हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
अर्थव्यवस्था की दुर्गति पर स्यापा मचाने से पहले इस पर विचार करने की जरूरत है कि जिन राजनीतिक शक्तियों को देश के अधिकतर लोगों ने सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया है, उनका मौलिक आर्थिक चिंतन असल में रहा क्या है, इसकी सीमाएं क्या हैं और इसके निहितार्थ क्या हो सकते हैं ?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जो भाजपा का मातृ संगठन माना जाता है, किसी व्यापक आर्थिक चिंतन के लिये नहीं, बल्कि अपने विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन के लिये जाना जाता है. भारतीय जनता पार्टी, जो पूर्व जन्म में भारतीय जनसंघ के नाम से जानी जाती थी, अपने वैचारिक आधार के लिये प्रायः संघ पर ही निर्भर रही है.
आप संघ से वैचारिक विरोध रख सकते हैं, उसकी कटु आलोचना भी कर सकते हैं, लेकिन, जिन सांस्कृतिक-सामाजिक लक्ष्यों को लेकर वह आगे बढ़ा, उनके प्रति उसके समर्पण और धीरज की अनदेखी आप नहीं कर सकते. प्रेरक नेतृत्व, प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ताओं की निरन्तर बढ़ती संख्या और लक्ष्यों के प्रति असंदिग्ध निष्ठा ने उसे आज इस मुकाम पर पहुंचाया है कि देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पदों पर उसके ही अनुयायी विराजमान हैं.
मध्य भारत के किसी मंझोले शहर की गलियों से निकल कर, दशकों के सफर के उतार-चढ़ाव से गुजरते राष्ट्र की राजधानी के राजपथ पर संघ के अश्वमेध का घोड़ा आज दिग्विजयी अंदाज में खड़ा है. अपने अनुयायियों की राजनीतिक शक्ति के बूते वह अनेक सांस्कृतिक सवालों को अपनी वैचारिकता के अनुसार दिशा दे रहा है, जैसा कि परिदृश्य है, विभिन्न सवालों पर मचते रहे कर्णभेदी कोलाहलों के बीच उसके समर्थकों की संख्या बढ़ती ही गई है.
यह समर्थन आधार कैसे बढ़ता गया, जीवन के मौलिक सवालों से कन्नी काटते उसके राजनीतिक पुरोधा कैसे इन सांस्कृतिक सवालों को विमर्शों के केंद्र में बनाए रख सके, कुपोषितों और बेरोजगारों के आत्मघाती समर्थन के साथ ही खाए, पिये, अघाए लोगों का व्यापक समर्थन आर्थिक रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कैसे उनके साथ बना रहा…, यह सब विमर्श के अलग अध्याय हैं.
सांस्कृतिक सवालों से जुड़े लक्ष्य और उन तक पहुंचने की दीर्घ यात्रा के बावजूद भारत जैसे निर्धन बहुल विशाल जनसंख्या वाले देश की राजनीतिक सत्ता पर आरूढ़ शक्तियों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती तो आर्थिक सवाल ही हैं. इनसे जूझने में विफलता उनकी अन्य सफलताओं को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक सकती है क्योंकि, बदलते दौर में अब इतिहास की कसौटियां भी बदल चुकी हैं.
किसी भी सरकार की सफलता-असफलता की वास्तविक कसौटी तो यही हो सकती है कि उसके शासन काल में जनसामान्य के जीवन स्तर में क्या और कितने सकारात्मक बदलाव आये. इस कसौटी पर वर्त्तमान सत्ता का प्रदर्शन देश की वर्त्तमान आर्थिक हालत के आईने में सहज ही देखा जा सकता है. कोरोना कोई बहाना नहीं हो सकता. इसकी आहट से पहले ही देश की अर्थव्यवस्था विभिन्न मानकों पर गोता लगा चुकी थी.
एक सशक्त सरकार, बेहद लोकप्रिय और ताकतवर प्रधानमंत्री, सिर झुकाए खड़ी अधिकांश संस्थाएं, तर्क से अधिक मतलब न रखने वाला प्रबल जनसमर्थन का आधार …, और तब भी आर्थिक मानकों पर विफलता इस राजनीतिक धारा के आर्थिक चिंतन की सीमाएं सहज ही स्पष्ट कर देती हैं.
समृद्ध राष्ट्र की कल्पना तो अच्छी है, आकर्षक भी है, लेकिन इस तक पहुंचने के रास्तों को लेकर उनकी कोई स्पष्ट सोच कभी देश के सामने नहीं आ सकी, न ही इन मुद्दों को लेकर वे कभी देश के समक्ष खड़े हुए. ‘स्वदेशी’ जैसी अवधारणाएं वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद की आंधी में कब अप्रासंगिक होने लगीं, इसका अंदाजा उनके पुरोधाओं को भी ठीक से नहीं लग सका.
बाकी, कोई चिंतन अगर रहा तो वह उनकी किताबों में सिमट कर रह गया क्योंकि व्यावहारिकताओं के धरातल पर प्रासंगिकता कभी उभर कर सामने नहीं आ सकी. 1990 के दशक में सत्ता की राजनीति में उनके मजबूत होने के बाद भी नहीं.
नतीजा, जब वे सत्ता में आए तो आर्थिक नीतियों को लेकर जो प्रभावी वैश्विक रुझान थे, जिनमें ताकतवर वित्तीय शक्तियों के स्वार्थ निहित थे, वे उन्हीं में बहने लगे. वैसे भी, माना जाता है कि ‘राइट विंग’ और ‘नियो लिबरल इकोनॉमिक फोर्सेज’ एक दूसरे को मजबूती देते हैं और निर्धनों के सवालों को नेपथ्य में धकेलने के लिये हर राजनीतिक शोशेबाजी का सहारा लेते हैं.
भावुक, कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने ‘देशहित’ में सरकारीकर्मियों का पेंशन खत्म कर दिया क्योंकि, जैसा कि उनके वित्तमंत्री ने कहा, ‘जीवन प्रत्याशा बढ़ रही है और सरकार रिटायर सरकारीकर्मियों के पेंशन का आर्थिक बोझ अब और नहीं उठा सकती.’
सरकारी संपत्तियों को निजी और विदेशी हाथों में सौंपने के लिये उन्होंने बाकायदा एक विनिवेश मंत्रालय का गठन कर लिया और इस ओर तेजी से कदम भी बढाने लगे. एनडीए-1 के बाद 2 और 3 का यह वर्त्तमान दौर इस रास्ते पर और अधिक आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा है.
इस देश में नवउदारवाद की राजनीति कांग्रेस ने शुरू की और भाजपा ने इसे निर्णायक मजबूती दी. इस संदर्भ में संघ की आर्थिक वैचारिकता किस कोने में खड़ी रही, यह देश के लोग कभी समझ नहीं पाए.
निजीकरण, इससे आगे बढ़ते हुए अंध निजीकरण, हर मर्ज का इलाज इन्हीं में ढूंढने वाली राजनीतिक धारा इस देश की मौलिक समस्याओं के संदर्भ में कितनी और कब तक प्रासंगिक है, यह बड़ा सवाल है. एक उदाहरण यहां प्रासंगिक है.
इतिहास बताता है कि 1969 में जब भारत सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो तत्कालीन भारतीय जनसंघ ने इस कदम का पुरजोर विरोध किया था. यही नहीं, उसने 1971 के अपने घोषणापत्र में यह वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आया तो इस निर्णय को पलट देगा.
क्या यह वादा देश की बहुसंख्यक गरीब जनता से था, जिसके आर्थिक हितों के संदर्भ में बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक सकारात्मक कदम साबित हुआ था ? या यह वादा उन बड़े पूंजीपतियों से था जिनके आर्थिक हितों को इस कदम से चोट पहुंची थी ?
1969 में जिन 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था, उनके पास देश की कुल पूंजी का 70 प्रतिशत था. इन बैंकों में जमा पैसों को उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जाता था जो अधिक मुनाफे की सम्भावना वाले थे. जाहिर है, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन में बैंक बहुत पीछे थे. बैंकों के मालिक, जो बड़े पूंजीपति थे, बैंकिंग व्यवसाय से हुए मुनाफे को तो आपस में बांट लेते ही थे, जनता के जमा पैसों से कर्ज भी खुद की कंपनियों के नाम से ही ले लेते थे. कृषि, लघु उद्योग सहित अन्य सामाजिक क्षेत्रों में कर्ज का अनुपात बेहद नगण्य था.
राष्ट्रीयकरण के बाद परिदृश्य ही बदल गया, जब बैंकों ने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में अपनी भूमिका को विस्तार दिया. जाहिर है, बीते दशकों में हुई देश की आर्थिक प्रगति में बैंकों की बड़ी भागीदारी रही है. लेकिन तब के भारतीय जनसंघ ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रबल विरोध किया था और आज की भारतीय जनता पार्टी की सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बैंकों के निजीकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है. रेलवे सहित अन्य बड़े सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की ओर सरकार के बढ़ते कदम भी उन्हीं प्रवृत्तियों की ओर संकेत करते हैं जो कारपोरेट शक्तियों के हितों से प्रेरित हैं.
जब किसी राजनीतिक धारा के पास अपना स्पष्ट आर्थिक चिंतन नहीं होता तो सत्ता के साथ जुड़े आर्थिक दायित्व उसे दिशाहीनता की ओर ले जाते हैं. नरेंद्र मोदी की सरकार के साथ यही हुआ और हो रहा है. उधार के चिंतन और हायर किये गए आर्थिक सलाहकारों, जिनकी संदिग्ध कारपोरेट निष्ठाएं सवालों के घेरे में रही हैं, के चिंतन से आप जहां तक पहुंच सकते हैं वहां पहुंच गए हैं.
और, जहां पहुंचे हैं वहीं तो 45 वर्षों के उच्चतम स्तरों पर पहुंची बेरोजगारी है, जमीन सूंघती विकास दर है, दिवालिया होने के कगार पर पहुंचे बैंक हैं, धनपतियों की जागीर बनती रेलवे है, कुछेक हाथों में सिमटती जा रही देश की अगाध संपत्ति है. पता नहीं और क्या-क्या हुआ है, क्या-क्या हो रहा है…, आमजन तो समझ ही नहीं पा रहे. बस वे त्रासदियों को झेल रहे हैं, आने वाली त्रासदियों को लेकर आतंकित हो रहे हैं.
जैसा कि इस तरह की राजनीतिक शक्तियों की विशेषता होती है, आर्थिक त्रासदियों से गुजरते जनमानस को भटकाने के लिये, उसके नकारात्मक मानसिक तुष्टिकरण के लिये एक से एक भावनात्मक मुद्दे, एक से एक राजनीतिक प्रहसन के सिलसिले बनते और चलते रहते हैं.
हालांकि, ये सिलसिले देशों को अंधेरी खाई के अलावा कहीं और नहीं ले जा पाते.
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