रात का तीसरा पहर था. शहर के इस हिस्से में काली रातें भी चमकतीं हैं. नहीं नहीं, रोशनी से नहीं, शहर के दिल की रोशनियां तो क़रीब दो मील दूर ही दम तोड़ देतीं हैं.
यहां काला पन के चमकने की वजह एक नदी है. किसी ज़माने में शहर इसी नदी के पास बसा था. अब यह नदी सारे शहर की गंदगी ढोते-ढोते काली पड़ गई है. पानी कितना भी काला पड़ जाए, उसमें थोड़ी चमक बाक़ी रहती है, अगर वह बहता हो तो. ये नदी आज भी बहती है, यद्यपि कचरा बीनने वाली बुढ़िया-सी मंद चाल से.
उसके जैसे कुछ सौ लोग इस नदी के किनारे बस्ती में रहते हैं. यहां बिजली एक दूर से दिखने वाली झांकी है. ऐसे में, अंधेरी रातों में नदी का चमकता हुआ कालापन थोड़ा सुकून देता है .
रात का तीसरा पहर सोते किसी सोते हुए विशाल दैत्य-सा लगता है. सांए-सांए करता सन्नाटा बड़े से बड़े शहर को भी जंगल सा बना देता है. नींद के अनगिनत लत्तर एक बूढ़े बरगद की देह से लिपट कर मुंह बाये अजगर जैसा चेतना को निगलता है.
रामधुन अपने बोरी के बिस्तर पर लेटे हुए थोड़ी देर सोचता है कि उसकी नींद क्यों खुली ? ऐसा अक्सर हमारे साथ होता है जब हम गहरी नींद से जाग जाते हैं. नींद में हम एक दूसरी दुनिया में पहुंच जाते हैं, जिसका चेहरा जाना-पहचाना भी होता है और अन्जान भी. आभासी दुनिया से अपनी दुनिया में लौटना भी थोड़ा समय लेता है.
रामधुन को नींद में अक्सर एक यात्रा दिखती है, उसके बचपन से आज तक की यात्रा. कुछ भी सिलसिलेवार नहीं होता. अबरक के बंद खदान के बाहर खड़ा एक रोता हुआ बच्चा … अंदर धंसान में दबे उसके मां-बाप … एक जला हुआ घर …. घर के बाहर चमकते हुए अबरक की बोरियां … मंगलू का साईकिल पर खैनी थूकते हुए आना … जवान रामधुन उसी साईकिल पर बोरियों में कोयला ढोते हुए सुरम्य घाटी पार करना…
सुरम्य घाटी काले पहाड़ों के बदन से लिपटी एक हरी साड़ी थी, जिसपर बैशाख में लाल क़सीदे उभर आते … नीचे बहती हुई नदी आईने सा पहाड़ों को मुंह चिढ़ाती. इतना सबकुछ था, लेकिन रामधुन ने बारह सालों तक साईकिल पर कोयला ढोते हुए कभी नहीं महसूस किया था.
घाटी पार करते समय रामधुन कि निगाहें बस अगली मोड़ पर होता. कुल एक सौ बाईस मोड़ थे, चढ़ाई के पनचानबे और बाक़ी उतार के. चढ़ाई पर रामधुन, उसकी साईकिल और कोयला के बोरे सबकुछ एक अर्द्ध गोलाकार आकृति में तब्दील हो जाते … एक पुरानी, कमजोर मशीन जिसे उसके सामर्थ्य से अधिक भार खींचने पर मजबूर किया गया है. रामधुन भी गियर बदलता … चढ़ाई तो फ़र्स्ट गियर में ही संभव था. धीरे-धीरे उसका पूरा बदन किसी खौलते हुए कुंड सा भाप छोड़ने लगता. पसीने धूल से तर-बतर उसके बदन पर उतार के वक़्त हवा उमस भरी रातों में मां के आंचल जैसा सहलाती.
एक बार घाटी पार करने में रामधुन कई मौसम जी लेता. ऐसे में सुंदरता को निहारने की विलासिता कहां. घाटी तो उसके लिए वो रेगिस्तान था जिसके पास दो चार सौ रुपए का एक कटीला पेड़ था, जिसके कटीले पत्तों को जबड़ों के बीच दबाए उसे फिर से ऊंट बन जाना था. पैरों में पड़े टायर के काले चप्पल ऊंट के खुर से दिखते.
रामधुन को सहसा याद आया कि वह क्यों उठ कर बैठ गया रात के तीसरे पहर में. आठों पहर की भंगिमाएं तय है आदमी के लिए. रात के तीसरे पहर में बैठा हुआ आदमी समतल सड़क पर उभरे हुए बंपर सा दिखता है …
उसे याद आया, वह कुछ ज़रूरी बात भूल कर से गया था … आजकल अक्सर ऐसा होता है, ख़ासकर पिछले कई महीनों से जब से तालाबंदी हुई है. उसके पहले भी कई बार ऐसा हुआ है , जैसे कि घाटी पार करने के बाद मालीटोला में महुआ के अड्डे पर नशे में धुत होने के बाद. उन रातों को बीते हुए दिन को सूखे हुए ज़ख़्म पर पड़े काली चमड़ी सा छुड़ा देना ज़रूरी था, वर्ना रह रह कर खुजली होती.
तालाबंदी में दूसरे कारण से भुलाना ज़रूरी था … भूख को भुला देना आसान नहीं होता, लेकिन जब आपको पता नहीं हो कि अगला निवाला कब मयस्सर हो तो आख़िरी निवाला ही ईश्वर बन जाता है इसलिए तो धन धान्य , शस्य श्यामला इस देश में अन्न को ब्रह्म कहा गया.
मोटी बात ये है कि रामधुन को भूख लगी थी. ईश्वर से उसकी आख़िरी मुलाक़ात दो दिन पहले हुई थी. उसकी खोली ख़ाली थी. चूहे भी इस अकाल में मर गए थे.
रामधुन अपने कमज़ोर पैरों पर खड़ा होता है. रेलवे लाईन के पास पांच महीने पहले मिले प्लास्टिक की बोतल के बदरंग पेंदे में पड़े हुए पानी को गटक लेता है. ख़ाली पेट में पानी गर्म कड़ाही में डाले हुए ठंढे पानी सा छन्न आवाज़ के साथ नमक लगे केंचुए सा छटपटाता है. भूख की करोड़ों नुकीली सूंइयां चुभने लगती हैं. रामधुन ज़मीन पर पहले उंकडु बैठ जाता है, फिर धीरे-धीरे उसका सर दोनों पैरों के बीच आ जाता है. अपने दोनों हाथों से अपने पेट को दबा कर उल्टी करना चाहता है लेकिन पित्त गले तक आकर रुक जाता है.
रामधुन का शरीर अब एक शजारू ( एक प्रकार का जीव जिसके शरीर पर बाहरी हमले के समय कांटे उग आते हैं ) जैसा दिखता है. वह इधर-उधर देखता है … कुछ भी मिल जाए … कोई छिपकली … कोई तिलचट्टे … पुआल का टुकड़ा … मूंज की रस्सी … कहीं कुछ नहीं है. घुप, चमकता हुआ अंधेरा और सन्नाटा … रामधुन अपनी ऊंगलियों को मुंह में डालता है … अपने हाथों को काट खाने की कोशिश करता है … भूख मिटानी है. दांतों के गड़ने पर उसके हाथों में तेज़ दर्द होता है … रामधुन होश में आता है. वह आदमी है, और आदमी के दांत कच्चे मांस नहीं खा सकते. फिर, उसे दर्द भी तो हुआ … मतलब वह अभी ज़िंदा है. वह ख़ुद का निवाला कैसे बनाए ?
रामधुन बेहोश होकर ज़मीन पर लुढ़क जाता है. इधर भूख बिना कोई शोर किए उसके बदन का निवाला बनाती रहती है. उसके लिए यही आख़िरी निवाला है गो कि …
- सुब्रतो चटर्जी
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]