उतरे हुए चेहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उजड़े हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
सहमी हुई गलियों कोई मेला कोई नारा
जकड़े हुए शहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
ज़ंजीर की छन-छन पे कोई रक़्सो तमाशा
नारों के ग़ुलामों तुम्हें आज़ादी मुबारक
अब ख़ुश हो ? कि हर दिल में हैं नफ़रत के अलाव
ऐ दीन फ़रोशों(धर्म बेचने वालों) तुम्हें आज़ादी मुबारक
बहती हुई आँखों ज़रा इज़हारे मसर्रत(प्रसन्नता)
रिसते हुए ज़ख़्मों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उखड़ी हुई नींदों मेरी छाती से लगो आज
झुलसे हुए ख़्वाबों तुम्हें आज़ादी मुबारक
टूटे हुए ख़्वाबों को खिलोने ही समझ लो
रोते हुए बच्चों तुम्हें आज़ादी मुबारक
फैले हुए हाथों इसी मंज़िल की तलब थी ?
सिमटी हुई बाहों तुम्हें आज़ादी मुबारक
हर ज़ुल्म पे ख़ामोशी की तसबीह में लग जाओ
चलती हुई लाशों तुम्हें आज़ादी मुबारक
मसलक के, ज़बानों के, इलाक़ों के असीरों (क़ैदियों)
बिखरे हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
ऐ काश लिपट के उन्हें हम भी कभी कहते
कश्मीर के लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
- अहमद फरहाद
(पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर वहां के मशहूर युवा शायर ने ये ग़ज़ल वहां के लोगों के लिए लिखी है.)
(लोग बार-बार कनफ़्यूज हो रहे हैं … पाकिस्तान में भी कश्मीर है, यहां उसका ज़िक्र हुआ है.)
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