वक़्त की ऐनक पर
आदमी
एक धब्बे सा उभरता है
और, धुल जाता है
वक़्त की बारिश में
इस मुल्क में लोग
नाव की पेंदे के छेद में
गोंद चिपकाते हुए
पार कर जाते हैं
वैतरणी
भूखे नंगे
मुग्ध हैं राम मंदिर की
भव्यता से लेकर
राफ़ेल की उड़ान पर
अट्टालिकाओं के प्रांगण में
मोर नाच
नौटंकी के लौंडा नाच से
अलग कहांं है
यही सब उल जूलूल सोचते हुए
बीत जाते हैं
मुंंह छुपाए दिन
व्यर्थ जीवन को
ज़्यादा सताता है
मृत्यु का भय
यही भय साबित करता है कि
हम उतने भी हिजड़े नहीं हैं
जितनी समझती है दुनिया हमें
हम आज भी
हिक़ारत और ज़लालत भरी
इस जिंदगी को बचाने की
जंग में हैं
हम रणछोड़ दास नहीं हैं
जब हम मरेंगे
तो, हमारे मुंंह पर पट्टियांं तो होंगी
लेकिन,
पीठ या छाती पर
गोली से बनी सुराख़ नहीं
अक्षत काया का यह महाकाव्य
अनंत की यात्रा का सहभागी है
जो व्यतिक्रम हैं
उनकी कहानियांं
अब गांंव की चौपालों पर
घिसी हुई बरसात की शाम
कोई पुराने खंडहर से गुजरने वाली
हवाओं सा नहीं सुनाता
माना कि
बहुत अनपढ़ी कहानियांं गुंंथी हैं
इन दरके हुए दीवारों में
लेकिन,
अब सफहे पलटते भी हैं तो
अपनी तस्वीर का साम्य ढूंंढने के लिए
कोल्हू का खूंंटा
अजर अमर हो गया है
तेल पीते हुए
बाढ़ आने तक.
- सुब्रतो चटर्जी
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