जल्द ही सरकार 109 रूटों पर प्राइवेट ट्रेनें चलाएगी. यानी इन रूटों पर जो ट्रेन चलेंगी, उनके ठहराव और उनके किराए यही प्राइवेट ऑपरेटर्स तय करेंगे. सरकार की इसमें कोई दख़ल नहीं होगी.
अभी तक जिन लोगों, ख़ासकर सीनियर सिटीजंस, 12 साल से कम उम्र के बच्चों को किराए में जो छूट मिलती है, वह समाप्त हो जाएगी. ट्रेन में हर सुविधा का अतिरिक्त मूल्य देना होगा. विंडो सीट चाहिए या लोअर बर्थ तो पैसा दीजिए, लीजिए. कोई सुविधा इस ट्रेन में फ़्री नहीं होगी. जितना पैसा उतनी सुविधा.
चूंंकि अब स्टेशनों की देख-रेख भी प्राइवेट हाथों में चली जाएगी, इसलिए स्टेशनों पर बैठने का, पंखे अथवा एसी आदि सब चीजों के लिए अतिरिक्त पैसा देना पड़ेगा. सरकार का दावा है, इस तरह की कसरत से हम रेलवे को वर्ल्ड क्लास सुविधाओं से लैस बना देंगे.
भारतीय रेलवे का नेटवर्क विश्व में चौथे पायदान पर है, लेकिन सुविधा के मामले में सौवें स्थान पर भी नहीं है, अब प्राइवेट ऑपरेटर्स यह कौशल दिखाएंंगे अर्थात् जो काम सरकार नहीं कर सकी, वह अब मुनाफ़े पर आधारित व्यवस्था करेगी.
अब यह भी देखिए कि भारत में रेल किसके लिए बनाई गई थी ? आज से लगभग 175 वर्ष पहले शुरू हुई यह सुविधा कारख़ानों द्वारा उत्पादित माल को इधर से उधर ले जाने के लिए प्रदान की गई थी ताकि व्यापारी/उद्योगपति को मन-माफ़िक़ पैसा मिल सके. अंग्रेज यहांं रेल पटरियों का ऐसा जाल बिछाना चाहते थे, जिससे उनका माल उपयुक्त बाज़ार पा सके. वे यहांं पर शासन करने नहीं, बल्कि व्यापार करने आए थे. और ऐसा निर्बाध व्यापार कि पूरा देश उनके इशारे पर चले. यानी राज्य द्वारा मिलने वाली हर सुविधा उनके ख़ुद के लिए हो, पुलिस, न्याय व्यवस्था, मालगुज़ारी, किसानों से ज़मीन का सौदा. इसीलिए इन गोरे व्यापारियों ने भारत को अपना ग़ुलाम बनाया और अनजाने ही कुछ सौग़ातें दी. इनमें सबसे बड़ी सौग़ात थी ट्रेन.
माल ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाली ट्रेनों में मज़दूरों को ढोने के लिए भी व्यवस्था थी. माल गाड़ी के कुछ डिब्बों में मज़दूरों को भर कर ले ज़ाया जाने लगा, ताकि सस्ते और टिकाऊ मज़दूर सुलभ हो सकें. इसी तरह से ही मज़दूरों को अंग्रेज भारत से अपने दूसरे उपनिवेशों में भी ले गए. दक्षिण अफ़्रीका से लेकर गयाना और सूरीनाम में जो मज़दूर गए और जिन्हें ‘गिरमिटिया’ कहा गया, वे यही थे. और इसी तरह पहले माल गाड़ियों में भर कर बंदरगाहों तक पहुंंचाए गए और वहांं से भाप के ज़रिए चलने वाले पानी के जहाज़ों से वांछित देशों को.
बाद में चूंंकि अंग्रेजों को अपने गोरे साहबों, ठेकेदारों, तकनीकी लोगों, हिंदुस्तानी किरानियों और मज़दूरों को ढोने की ज़रूरत पड़ी, इसलिए सवारी ट्रेनें चलाई गईं. इनमें गोरे साहबों के लिए फ़र्स्ट क्लास था, कारख़ानेदारों और हिंदुस्तानी व्यापारियों के लिए सेकंड क्लास तथा किरानियों व अन्य बाबुओं के लिए इंटर क्लास, जिसे ड्योढ़ा दर्जा कहा जाता था, किंतु मज़दूरों के लिए थर्ड क्लास, जिसमें न सीटें होती थीं, न संडास. गाड़ी जहां रुके, वहीं पर जाकर निपट लो. जो मज़दूर परिवार के साथ यात्रा करते थे, उनकी औरतें तो पूरे सफ़र के दौरान अन्न-जल नहीं लेती थीं, ताकि उनको हाजत न महसूस हो. सोचिए, कितनी कष्टसाध्य थी यह यात्रा ! बहुत बाद में थर्ड क्लास में बेंचें लगाई गईं और संडास की व्यवस्था हुई. कितने परिवार बिछड़े.
पता चला, कोई हाजत के लिए उतरा और निपट भी नहीं पाया था कि ट्रेन चल पड़ी. परिवार ट्रेन में और मुखिया बाहर. ऐसे परिवार की स्त्रियों को बेच दिया जाता. जब गांधी जी ने थर्ड क्लास से यात्रा शुरू की, तब सीटों की व्यवस्था हुई थी. इतना लम्बा सफ़र कर आई भारतीय रेल सेवा भले ही आज वर्ल्ड क्लास सुविधा न दे पा रही हो, लेकिन गरीब और मध्य वर्ग के लिए यह वरदान है. यह सुविधा ले लेने से किसे नुक़सान होगा ?
जब भारतीय रेलवे पहले से ही सम्पन्न और खाते-पीते लोगों के लिए राजधानी, शताब्दी और दूरंतो जैसी ट्रेनें चला रही है, तब पूरी ट्रेन को प्राइवेट हाथों में देने की क्या वजह हो सकती है ? क्या यह सरकार भूल गई, कि सरकार लोक के लिए होती है इसीलिए सरकार जो भी योजना शुरू करती है या निर्माण पूरा होने के बाद उसे खोला जाता है, उसके लिए एक लोकार्पण ! यानी यह योजना अब जनता को समर्पित हो गई.
जनता का अर्थ होता है, अधिकांश जनता. अर्थात वे लोग, जो हमारे देश में काफ़ी संख्या में हैं. तब क्या माना जाए कि देश की जनता को इस सरकार ने इतना संपन्न कर दिया है कि वह इन प्राइवेट ट्रेनों से चलने लगेगी ? पटरी सरकार की, इंजन सरकार की, स्टेशन की इमारत सरकार और सारा बुनियादी ढांंचा सरकार का, किंतु लाभ उठाएंंगे वे प्राइवेट ऑपरेटर्स, जो अपने मुनाफ़े के लिए, जनता की सुविधा नहीं, ख़ुद की कमाई देखेंगे.
कोई भी सरकार हो, वह जनता के मत से चुनी जाती है, इसलिए सरकार का दायित्त्व होता है कि वह जनता के हित की सोचे, निजी उद्यमियों की कमाई के बारे में नहीं. फिर सरकार को यह अधिकार किसने दिया कि वह जनता की रेल बेच दे ? यह तो सरासर आंंखों में धूल झोंकना है, और जनता के हित की अनदेखी करना है. भारतीय रेल में 13 लाख कर्मचारी हैं, उनके हित के बारे में कौन सोचेगा ? यूंं भी नई नौकरियांं मिल नहीं रही, ऐसे में इन्हें निकालने से बेरोज़गारी और बढ़ेगी.
मौजूदा सरकार किस तरह का भारत चाहती है ? क्या ऐसा भारत, जिसमें ग़रीबों को ख़त्म कर दिया जाए ? जिसमें लोगों को बेरोज़गार कर दिया जाए? क्या मौजूदा सरकार को लोगों ने इसीलिए वोट किया ? ये सब सोचने का विषय हैं. सरकारी नीतियों में अमल के लिए कोई छुपा हुआ एजेंडा नहीं होता, सरकार को बताना होगा, कि वह कौन सी लोक कल्याणकारी नीतियों पर अमल कर रही है. कुछ चीज़ें सरकार ही ऑपरेट कर सकती है.
क्या लोग भूल गए कि कैसे बसें चलाने वाले प्राइवेट ऑपरेटर्स सवारी की जान-माल की सुरक्षा की गारंटी नहीं लेते. उन्हें गंतव्य तक पहुंंचाने का भी दायित्त्व नहीं लेते. कितने लोग रोज़ शिकायत करते हैं कि उन्हें लखनऊ की बजाय बाराबंकी में उतारा गया. जी, यह सच है.
एक बार मेरी बेटी को लखनऊ जाना था, चूंंकि बस को बिहार जाना था, लेकिन कंडक्टर ने कहा बस वाया लखनऊ ही जाएगी, टिकट भी दिया. किंतु अगर-लखनऊ राज मार्ग पार करने के बाद बस ड्राइवर ने लखनऊ बाई पास का मार्ग पकड़ा. जब बेटी ने हंगामा किया, तब उसे किसी अनजान स्थान पर उतार दिया, वह भी रात के साढ़े तीन बजे. ज़ाहिर है, निजी ऑपरेटर्स अपनी कमाई के लिए न तो यात्री की सुरक्षा देखेंगे, न सुविधा. किंतु सरकार जब सब कुछ बेचने पर तुली हो तो आम आदमी की सुरक्षा की ज़रूरत ही क्या है ?
- शंभूनाथ शुक्ल
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