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युद्ध विराम

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शहर के बाइपास के मुहाने तक
बहुत सन्नाटा फैला है
दबे पांंव दाखिल होना यहांं
एकतरफ़ा युद्ध विराम की घोषणा हुए
सालों बीते

देश
जो सिकुड़ता हुआ
मेरे घर तक सिमट गया था
अब मेरी बिस्तर के
उस गर्म हिस्से तक सिमट गया है
जहाँ पड़ी हुई है सालों से
मेरी ठंढी लाश

रंगरेज़ बेकार बैठे हैं
कफ़न के सिवा कुछ बिकता नहीं है
आत्मसमर्पण का प्रतीक
आत्मा का रंग लिए
समेट चुका है
सारे रंगों को ख़ुद में

दबे पांंव आना यहांं
कोई सुन लेगा
दरक जाएगा बर्फ़ का झीना फ़र्श

भागते हुए आदमी की अंतिम शरणस्थली
हरी भरी हो रही है
खाद की अधिकता से
पसर रही है हरियाली चारों ओर
बीच बीच में अपना मटमैला मुंंह खोलकर
शांत कर लेती है
पृथ्वी अपनी क्षुधा

व्यतिक्रम के नियम बनने की
इस प्रक्रिया के साथ
जो जितनी आसानी से ढाल लेता है ख़ुद को
उसके महफ़ूज़ रहने की संभावनाएँ
उतनी बढ़ जाती है

लेकिन,
क्या करूंं
शोर मचाना मेरी आदत है
और मजबूरी भी

ख़ुद को सुनना पड़ता है मुझे
ख़ुद को देखना पड़ता है मुझे
ख़ुद को सूंघना पड़ता है मुझे
हर सुबह उठकर ख़ुद को
ज़ोर से चिकोटी काट कर
देखना होता है
दर्द को रात और सपनों ने
निर्वासित तो नहीं किया

मैं जिस आदमी की तलाश में हूंं
वह बिस्तर की जेब में मुड़ा तुड़ा
पांंच सौ हज़ार का नोट नहीं है
वह, जंगल की छाती पर उगा
भादो का कुकुरमुत्ता नहीं है
नितांत एकांत से बुनी हुई
रस्सी से लटकती देह नहीं है

वह आदमी
कोलगेट जेल से चमकते दांतों को निपोर कर
आंंखों को नहीं चुंधियाता
और, न ही, अपनी चमड़ी के रंग को
सूरज के विकिरण से बचाने के लिए
सबसे अच्छे लोशन की तलाश में रहता है

मैं नहीं जानता
शहर के किस हिस्से में
ख़त्म होगी मेरी तलाश
फ़िलहाल, ज़मीन से कान सटाकर
सुनने की फ़िराक़ में हूंं
किसी स्वजातीय की आहट

मुझे मालूम है
चेतना एक कोशीकीय जीव नहीं है
विस्तार
संकुचन की नियति है
बीज और पेड़ की तरह.

  • सुब्रतो चटर्जी

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