अपनी रिसर्च के 4-5 साल तक अपने रिसर्च सुपरवाइजर की अध्यक्षता में वाराणसी के विभिन्न विद्यालयों में बी.एड. के छात्रों को टीचिंग अभ्यास के लिए ले जाता रहा हूंं. इस दौरान बिमल चंद घोष मूक बधिर विद्यालय तथा सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय सबसे अधिक जाना हुआ है.
वराणसी के विद्यालयों में बीएचयू के प्रोफेसर्स, छात्र एवं कैंपस से जुड़े लोगों की बहुत अच्छी प्रतिष्ठा है. टीचिंग हेतु विद्यालय बिलकुल निःशुल्क प्राप्त होते हैं. अध्यापक, प्रबंधन सभी प्रैक्टिस टीचिंग के दौरान खूब सहयोग करते हैं. वहीं दूसरी ओर मेरठ में एक सड़ा-सा विद्यालय पाने के लिए आपको 10,000 से 30,000 रुपया चुकाना पड़ जाता है. खैर अब मुख्य मुद्दे पर आता हूंं.
सरस्वती शिशु मंदिर में अपने अंतिम दिन प्रशिक्षु अध्यापकों ने विद्यालय का शुक्रिया अदा करने के लिए एक सांस्कृतिक और धन्यवाद ज्ञापन कार्यक्रम का आयोजन किया. बीएचयू की परम्परा के अनुसार कार्यक्रम के अंत में छात्रों ने राष्ट्रगान प्रारम्भ ही किया था, तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरे मस्तिष्क पर राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय प्रतीकों की बड़ी अमिट छाप छोड़ी.
प्रमुख आचार्य जी जो संघ के एक बड़े पदाधिकारी भी थे, ने भरे असेंबली हाल में पूरी तन्मयता से राष्ट्रगान गाते छात्रों को बीच में रोक दिया और राष्ट्रगान और रविंद्रनाथ टैगोर की आलोचना भरे सभागार में उस भाषा में गरियाकर की, जिसे अपने पोस्ट में मैं उन शब्दों का उल्लेख भी नहीं कर सकता हूंं. उन्होंने बताया कि हम अपने यहांं सुबह की प्रार्थना में गायत्री मंत्र का प्रयोग करते हैं. वेद मंत्रों का प्रयोग करते हैं. राष्ट्रगीत वंदे मातरम् का प्रयोग करते हैं. हम जन गण मन राष्ट्र गान का बहिष्कार करते हैं.
मेरी प्रारम्भिक शिक्षा कान्वेंट में हुई. इंटर मैने इस्लामिया कॉलेज से किया, जहांं अलीगढ यूनिवर्सिटी का प्रभाव है. ज़ाकिर हुसैन जैसे पूर्व राष्ट्रपति जहां के पूर्व छात्र रहे हैं. कानपुर यूनिवर्सिटी, आगरा यूनिवर्सिटी, मेरठ यूनिवर्सिटी, बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी झांसी और बनारस हिंदु यूनिवर्सिटी … प्रत्येक कैंपस में मुझे गर्व से राष्ट्र गान को गाना सिखाया गया.
अपनी एनसीसी ट्रेनिंग के दौरान मैंने पूरे भारत वर्ष में पचासों कैंप में आर्मी ट्रेनिंग ली और गर्व से ये गान गाया लेकिन राष्ट्रभक्ति का ये विकृत रूप मैं पहली बार देख रहा था, जिसमें बीएचयू के दो प्रोफेसर्स सहित सैकडों लोगों को राष्ट्रगान गाने से रोक दिया गया था. मेरे दो प्रोफेसर्स, मेरे गुरु भाई और करीब 60 प्रशिक्षु अध्यापक इस घटना के गवाह बने अवाक् से एक दूसरे का मुंह ताक रहे थे.
मैंने अपने हॉस्टल में वापिस आकर अपने रूम मैट्स और दूसरे रिसर्च स्कॉलर को भी ये घटना बताई. हमने मेस और चाय पर काफी चर्चा की और इस नतीजे पर पहुंचे कि आचार्य जी देश के गद्दार तो कतई नहीं थे. हांं, उनकी राष्ट्रीयता के प्रतीक कुछ अलहदा और सांप्रदायिक प्रकार के थे. ये उनकी स्कूलिंग, प्रशिक्षण, लालन पालन और उनके संस्कारों पर आधारित थे. ऐसी बीमार मानसिकता के लोग दोनों ओर पाये जाते हैं. उनमें से कुछ बस्ती में भी रहते होंगे. दोनों प्रकार की बीमार मानसिकता एक दूसरे को अप्रत्यक्ष तौर पर पालती-पोसती है.
हमारे मेरठ कैंट में तो मेरे घर से 100 मीटर के दायरे में 14 झंडारोहण कार्यक्रम सड़क के लोगों और मार्किट के व्यापारियों के द्वारा किये गए. मैं अपने 6 वर्षीय भतीजे को खुद स्कूटी पर बैठा कर दिखाने ले जाता हूंं. मैंने खुद गिना, उनमें कम से कम 6 मुस्लिम्स द्वारा आयोजित थे. हिन्दू व्यापारी जहां अपने आयोजन और दुकानदारी दोनों में सामान रूप से व्यस्त थे, वहीं मुस्लमान बुज़ुर्ग सफ़ेद धुला कुरता पायजामा पहने इत्र लगाये ऐसे महक रहे थे कि जैसे ईद हो.
मेरा लालन पालन ऐसी स्वस्थ मानसिकता वाले लोगों के बीच ही हुआ है इसलिए मैं ऐसे सकारात्मक मानसिकता वाले लोगों को ही जनता हूंं. अब किसे राष्ट्रभक्त कहे और किसे गद्दार ? मोदी जी के इस पावन और पुनीत कृत्य को देखकर मुझे बनारस के सरस्वती शिशु मंदिर के प्रमुख आचार्य याद हो आये.
मेरी समस्या बस ये है कि आप न्यूरो मोटर समस्या से जूझते एक विकलांग व्यक्ति को जो अपने पेशियों पर नियंत्रण न होने के कारण राष्ट्रगान के दौरान भी 52 सेकण्ड सावधान खड़ा नहीं हो सकता, को इसी अपराध के कारण सिनेमा हॉल में मरने की हालत तक पीट देते हैं. क्या आप संघ प्रचारक आचार्य जी को या प्रधानमंत्री को, सत्ता में बैठे बड़ों को इसी अपराध के लिए उंगली भी छुला सकते हो ?
राष्ट्रीय प्रतीक कभी भी राष्ट्र में बसने वाले जन से बड़े नहीं होते. अब आप समझ सकेंगे कि राष्ट्रीय प्रतीक गढ़े गए हैं. विकसित हुए हैं लेकिन होते कृत्रित ही हैं. उनके प्रति बाह्य व्यवहार के द्वारा सम्मान प्रदर्शन हमारे पूर्व के प्रशिक्षण के आधार पर डिपेंड करता है.
जिन समुदायों, संस्थाओं का इतिहास काला होता है और यदि वे हमारी मूर्खता और हिन्दू अधिसंख्य वोटर की साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया के चलते सत्ता में आ जाते हैं तो वे अपने प्रतीक, अपने महापुरुष, अपने इतिहास ज़ोर जबरदस्ती से स्थापित प्रतीकों में घुसा देने को मजबूर होते हैं. सावरकर को वीर कहना और राष्ट्रीय प्रतीकों और पुरुषों के बीच घुसा देना ऐसी ही क्रिया है.
वरना देशभक्ति तो एक अत्यंत आंतरिक भाव है जो मुसीबत के समय देश की आवश्यकता के समय स्वतः स्फूर्त ही अंदर से बाहर को परिलक्षित होने लगता है. फिलहाल घुसपैठ किये फ़र्ज़ी प्रतीकों और महापुरुषों को सैलूट करते हुए स्वतंत्रता दिवस को मनाइए.
- तनवीर अल हसन फरीदी
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