Home गेस्ट ब्लॉग विश्वसनीय चीन बनाम अविश्वसनीय अमेरिका

विश्वसनीय चीन बनाम अविश्वसनीय अमेरिका

6 second read
0
0
525

विश्वसनीय चीन बनाम अविश्वसनीय अमेरिका

Ram Chandra Shuklaराम चन्द्र शुक्ल

अगर चीन विश्वसनीय नहीं है तो अमेरिका तो कदापि भारत के लिए विश्वसनीय नही है. भारत के साथ अमेरिकी विश्वासघात का विस्तृत इतिहास रहा है.

1965 व 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में अमेरिकी टैंकों व हथियारों ने कितने भारतीय सैनिकों की जान ली है- इसकी गिनती नहीं है. अमेरिका ने भारतीय राष्ट्रपति सहित भारत के कितने गण्यमान नागरिकों के कपड़े उतरवाकर उनका व्यक्तिगत अपमान किया है-इसकी भी कोई गिनती नहीं है.

जापान, उत्तर कोरिया, वियतनाम, ईराक, अफगानिस्तान व सीरिया में युद्ध के बहाने अमेरिका ने लाखों निर्दोष नागरिकों की सामूहिक हत्याएं कराईं हैं. इसके लिए अमेरिकी प्रशासन पर युद्ध अपराध के मुकदमे चलने चाहिए.

अमेरिका ने सीआईए के माध्यम से सोवियत संघ सहित दुनिया के कई देशों में चल रही समाजवादी शासन व्यवस्था को तहस-नहस करवाकर इन देशों को कंगाल बनवा दिया. इसने क्यूबाई क्रांति के नायक रहे चे ग्वेरा की हत्या भी सीआइए के माध्यम से कराई.

इस सबके बावजूद अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकट में घिरने पर समाजवादी अर्थव्यवस्था वाले चीन ने इसकी मदद की है. वास्तव में वर्तमान चीनी शासक भले ही अमेरिका की तरह दूसरे देशों में दखल देकर जबर्दस्ती युद्ध न कर रहे हों, पर चीनी बाजारवाद ने भारत समेत दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में जकड़ लिया है.

चीनी विस्तारवाद का पहला शिकार तिब्बत बना, जो कि चीन के लिए सामरिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण था. तिब्बत के जरिए चीन भारत सहित उसके पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बंगला देश व अन्य मध्य एशियाई देशों पर नियंत्रण हासिल करने की स्थिति में आ गया.

तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा व उनके लाखों समर्थकों को हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण देना तथा भारत के उत्तरी पूर्वी क्षेत्र में चीन से लगी सीमा का विवाद 1962 में भारत चीन के मध्य युद्ध का प्रत्यक्ष कारण बना पर असली कारण तो वे यूरोपीय व अमेरिकी शासक थे, जिनके आर्थिक हित भारत व चीन के मध्य तनाव बने रहने व युद्ध होने में ही सुरक्षित थे.

यद्यपि भारत सहित दुनिया के कई देशों के उच्च व उच्च मध्यम वर्ग के लोगों के लिए अमेरिका स्वर्ग के समान है. वे उसकी समृद्धि तथा नागरिक सुविधाओं का गुणगान करते नहीं थकते लेकिन गुलाम मानसिकता वाले इन लोगों की समझ में यह नहीं आता कि अमेरिकी समृद्धि दुनिया के सैकड़ों देशों को हथियार बेचकर उनके बीच युद्ध करा कर तथा जीते हुए देशों के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने से ही आई है.

भारत जैसे देशों से जनता के धन से चलने वाले उच्च शिक्षण संस्थानों मे सस्ती दरों पर शिक्षा हासिल कर अमेरिका की सेवा करने वाले चाहे जो तर्क देकर खुद को सही सिद्ध करें, पर ऐसे लोग अपने भीतर झांक कर देखेंगे तो वहां उन्हें स्वार्थ का समंदर लहराता नजर आएगा.

अमेरिकी शोषण व युद्धों का इतिहास बहुत पुराना है. सबसे पहले यूरोपीय गोरे नागरिकों ने अमेरिका के मूल निवासियों को बर्बरतापूर्वक मारकर तथा पराजित कर अमेरिकी व कनाडाई तथा आस्ट्रेलियाई भूमि पर कब्जा किया और इन देशों के मूल निवासियों को अपना गुलाम बना लिया.

आज भी अमेरिकी जन विरोधी व पूंजीवादी नीतियों के कारण नर्क झेल रहे दुनिया के करोड़ों मेहनतकशों व किसानों के लिए अमेरिका किसी यमराज से कम नहीं है.

यह समझना होगा कि चीन से लड़ने का दम भारतीय सेना में नही है. 1962 में भारत की सेना चीनी सेना से बुरी तरह से हार चुकी है. डोकलाम और लद्दाख दोनों ही विवादित स्थानों पर चीनी सैनिक जहांं तक आगे बढ़े थे, वहां वे भवन निर्माण कर स्थाई रूप से रहने लगे हैं. 1962 के युद्ध के पहले भी चीनी सेना भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर चुकी है. भारत की वर्तमान सरकार पर हिंदी फिल्म के एक गीत की निम्न पंक्तियांं फिट बैठती हैं :

‘तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई, अरे मार डाला, दुहाई दुहाई.’

एक तरफ चीनी राष्ट्रपति को अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे झूला झुलाया जाता है. चीन से सरदार पटेल की मूर्ति बनवाई जाती है. मेट्रो ट्रेनों के इंजन व बोगियां खरीदी जाती हैं. मोबाइल वालेट के माध्यम से कैशलेस ट्रांजैक्शन की सुविधा भारतीय स्टेट बैंक को न देकर एक चीनी कंपनी को दी जाती है. चीनी इलेक्ट्रॉनिक सामानों मोबाइल आदि से भारतीय बाजार पटे पड़े हैं. एक चीनी मोबाइल कंपनी भारतीय टीम के क्रिकेट मैचों की प्रायोजक बनती है, आखिर इस सब के क्या मतलब हैं ?

इतना ही नहीं, पूर्वी लद्दाख के गलवान घाटी में भारत-चीन सेना के बीच हिंसक तनाव की बीच बीजिंग के एशियन इंफ्रास्ट्रकचर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) ने भारत के लिए 75 करोड़ डॉलर (करीब 5,714 करोड़ रुपये) का लोन मंजूरी किया है, ताकि कोरोना वायरस के खिलाफ भारत की लड़ाई में करीब और कमजोर तबके को सहायता दी जा सके. जबकि अमेरिका बीच कोरोना भारत को धमकाकर दवाई का भारी खुराक उठाकर जबरदस्ती ले गया.

मेरे विचार से चीनी व पाकिस्तानी सेना से भारतीय सेना की लड़ाई होनी भी नहीं चाहिए. दोनों हमारे पड़ोसी देश हैं. पुरखे कह गये हैं कि अपने पड़ोसियों से नुकसान होने पर भी लड़ाई नहीं करनी चाहिए.

मेरा तो मत है कि यूरोपीय संघ की तरह भारत, चीन, नेपाल, भूटान, बंगला देश, वर्मा, मालदीव, पाकिस्तान व अफगानिस्तान को मिलाकर एक संघ कायम करना चाहिए. इन देशों में प्रयोग के लिए यूरो की तरह एक साझा मुद्रा होनी चाहिए, जो इन सभी देशों में मान्य हो.

इन देशों के मध्य खुले व्यापार की व्यवस्था होनी चाहिए तथा इन देशों के नागरिकों को अपने सामान्य पहचान पत्र के साथ एक से दूसरे देश की यात्रा की सुविधा होनी चाहिए. इसी में इन सभी देशों तथा वहां की आम जनता की भलाई है. अंध राष्ट्रवाद तथा अंध विश्वासों व अंधभक्ति का नाश हो.

Read Also –

 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…