. भारत में भी फासीवादी ताकतों के अतीतजीवी हौसले पस्त हो गये, परन्तु, हिटलर के अनुयायी फासीवादी ताकतें संशोधनवादी सोवियत बामपंथियों के शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के ख्रुश्चेवी तरीकों के कारण सम्पूर्ण विनाश से न केवल बच ही गए बल्कि खुद को संगठित करने के लंबे कार्यभार को बखूबी निभाया. यही चीज भारत में भी हुआ.
आरएसएस जैसे हिटलरवादी फासीवादी ताकतों ने गांधी की हत्या से उपजी परिस्थितियों के बाद माफीनामा और दण्डवत होकर खुद को पुनर्जीवित किया और देश के क्रांतिकारियों, उदारवादियों को गाली देते हुए आज देश की सत्ता पर काबिज होकर देश को फासीवादी चंगुल में जकड़ लिया है. यह जानना बेहद दिलचस्प है कि ये फासिस्ट ताकत आरएसएस ने किस तरह झूठ, छल, कपट का सहारा लिया. मधु लिमिये इसका शानदार विवेचना किये हैंं.
इसके उलट भारत में वामपंथ लकीर का फकीर बन कर रह गया. पेट्टीबर्जुआ सोच ने वाम आंदोलन को हजारों टुकड़ों में बिखेर दिया. चिंतन प्रक्रिया इतनी ज्यादा रुढ़ हो गई मानो.उसे लोहे की सलाखों में बंद कर दिया गया हो. भारत में हम वामपंथी रुढ़ता की तुलना हम लेनिन और बोल्शेविक पार्टी से करें तो हम न केवल आश्चर्य में ही पड़ जायेंगे वरन् हम लेनिन को पागल घोषित कर देंगे.
उदाहरण के तौर पर, अप्रैल में रुस आने के बाद लेनिन ने तत्कालीन संसद में भाग लेने का फैसला लिया, कुछ समय बाद वे केवल बाहर से समर्थन देने की बात किये और फिर कुछ समय बाद ही उन्होंने द्यूमा को उखाड़ फेकने का आह्वान किया. अगर भारतीय वामपंथी आंदोलन में कोई भी पार्टी इतने कम अंतराल (महज छः माह के अन्दर) इस तरह.नीतिगत फैसले लेता तो न केवल उसे पागल घोषित कर दिया जाता वरन्, उसी पार्टी के द्वारा उसकी हत्या भी कर दी जाती, जो वगैर बदलती परिस्थितियों का विश्लेषण किये एक रुढ़ रास्ता अपना लेता है. यह प्रक्रिया तब तक चलती है जबतक कि वह पूर्णतः जनता द्वारा नकारे नहीं चले जाते. भारत में सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (एमएल) लिबरेशन की यही हालत है. स्वीकार्यता से अस्वीकार्यता के इस अंतराल में तब तक हजारों लोग और कार्यकर्ता सत्ता द्वारा क्रूर शिकार कर लिए जाते हैं.
आप कल्पना कर सकते हैं कि 1952 के संसदीय संस्कार को अंगीकार करने से लेकर आज के हथियारबंद आंदोलन के 68 साल के अंतराल में कितने लाख क्रांति के योद्धाओं ने अपनी शहादतें दी है, जबकि इसी काम को करने में लेनिन को महज 6 माह लगे.
भारत में फासीवाद का भविष्य
सड़ांध वामपंथ ने जहां फासीवाद का मार्ग प्रशस्त किया है, वहीं इसका विकल्प भी वामपंथ ही प्रस्तुत करता है, ठीक उसी तरह जैसे जर्मनी के फासीवादी ताकतों के साथ हुआ है. मसलन, जर्मनी के सड़ांध वामपंथ की नाकामी या कायरता ने फासीवाद को जहां उर्वर जमीन दी, वहीं, लेनिन के सोवियत संघ ने स्टालिन के नेतृत्व में इस फासीवाद को दफन कर दिया.
इस बुनियादी तथ्य को ध्यान में रखते हुए यह समझ लेना चाहिए कि फासीवाद हमेशा कमजोरों और निहत्थों को निशाना बनाता है, चाहे वह किसी भी रुप में हो. फासीवाद अपने कमजोर और निहत्थे शिकार के साथ इतिहास का सबसे क्रूरतम हिंसा का रुप अपनाता है ताकि बांकि भयभीत हो जाये. यही चीज उसने जर्मनी में किया और इसके साथ साथ सोवियत संघ समेत उन छोटे राष्ट्रों के साथ किया, जिस पर उसने हमला किया था.
फासीवाद कमजोर और निहत्थों का शिकार करता है, जब अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में एक नाजी के खिलाफ मुकदमा चल रहा था तब उसने साफ बताया कि जब वह यहूदियों को पीटते थे, या उसके बच्चों को उसके हाथ से छीनकर मार डालते थे, तब भी ये यहूदी विरोध नहीं करते थे, जिससे मुझे यह विश्वास हो गया कि धरती ऐसे कायरों और नपुंसकों के लिए नहीं है. इतनी नपुंसकता !!
कहा जाता है कि हिटलर ने यहूदियों को निशाना बनाते हुए उन जर्मनों पर भी हमला बोल दिया था और उसे गद्दार घोषित करते हुए उसे भी मार डाला था, जिसने उसका विरोध किया था. चूंकि सड़ांध बड़बोले वामपंथ के पास सिवा गाल बजाने के और कोई तैयारी नहीं था, यही कारण है कि वह हिटलर के फासीवादी गुंडों के सामने निहत्था खड़ा हो गया और अपनी नियति के साथ साथ दुनिया की करोड़ों लोगों के नियति को भी मौत के मूंह में झोंक दिया. और यह क्रूर मौतों का तांडव तब तक चलता रहा जब तक की लेनिन की बनाई सोवियत संघ की लाल सेना ने स्टालिन के नेतृत्व में सशस्त्र हमला कर हिटलर को मौत के घाट उतरने पर विवश नहीं कर दिया.
भारत, हजारों सालों से गुलाम नश्ल और हजारों भाषाओं, संस्कृतियों का ढ़ीला ढ़ाला समूह है, जब तक की अंग्रेजों ने आकर इसे एकसूत्र में नहीं पिरोया. यह भी एक सत्य है कि भारत में कभी भी विद्रोह सफल नहीं हुआ है, यहां तक की अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किया गया 1857 का भी विद्रोह. वामपंथियों को 1857 के भारतीय विद्रोह पर सर्वहारा के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित लेखों को जरूर पढ़ना चाहिए.
भारत में 1857 से लेकर 1947 और उसके बाद से अबतक का वस्तुगत विश्लेषण जरूर करना चाहिए. भारत में आरएसएस जैसे फासिस्ट ताकतों के उत्थान का विस्तृत अध्ययन करने के बाद एक खास चीज जो स्पष्ट समझ में आती है वह है वह हमेशा सशस्त्र ताकतों से घबराती है. सशस्त्र विद्रोह के अतिरिक्त वह अन्य किसी भी विरोध प्रदर्शन या मजमें से नहीं घबराती है और उसका दमन के तौऋ तरीकों से भलीभांति परिचित है.
हिटलर की मूर्खता कि उसने दूसरे राष्ट्रों की कुचलने के बजाय सारे साम्राज्यवादियों के बहकावे में आकर उसने सीधा सोवियत संघ पर चढ़ाई कर दी और सोवियत संघ ने उसे मौत के उपहार से नवाज दिया. परन्तु, भारतीय फासिस्ट हिटलर की इस मूर्खता को नहीं दोहरायेगा. वह इससे सबक ले चुका है, यही कारण है कि वह आज भी भारत के सशस्त्र संघर्ष कर रही जनता (सीपीआई माओवादी) के खिलाफ सीधी लड़ाई से परहेज कर रहा है.
वह खोजखोजकर उन लोगों को निशाना बना रहा है जिन्हें इस मौजूदा फासिस्ट व्यवस्था में भरोसा है, प्रगतिशील होने की तमगा है परन्तु सशस्त्र आंदोलन का समर्थन नहीं करता है. हलांकि कुछ ऐसे लोगों को भी निशाना बनाया गया है जो सशस्त्र आंदोलन का समर्थन करते हैं, पर ऐसों की तादाद एक तो बेहद कम है दूसरे वे बेहद लोकप्रिय हैं.
भारत में आम जनता की सशस्त्र क्रांतिकारी ताकतों (सीपीआई माओवादी) की मौजूदगी एक ऐसी सीमा है, जिसके पार जाना यह फासिस्ट नहीं चाहता और ठीक उसी तरह भारत की जनता के लिए भी इस फासिस्ट से बचने की जगह यह सशस्त्र दुर्ग ही है, जिसके छत के नीचे रहकर वह चैन की सांस ले सकता है. हलांकि फासिस्ट ताकतों का यह परहेज ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाला है, देर सवेर भयानक युद्ध यानी गृहयुद्ध की रुपरेखा तैयार होगी, तब हमें तय करना होगा कि किस ओर ? फिलहाल तो यही कहा जायेगा कि ‘कामरेड आपकी पॉलटिक्स क्या है ?’
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