हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
बेचैनियां तो हैं…और ये बढ़ती भी जा रही हैं. मीडिया और सरकारी तंत्र इन्हें जितना दबाने-छुपाने की कोशिश करे, जब बेचैनियां हैं तो वे व्यक्त भी होंगी. नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ को यूट्यूब पर लाइक से दस गुना अधिक मिल रहे डिस्लाइक को इन्हीं बढ़ती बेचैनियों की एक अभिव्यक्ति के रूप में लिया जाना चाहिये.
बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ को बीजेपी के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर आज सुबह तक 19 हजार लाइक्स के मुकाबले 1 लाख 81 हजार लोगों ने डिस्लाइक किया था (अभी शाम 5 बजे तक 91 हजार लाइक्स के मुकाबले 6 लाख लोगों ने डिस्लाइक किया था). जाहिर है, यह प्रधानमंत्री की कार्यप्रणाली के प्रति बढ़ते जन असंतोष का भी एक स्पष्ट संकेत है.
इस बात को लेकर विश्लेषक अक्सर हैरत जताते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की नीतियों को लेकर भारत में, खास कर युवा वर्ग में बेचैनियां क्यों नहीं बढ़ रही. अलग-अलग विश्लेषक इस तथ्य पर अपनी-अपनी राय रखते रहे हैं, लेकिन एक बात पर प्रायः तमाम विचारक एकमत हैं कि इसके लिये कारपोरेट संचालित मीडिया का सुविचारित ‘माइंड गेम’ और बीजेपी की मीडिया सेल का ‘फेक न्यूज गेम’ बहुत हद तक जिम्मेदार है, जो युवाओं की मति को भटकाने में अक्सर सफल होते रहे हैं.
लोकतंत्र में ‘परसेप्शन’ का बहुत महत्व है. पोस्ट-ट्रूथ के इस दौर में अपने हित में परसेप्शन का निर्माण सत्ता-संरचना के हित मे बेहद प्रभावी साबित होता है. यह 2019 के आम चुनाव के परिणामों में साबित भी हो चुका है, जब आम लोगों के जीवन से जुड़े प्रायः तमाम मामलों में नितांत असफल रहा कोई प्रधानमंत्री पूरी धज के साथ चुनाव जीत जाता है. न सिर्फ जीतता है, बल्कि, अपने पिछले रिकार्ड को बेहतर भी करता है. लेकिन, हर चीज की एक हद होती है. जाहिर है, परसेप्शन आधारित राजनीति की भी अपनी सीमा है। नरेंद्र मोदी इस सीमा को छू चुके हैं. अब उनके और उनके सलाहकारों के पास जनता की मति को भरमाने के अधिक रास्ते नहीं बचे. जैसा कि कहा जा रहा है, मोदी के मन की बात को डिस्लाइक करने वालों में छात्रों की संख्या अधिक है. अगर यह बात सही है, जो कि लगती है, तो यह मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स के लिये खतरे की घण्टी है.
ये छात्र और युवा ही हैं जो मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स के सबसे बड़े शिकार रहे हैं. चिकनी-चुपड़ी बातें करना, बात-बात पर मां भारती को सामने ले आना, सैनिकों की शहादतों को अपनी राजनीति के हक में इस्तेमाल करना, बिना ठोस आधार के बड़े-बड़े सपनों की बातें करना और इधर वास्तविकताओं के धरातल पर, सरकारी पदों को समाप्त करते जाना, उपलब्ध और रिक्त सरकारी पदों पर नियुक्तियों को हतोत्साहित करना, प्राइवेट सेक्टर में रोजगार के अवसर सिकुड़ते जाना, आईआईटी सहित तमाम तकनीकी संस्थानों की फीस में बेहिसाब, बेतहाशा वृद्धि करते जाना, शैक्षणिक संस्थानों के निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करते हुए उन्हें गरीब छात्रों की पहुंच से दूर करते जाना. आज अगर कोई आम छात्र या युवा, जो सामान्य या निर्धन आर्थिक पृष्ठभूमि का है और ‘मोदी-मोदी’ की रट लगाता मिलता है तो उसकी मानसिक हालत और बौद्धिक क्षमता पर संदेह उत्पन्न होने लगता है.
यद्यपि, निर्धन विरोधी नीतियों के बावजूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता आम युवाओं के बड़े हिस्से के सिर चढ़ कर बोलती रही है, लेकिन, बीते महीनों में मंजर बदलता दिखाई देने लगा है. कुछेक मीडिया संस्थानों के फर्जी सर्वे से जरूर इस बदलते मंजर पर पर्दा डालने की कोशिशें की गई हैं, जिनमें अधिकतर लोगों को यह कहते बताया गया है कि नरेंद्र मोदी ने इस कोरोना संकट के दौर में भी बहुत अच्छा काम किया है … कि वे बेहतरीन काम कर रहे हैं. लेकिन, जैसे हर चीज की हद होती है तो जाहिर है, फर्जीवाड़ों की भी हद होती है. नवीनतम सर्वे उन्हीं फर्जीवाड़ों की हद के उदाहरण है.
असंतोष बढ़ रहा है, भले ही इनकी मुखर अभिव्यक्ति सामने नहीं आ रही हो. कोई भी देश और समाज अपनी आर्थिक जलालतों को सहते हुए कब तक ‘ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद’ के नारे लगाता रहेगा, खास कर तब, जब आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हों कि इन आर्थिक जलालतों के पीछे स्वाभाविक कारण कम, सरकारी नीतियां अधिक जिम्मेदार हैं.
बिना व्यापक संवाद और आवश्यक तैयारी के अचानक से सख्त लॉक डाउन लगा देना, लोगों के बाहर निकलने, इकट्ठा होने पर सख्त नियंत्रण थोप देना और लोकतांत्रिक अधिकारों के इस वैक्यूम के दौर में भी सरकारी संपत्तियों की मनमानी बिक्री करते जाना, कुछेक चुनिंदा कारपोरेट प्रभुओं के हाथों में राष्ट्रीय संपत्तियों का सिमटते जाना. यह सब सरकार की उस मंशा को जाहिर करता है जिसके केंद्र में आम लोगों के हित नहीं, सशक्त कारपोरेट समुदाय का हित निहित है.
भले ही मीडिया प्रायोजित प्रहसनों को मुख्य खबर के रूप में हम पर थोपता रहे, जरूरी खबरों को हमसे छुपाता रहे, सूचना क्रांति के इस दौर में खबरें एक सीमा से अधिक छुप नहीं पाती. विरोधी स्वर तो ऊंचे होते जा रहे हैं, भले ही मीडिया बेमतलब की खबरों को तूल देकर इन स्वरों को दबाने की साजिश करे.
नरेंद्र मोदी के दौर ने एक रेखा तो खींच ही दी है कि मीडिया की मुख्यधारा किस कदर जन विरोधी साजिशों का हिस्सा हो सकती है. लेकिन, बावजूद इन साजिशों के, प्रतिरोध की भावनाएं सघन होती जा रही हैं. रेलवे, बैंक और सार्वजनिक सेक्टर के अन्य कर्मचारियों, जिनका बड़ा हिस्सा बतौर मतदाता मोदी समर्थक रहा है, का आक्रोश बढ़ता जा रहा है. सबसे प्रभावी है छात्रों में बढ़ता असंतोष, जिससे पार पाना किसी भी सत्ता-संरचना के लिये आसान नहीं होता. नरेंद्र मोदी के लिये भी यह आसान नहीं होगा.
व्यक्ति रूप में नरेंद्र मोदी इतिहास रच चुके हैं. अपार लोकप्रियता, व्यापक जन समर्थन हासिल कर उन्होंने अपनी पार्टी को भारतीय राजनीति के केंद्र में स्थापित कर दिया. लेकिन, यह क्रेडिट भी मोदी को ही दिया जाएगा कि कारपोरेट की अंध हितैषी राजनीति, जिसे वर्त्तमान संदर्भों में आप ‘मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स’ कह सकते हैं, की नग्नताओं को उजागर कर उन्होंने लोगों के बीच अनजाने में यह संदेश भी दे दिया है कि ऐसी राजनीति उन्हें और उनके बच्चों को कहीं का नहीं छोड़ेगी कि अपने अस्तित्व और मानवीय गरिमा की रक्षा के लिये उन्हें इस तरह की राजनीति के विरोध में खड़ा होना ही होगा. मंजर बदल रहा है. दूर आसमान के बदलते रंग तो ऐसे ही संकेत दे रहे हैं.
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