भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि पिछले करीब 3000 वर्षों से भारतीय समाज की बहुसंख्यक आबादी निर्मम जातीय शोषण का शिकार रही है. भारतीय वर्ण व्यवस्था और श्रम विभाजन के आदिम स्वरूप के रूप में जिस जातीय संरचना का निर्माण हुआ, उसने साधनविहीन श्रमिक आबादी को भीषण शारीरिक, मानसिक और धार्मिक शोषण का दंश भोगने के लिए विवश किया. द्विज जातियों ने जिस ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना का निर्माण किया, उसमें सबसे निचले तल पर अवस्थित शुद्रों, जो वास्तव में विशाल श्रमिक आबादी का निर्माण करते थे, को सभ्य नागरिक जीवन के तमाम अधिकारों से वंचित रखा.
पूर्व वैदिक काल में भारतीय समाज में श्रम विभाजन के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं, लेकिन वह बहुत स्पष्ट रूप धारण नहीं कर पाता है. उत्तर वैदिक काल में श्रम विभाजन का प्राक् रूप – वर्ण व्यवस्था – एक निश्चित मत के साथ भारतीय समाज में आ खड़ा होता है. लेकिन इस काल में भी वर्णों के बीच सामाजिक गतिशीलता बनी रहती है, अर्थात एक वर्ण से दूसरे वर्ण में प्रवेश की क्षीण संभावना मौजूद रहती है. लेकिन स्मृतियों का काल आते-आते वर्णों के बीच गतिशीलता की सारी संभावनाओं को समाप्त कर दिया जाता है.
ब्राह्मणवादी सामाजिक धार्मिक मान्यताओं को छठी सदी ईसा पूर्व जब चुनौती मिलती है, तब वह अपने सामाजिक विधानों को कठोर करता जाता है. बौद्ध धर्म के अवसान के अवसर पर ब्राह्मणवाद जहां अपने धार्मिक कर्मकांडों को शिथिल और सहज बनाता है, वहीं वह अपने सामाजिक विधानों को अमानवीयता की सीमा तक कठोर बना देता है. यह वही दौर है जब सामान्य जनता के लिए भगवत् भक्ति का मार्ग खुलता है और विशाल श्रमिक आबादी को अनुशासित रखने के लिए ‘मनुस्मृति’ का प्रादुर्भाव होता है.
आदिम समाज में वर्ण व्यवस्था सिर्फ भारतीय समाज की विशेषता नहीं रही है. प्राचीन ईरान की सभ्यता में वर्ण व्यवस्था के लक्षण मौजूद हैं. यूनान में भी प्राचीन काल में श्रम विभाजन आधारित वर्ण व्यवस्था के प्रमाण मौजूद हैं. यूनानी दार्शनिक प्लेटो की रचना ‘रिपब्लिक’ में इसकी विस्तृत चर्चा है. यूनानी वर्ण व्यवस्था धार्मिक मान्यताओं का हिस्सा नहीं बनती है, वह सिर्फ श्रम विभाजन के आदिम स्वरूप के रूप में यूनानी समाज में मौजूद होती है.
फलत: सभ्यता के विकास के साथ यूनानी वर्ण व्यवस्था समाप्त हो जाती है. इसके विपरीत, भारतीय इतिहास में अपने उद्गम के समय से ही वर्ण व्यवस्था दैवी उद्भव का आवरण लिए अवतरित होती है. स्मृतियों के काल में वर्ण व्यवस्था को द्विज जातियों के पक्ष में शाश्वत विधान बना देने के प्रयास में सामाजिक विधानों को धार्मिक मान्यताओं के साथ संपृक्त कर दिया जाता है. इसके फलस्वरूप भारतीय वर्ण व्यवस्था अपनी जातिवादी चारित्रिक विशेषताओं के साथ आधुनिक समाज तक में अपनी मौजूदगी को बनाए रखने में सफल हुई है.
भारतीय इतिहास में ब्राह्मणवादी सत्ता को विदेशी आक्रमणों की लगातार चुनौती मिलती रही है लेकिन इस्लाम मतावलंबी आक्रमणकारियों के पहले के जितने भी आक्रमणकारी थे, वे सब सभ्यता के निचले पायदान पर अवस्थित थे. भारतीय ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने इस परिस्थिति का फायदा उठाया और उसने इस्लाम के पहले के जितने भी आक्रमणकारी थे, उनको अपने में समाहित कर लेने के कर्मकांड को बहुत चतुराई से अंजाम दिया. भारत में ब्राह्मणवाद अपनी श्रमिक जनता के प्रति जितना अनुदार था, वह तलवार के कौशल से युक्त आक्रमणकारियों के लिए उदारता का उतना ही ढोंग रचता था. भारतीय इतिहास के पाठकों को हमेशा याद रखना चाहिए कि भारत में ब्राह्मणवाद सत्ता के पक्ष पोषण के लिए वैचारिक आधार भूमि तैयार करता है इसलिए तलवार के धनी नए सत्ताधीशों को अपनी पातों में शामिल करने में ब्राह्मणवादी परंपराओं को कोई परेशानी नहीं होती थी.
भारत में अरब, तुर्की और मध्य एशिया से आए हुए इस्लाम मतावलंबी आक्रमणकारी पहले ऐसे समूह थे जो सभ्यता के उच्च मानदंडों को प्राप्त थे इसलिए उनको ब्राह्मणवादी संस्कारों में बांधना संभव नहीं हो सका. हालांकि भारत की तत्कालीन सत्ता ने इसके लिए अपने भर प्रयास किया. सत्ताधारी राजपूत घरानों के मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध इस दिशा में एक प्रयास था. भारत में जो इस्लाम मतावलंबियों की सत्ता स्थापित हुई, उसने भी दैनंदिन के सामाजिक प्रतिरोध से बचने के लिए और अपनी सत्ता को स्थायित्व देने के लिए भारतीय ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देने से अपने को दूर रखा इसलिए सल्तनत और मुगल काल में भी भारत की ब्रह्मणवादी वर्ण व्यवस्था अक्षुण्ण बनी रही.
जब 18वीं शताब्दी में अंग्रेज भारतीय राजनीति में दखल देना शुरू करते हैं, तब वे द्विज जातियों के साथ तालमेल बनाए रखने की नीति अपनाते हैं. 19वीं शताब्दी में जब अंग्रेजों की सत्ता मजबूत होने लगती है, तब वे भारत में अपने सामाजिक मूल्यों को आरोपित करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं. उनका ध्यान बाल विवाह, विधवा विवाह, सती प्रथा जैसी समस्याओं की ओर जाता है. वे भारतीय समाज में सामाजिक सुधारों का प्रयास करते हैं लेकिन 1857 के बाद, जब उन्हें भारत के किसान परिवारों से आए सिपाहियों की चुनौती मिलती है, भारत में सामाजिक सुधारों के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं रह जाती है और वे अपना पूरा ध्यान अपनी सत्ता को बनाए रखने और भारत के आर्थिक दोहन पर केंद्रित कर देते हैं. सच्चाई तो यह है कि इस प्रयास में वे भारत में मौजूद रूढ़िवादिता और सामाजिक तनाव को बढ़ावा देने का काम करते हैं. फलत: भारतीय ब्राह्मणवाद अंग्रेजों के शासन काल में भी अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल होता है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में जिस पूंजीवादी व्यवस्था का निर्माण हुआ उसके फलस्वरूप ब्राह्मणवादी सरंचना थोड़ी कमजोर हुई. पूंजी को अपने विकास के लिए सस्ते और सामंती जड़ता से मुक्त श्रमिक चाहिए थे इसलिए उसने संवैधानिक और राजनीतिक प्रयासों के द्वारा जातीयों की जड़ता को समाप्त करने के लिए कुछ कदम उठाए. सरकारी नौकरियों में आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था उनमें से एक कदम है.
जमींदारी व्यवस्था की समाप्ति और जोत के रकबा की अधिकतम सीमा के निर्धारण के बाद भारतीय कृषि में सामाजिक रुप से पिछड़ी जातियों का एक छोटा हिस्सा खेती-बाड़ी में अपनी भागीदारी के फलस्वरूप सामाजिक सोपान में आगे बढ़ने को प्रयासरत हुआ. 20वीं शताब्दी के सातवें दशक में हुई ‘हरित क्रांति’ ने इस प्रक्रिया को और मजबूती प्रदान की. सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था और हरित क्रांति में कृषक जातियों की भागीदारी ने दलितों और सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों के एक हिस्सा को सामाजिक सोपान में आगे बढ़ने का मौका दिया.
इन जातियों के बीच से उभरे संपन्न समूहों ने अपनी नव अर्जित संपन्नता, ऊर्जा और सफलता के बल पर भारतीय सत्ता में अपनी भागीदारी का दावा पेश किया. 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक के आते-आते भारतीय राजनीति और सत्ता में उनकी धमक सुनाई पड़ने लगी लेकिन इस प्रक्रिया में जातीय संरचना में वर्ग विभाजन की चारित्रिक विशेषता के लक्षण भी दिखाई पड़ने लगे. वर्तमान में चाहे वह सामान्य जातियां हों, सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियां हों अथवा दलित जातियां हों, सबके बीच वर्ग विभाजन आकार ले चुका है. आदिवासियों के बीच भी वर्ग विभाजन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.
भारत की पूंजीवादी व्यवस्था इस सामाजिक सच्चाई से परिचित है. एक तरफ वह ग्रामीण इलाकों में सामाजिक सोपान के सबसे निचले स्तर पर मौजूद खेत मजदूरों और सीमांत किसानों को सामंती अवशेषों की जकड़ से ‘मुक्त’ कर देना चाहती है, वहीं वह दूसरी ओर इस बात का भी ख्याल रखती है कि सामाजिक गतिशीलता उस उर्जा को प्राप्त न कर जाए जिसके आवेग में स्वयं उसका अस्तित्व भी खतरे में आ जाए. यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि पूंजीवाद सिर्फ उन सामंती अवशेषों को समाप्त करना चाहता है जो उसके विकास में बाधा उत्पन्न करता हैं. वह अपनी सत्ता के हित में उन सामंती अवशेषों और सामाजिक मूल्यों को जिंदा रखने की कोशिश करती है, जो समाज को अपेक्षित मात्रा में रूढ़िबद्ध और जड़ रखने में मदद पहुंचाते हैं.
भारत में जातीय सामाजिक विभाजन के बीच उभर आए वर्गीय विभाजन ने ब्राह्मणवाद को अपने को बचाए रखने का एक और मौका दिया है. पूंजीवादी विकल्प के रूप में समाजवाद की अवधारणा के मजबूत न होने की दशा में पिछड़ी और दलित जातियों के जातीय आंदोलन सत्ता में अपनी भागीदारी के प्रश्न को ही अपना मूल लक्ष्य समझ बैठे हैं. इसका एक सीधा-सा कारण तो यह है कि ये तमाम जातीय आंदोलन उन जातियों के संपन्न वर्गों के द्वारा संचालित होते हैं. ऐसे में इन जातीय आंदोलनों में संपूर्ण मानव जाति की समानता का लक्ष्य विलोपित हो जाता है. वंचित सामाजिक समूहों का प्रभुत्वशाली वर्ग अपनी नव अर्जित विशेषाधिकारों के प्रति न केवल संवेदनशील होता है और उसे बचाए रखने को प्रेरित भी होता है.
ऐसे में स्वाभाविक है कि वह सत्ता में अपनी भागीदारी के साथ-साथ उन सामाजिक लक्षणों से युक्त हो जाए, जिसमें पारंपरिक भारतीय समाज में कोई व्यक्ति अथवा समूह आदर्श स्थान प्राप्त कर लेता है. वैकल्पिक सामाजिक मूल्यों और चेतना के अभाव में सत्ता के प्रति दलितों और पिछड़ों के बीच के संपन्न वर्ग का मोह और वैभव उनको ब्राह्मणवाद के आश्रय में ले जाता है. ब्रह्मणवादी परंपराओं और कर्मकांडों से अपने को युक्त कर वह वर्ग अपने को कृतार्थ समझता है. दलित और पिछड़ों की बस्ती में विभिन्न पूजाओं के वक्त बड़े पैमाने पर स्थापित हो रही मूर्तियां इस बात का प्रमाण हैं.
आदिवासियों के बीच भी यह प्रवृत्ति, छोटे स्तर पर ही सही, पाई जा रही है. मतलब यह कि ब्राह्मणवाद नई परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल कर अपना अस्तित्व बचाए रखने की कोशिश कर रहा है. यहां एक बार फिर से यह रेखांकित कर देने की जरूरत है कि ब्राह्मणवाद अंततः सत्ता की वैचारिक आधार भूमि को तैयार करता है और उसी के द्वारा पोषित होता है. अगर पिछड़ी जातियों और दलित जातियों के बीच सत्ता के दावेदार उभर आते हैं, तो उनका पुरोहित बनने में ब्राह्मणवादी कर्मकांडियों को कोई परेशानी नहीं होनी है.
कुल मिलाकर वर्तमान में भारतीय जाति व्यवस्था का सत्य यह है कि ब्राह्मणवाद अपने को नई परिस्थितियों के अनुसार ढाल रहा है और यह भी कि सभी जातियों के बीच वर्ग विभाजन हो चुका है. साथ में यह भी एक सत्य है कि जातिवाद सांप्रदायिकता के साथ-साथ उन दो पैरों का निर्माण करता है, जिनके सहारे भारत की पूंजीवादी व्यवस्था चलती है. भारतीय राजनीति में जातिवाद और सांप्रदायिकता के तत्वों के रहते व्यवस्था परिवर्तन की कोई लड़ाई अपने मुकम्मल लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकती है. यह भी एक सत्य है कि अगर जातिवाद को समाप्त होना है, तो उसके लिए जातियों का संहार करना होगा. जातियां अपनी चारित्रिक विशेषताओं के साथ समाज में बनी रहें और जातिवाद भी समाप्त हो जाए, ऐसा नहीं हो सकता है.
- अशोक कुमार सिन्हा
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