सुब्रतो चटर्जी
आज जब इस सवाल पर लिखने बैठा हूं, पुल के नीचे से बहुत सारा पानी बह चुका है. दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार देने वाली भारतीय रेल दस हजार स्टेशन और पांच सौ सवारी गाड़ियों को बंद करने का ऐलान कर चुका है. जस्टिस अरुण मिश्र ने दिल्ली में रेलवे ट्रैक के किनारे बसे 48 हजार झुग्गियों को खाली करने के लिए तीन महीने का समय दिया है.
संसद का प्रश्न काल खत्म कर दिया गया है. इस दौरान, बेरोजगारी से आत्महत्याओं की घटना में बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. चीन हमारी जमीन को हड़पता जा रहा है, और हम उसके पबजी ऐप को तब तक बैन कर चुके हैं जब तक मुकेश अंबानी उसे खरीद न लें. इसी दौरान विश्व के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री अंबानी खिलौनों और देसी कुत्तों के अभिनव ब्रांड एंबेसडर के रुप में आविर्भाव ले चुके हैं.
मोदी सरकार द्वारा जीडीपी नापने के फर्जी तरीके के वावजूद वह 24 प्रतिशत तक गिरा है, जबकि वास्तव में यह 50 प्रतिशत से ज्यादा गिर गया है. इन हालातों के मद्देनजर मैंने जमीन की उपरी सतह के ठीक नीचे गर्म लावे की आहट को सुना, जिसे मेरे कुछ मित्रों को नहीं सुनाई देता. हजारों सालों की गुलामी की आदत और असह्य गरीबी ने भारतीय जनमानस को क्रांति के लिए सर्वथा असमर्थ वे मानते हैं. कुछ हद तक वे सही हैं.
सवाल ये है कि क्या हम यह मान कर चलें कि भारतीय प्रतिरोध के काबिल ही नहीं हैं ? क्या ऐसा मानना एक सौ तीस करोड़ की आबादी के एक बड़े भाग का अपमान नहीं है ? क्या ऐसी सोच हमें अपनी अकर्मण्यता और भीरुता छुपाने के लिए एक ढ़ाल नहीं देता है ? अगर आप अपने बच्चे को कदम कदम पर ये याद दिला कर हतोत्साहित करें कि वह किसी काम लायक नहीं हैं, तो क्या वह प्रतिक्रियास्वरूप नकारात्मक मनोदशा में नहीं जिएगा ?
मनुष्य असीमित संभावनाओं से लबरेज दुनिया का सबसे उत्तम प्राणी है और उसका नीति नियंत्रक सिर्फ उसकी परिस्थितियों से उपजी उसकी सोच हो सकती है, मेरा, आपका या किसी भी वाद या सत्ता का मतामत नहीं. जो मनुष्य की मूल अच्छाई में विश्वास नहीं रखता वह क्रांतिकारी तो क्या मानवतावादी भी नहीं हो सकता. आज हमारे देश के करोड़ों मानसिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से बेसहारा लोग मुठ्ठी भर सुशिक्षित, सभ्य लोगों की तरफ उम्मीद से देख रहे हैं. हमारी एक तिरस्कार की भंगिमा, हमारे मुंह से निकला एक ऐसा शब्द जो उनके वृहद् स्वार्थ के विरुद्ध हो, उनकी नजरों में हमें शत्रु के रूप में स्थापित कर देगा इसलिए, शब्द ब्रह्म के अस्त्र को चलाने के पहले हजार बार सोचें.
अब लौटते हैं मूल प्रश्न पर. ये रास्ता किधर जाता है ? हम सब एकमत हैं कि क्रिमिनल लोगों के एक गिरोह ने देश पर अनैतिक कब्जा कर लिया है, और देश को बेच कर एक नव फासीवाद की स्थापना कर रहा है.
इतिहास में कभी-कभी ऐसे मोड़ आते हैं जब सत्ता को उखाड़ फेंके बगैर व्यवस्था बदलने की लड़ाई बे-मतलब हो जाता है. अक्सर यह सत्ता किसी राजनीतिक दल के पीछे छुपे एक खास विचारधारा का होता है. भारतीय संदर्भ में आज कौन लोग और कौन-सी विचारधारा देश को खत्म कर रहा है, दीगर बात है.
सवाल ये है कि जो इस सत्ता के विरुद्ध हैं, उनका क्या दायित्व बनता है ? और वे क्या कर रहे हैं ? मुझे मालूम है कि कांग्रेस और भाजपा का वर्ग चरित्र एक ही है, लेकिन, कांग्रेस अपने समावेशी चरित्र और गौरवशाली अतीत के चलते पूरी तरह से जनविरोधी कभी नहीं हो सकता. मुझे यह भी मालूम है कि मनरेगा से लेकर न्याय योजनाओं जैसी सारी बातें सिर्फ क्रांति को रोकने की कावयाद भर है, उससे ज्यादा कुछ नहीं. फिर भी, इन विषम परिस्थितियों में अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस ही एक ऐसा राजनीतिक दल है, जिसके साथ खड़े हो कर आप इस नरपिशाच की सत्ता को चुनौती दे सकते हैं, बशर्ते की खुद कांग्रेस इस दिशा में सार्थक पहल करे.
संसदीय राजनीति इतनी जल्द भारत से जाने वाला नहीं है. क्रांति फेसबुक पर नहीं होती, और बिना कोशिश के जनाधार भी नहीं बनता. मेरे कुछ वामपंथी मित्र मानते हैं कि मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के चलते जनक्रांति और करीब आ चुका है. हो सकता है कि वे सही हों, लेकिन सवाल ये है कि अगर वाकई जनता का गुस्सा फूट पड़ा तो क्या आपके पास वह संगठनात्मक शक्ति है कि आप उसे सही दिशा या नेतृत्व दे सकें ? मैं जानता हूं कि बहुत कठिन है डगर पनघट की लेकिन आजादी का रास्ता कभी आसान नहीं होता य गाना गाने जैसा आसान तो कभी नहीं.
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