लोकप्रिय हिन्दी मासिक पत्रिका ‘कादम्बिनी’ व ‘नंदन’ कल दिनांक 28-8-20 को बंद होने की घोषणा कर दी गई है. लगातार बंद हो रहे हिन्दी के पत्र-पत्रिकाएं भाषा के तौर पर गंंभीर खतरे का संकेत दे रही है. लेखक प्रेमपाल शर्मा की चिंंता इसी बात को लेकर है.
पवित्र मोहर्रम के ठीक एक दिन पहले पूरे दिन हिंदी की इन पत्रिकाओं के बंद होने की खबर पर शोक गीत चलते रहे. टेलीविजन पर नहीं यही फेसबुक पर. हिंदी की आम जनता को कहीं दूर दूर तक न दु:ख, न सुख. हिंदी के एक कथाकार ने बहुत सुंदर ढंग से संक्षेप में समेटा, ‘जिस भाषा के लेखकों में अपनी भाषा, साहित्य के प्रति आत्म सम्मान ही नहीं बचा हो, वहां ऐसे कभी-कभार रोने-धोने का कोई मतलब नहीं.’ तो क्या आगे रोने के लिए भी कोई हिंदी का प्रतीक नहीं बचेगा ?
30 वर्ष पहले और तब से अब तक हम जवान से बूढ़े होने तक उन शोक गीतों को गाते रहे कि हाय धर्मयुग हुआ करता था, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, दिनमान ! कुछ लोग उससे भी पहले चले जाते हैं कि कल्पना थी, सरस्वती थी, हंस था. पिछले 15 सालों में हमने ऐसी ही आवाजों के साथ नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, दैनिक हिंदुस्तान समेत अखबारों के साहित्यिक पन्नों को बंद या बर्बाद होते हुए देखा है.
इन शोक गीतों को उसी परंपरा से जोड़ कर देखिए जैसे कुछ लोग नालंदा, तक्षशिला पर आंसू बहाते-बहाते इलाहाबाद, बनारस विश्वविद्यालयों की बर्बादी पर विलाप करते हैं. इतिहास का सहारा ले तो नालंदा क्यों बर्बाद हुआ उसका प्रचार तो रोज किया जाता है, लेकिन इलाहाबाद बनारस विश्वविद्यालय की बर्बादी पर चौतरफा चुप्पी रहती है. वे भी चुप लगा जाते हैं जो आजादी के बाद संस्थानों उर्फ इंस्टीट्यूशंस के निर्माण का स्वर्ण युग खोज लाते हैं.
खैर, मैं ताजा दु:ख की तरफ लौटता हूं. निश्चित रूप से कोरोना काल ने इनके बंद होने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई होगी, लेकिन जब देश दुनिया की दूसरी दिशाओं में उम्मीदों की जिजीविषा बची हुई है तो फिर 70, 80 करोड़ की हिंदी आबादी और उसमें भी 10, 20 करोड़ बच्चे और नौजवानों के रहते 2, 4 पत्रिकाएं भी ना चल पाए तो इसे सिर्फ कोरोना या मालिकों को पूंजीपति, पूंजीवादी व्यवस्था जैसे घिसे-पिसे शब्दों से गरिया कर मुक्ति नहीं मिल सकती. हमें यदि जरा भी अपनी भाषा या साहित्य की चिंता है या आत्मसम्मान है तो उसके कारणों और निदान की तरफ बढ़ना होगा.
मैं दिल्ली 1977 में पहुंचा. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुलंद शहर के गांव से. शुद्ध हिंदी माध्यम से पढ़ा हुआ लेकिन दिल्ली में भी मुझे उस माध्यम की एक से एक अच्छी पत्रिकाएं इंतजार करती मिली. सचमुच दिनमान, धर्मयुग, सारिका यह सब नहीं होती तो मुझे पढ़ा-लिखा मानने में भी खुद को आपत्ति होती. साहित्य अकादमी, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर बाजार के हर कोने पर, एक से एक अच्छे लेख, बहस, किताबें हमारी तीन पीढ़ियों के निर्माण में इनका योगदान रहा है.
आभार उन पूर्वजों का लेकिन इतनी ही ग्लानि, अफसोस दु:ख इस बात का कि हम अगली पीढ़ियों को वह विरासत नहीं सौंप पाए. क्यों ? क्या हमने कोई संघर्ष किया ?अपनी भाषा और साहित्य को बचाने के लिए ? बताने की जरूरत नहीं कि कौन-सी राजनीतिक सत्तायेें उस समय देश पर हावी थी ! या वे 10, 10 – 20, 20 पुरस्कारों की लाइन में एक के बाद एक लगे रहे और एक दूसरे को अमर घोषित करते रहे.
इस पतन को समझने के लिए चंद बातें पर्याप्त रहेंगी. जाने-माने वैज्ञानिक और शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी शिक्षा आयोग 1964-66 के अध्यक्ष के रूप में और फिर सिविल सेवा सुधार कमेटी 1974-76 के रूप में बार-बार हिंदी समेत भारतीय भाषाओं की वकालत करते रहे. उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में डिग्री लेवल पर लगभग 60% पढ़ाई हिंदी माध्यम में थी और मानविकी विषयों में स्नातकोत्तर में 20% हिंदी माध्यम में पढ़ते थे. अपनी भाषाओं को बढ़ाने के लिए ही उन्होंने यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में वर्ष 1979 से भारतीय भाषाओं की इजाजत दी थी. भला हो मोरारजी सरकार का जो भारतीय भाषाएं आ गई. उसके बाद किसी और परीक्षा में अपनी भाषाओं का माध्यम लागू नहीं हुआ. वह चाहे इंदिरा गांधी की वापसी हो, राजीव काल हो, नरसिमा राव, अटल बिहारी वाजपेई या मौजूदा सरकार हो.
1979 के बाद एक दशक तक यह जलवा थोड़ा बहुत कायम रहा. उदारीकरण के 1991 के बाद तो अपनी भाषाओं में विशेषकर हिंदी में पढ़ना दिल्ली विश्वविद्यालय से भी गायब होता गया. कौन लोग थे विश्वविद्यालयों, डूटा की सत्ता में ? क्या वे कभी हिंदी माध्यम के लिए लड़े ?
इसी का असर धीरे-धीरे स्कूली शिक्षा में बढ़ता गया. हिंदी वहां भी गायब होती गई और न केवल अंग्रेजी बल्कि फ्रांसीसी, जापानी, चीनी बढ़ती गई.
क्या यह वैसा ही अपराध नहीं है जो 1757 और 1764 में मीरजाफर और सिराजुद्दौला का था, जिनकी कायरता और लालच से ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पैर जमाए. यदि स्कूलों में भी हिंदी माध्यम और हिंदी बच पाती तो न धर्मयुग और दिनमान डूबते और ना कादंबिनी और नंदन. कोई भी मालिक और सरकार सिर्फ पैसे से पत्रिकाएं नहीं बचा सकते. पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी ने तो एक बार गुस्से में कहा भी था कि ‘रुपए किसी पेड़ पर नहीं लगते.’
अधिकांश हिंदी प्रदेश अंग्रेजी नहीं जानता लेकिन दिल्ली और दूसरे शहरों में बढ़ती अंग्रेजी से उनके भी पैर उखड़ने लगे हैं. वे क्यों हिंदी की पत्रिकाएं खरीदें और पढ़ें जब आप बिहार, समेत दिल्ली की किसी भी बस्ती में चौकीदार की छोटी नौकरी के लिए भी अंग्रेजी मांगते हो ? जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर जामिया तक अंग्रेजी माध्यम का डंका बजता है. क्या इन विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग का काम लौट फिर कर वही भक्ति साहित्य, रीतिकालीन या व्याकरण की उलटवासियों तक ही सीमित रहेगा ? या अपनी भाषा के पक्ष में ये कभी दूसरे विभागों की तरफ भी देखेंगे ?
सबसे दु:खद और अफसोसजनक दृश्य होता है हिंदी के नाम पर इन विश्वविद्यालयों की प्रायोजित गोष्ठियों का ! सैकड़ों विषयों के विद्यार्थी इन विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं, उनमें से शायद ही कोई हिंदी विभाग की इन गोष्ठियों में कभी शामिल होता हो. अपनी भाषा उसके साहित्य को फैलाने के लिए आप कुछ कदम तो विश्वविद्यालय के प्रांगण में भी उठाएंगे ! इसलिए हिंदी और उसकी पत्रिकाओं, साहित्य को बचाना है तो समाज में उसकी जरूरत हमें अपने उदाहरण और आचरण से पैदा करनी होगी. भाषा समाज और अभ्यास से बचती है सरकारी अनुदान और पैकेज से नहीं.
नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं में पढ़ाने की दुहाई दी गई है. हिंदी प्रदेशों के सभी रंगों के लेखकों, लेखक संगठनों और बुद्धिजीवियों के लिए यह शायद अंतिम अवसर है जब वे सत्ता और राजनीति पर सामूहिक दबाव डालकर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं और उनकी पत्रिकाओं, किताबों को बचा सकते हैं. देश के विश्वविद्यालय और हिंदी समाज भी इसी रास्ते से बचेगा.
सम्पर्क नं. – 99713 99046
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