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राहत इंंदौरी : मौत पर ठहाके

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11 अगस्त के सुबह 7 बजकर 37 मिनट पर राहत इंदौरी के फेसबुक अकाउंट से पोस्ट किया गया था :

कोविड के शरुआती लक्षण दिखाई देने पर कल मेरा कोरोना टेस्ट किया गया, जिसकी रिपोर्ट पॉज़िटिव आयी है … ऑरबिंदो हॉस्पिटल में एडमिट हूंं … दुआ कीजिये जल्द से जल्द इस बीमारी को हरा दूंं.

एक और इल्तेजा है, मुझे या घर के दूसरे लोगों को फ़ोन ना करें, मेरी ख़ैरियत ट्विटर और फेसबुक पर आपको मिलती रहेगी.

इसके बाद इसी अकाउंट से शाम के 5 बजकर 51 मिनट पर एक दूसरा पोस्ट नमूदार होता है :

राहत साहब का कार्डियक एरेस्ट की वजह से आज शाम 05:00 बजे इंतेक़ाल हो गया है. उनकी मग़फ़िरत के लिए दुआ कीजिये.

राहत इंदौरी जिस खुले मिजाज के साथ जिये उसी खुले मिजाज के साथ अपनी मौत को भी गले लगाये. राहत इंदौरी की मौत के बाद अनेक लोगों ने श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हुए अपने विचार रखें हैं, उसमें से कुछ इस प्रकार हैं.

राहत इंंदौरी : मौत पर ठहाके

शादाब सलीम अपने सोशल मीडिया पर लिखते हैं :

अमित शाह कोरोना पॉज़िटिव हुए, शिवराज सिंह चौहान कोरोना पॉज़िटिव हुए इस पर इनके विरोधियों ने खिल्ली उड़ाई थी. राजनीतिक लोगों के विरोधी होते हैं, यह बात ठीक है क्योंकि आदमी राजनीति कर रहा है तो किसी तरफ तो होगा ही इसलिए राजनीतिक लोगों को एक ओर से तो प्रेम मिलता है और दूसरी ओर से लताड़.

मैं हताश इस बात पर हूंं कि राहत इंदौरी की मौत पर भी ठहाके लग रहे और उन्हें बुरा भला कह रहे. जावेद अख्तर भी होते तो बात ठीक थी क्योंकि वह कमज़ोर आस्थाओं को आहत करते रहते हैं, पर राहत इंदौरी जैसे प्रेमल हृदय आदमी के लिए भी ऐसी नफरत की ज्वाला ! मैं तो हैरान हूं. आज़म खान होते, गुलाब नबी आज़ाद होते, सोनिया गांधी होती तो भी बात ठीक थी, पर मूर्ख लोगों ने राहत इंदौरी जैसे फूल जैसे आदमी के लिए नफ़रत कहांं से ले आए ?

राहत इंदौरी से नफ़रत करने वाला वही वर्ग है जो अब्दुल कलाम के लिए गीत गाता है, उन्हें देशप्रेमी मुसलमान कहता है. असल में इन्हें अब्दुल कलाम से भी कोई स्नेह और प्रेम नहीं है, बस बात यह है कि वह भाजपा के आदमी थे.

इन्हें पहचान लीजिए. यह सर से पैर तक नफ़रत के ज़हर में डूबे हुए लोग हैं। यह किसी भी दिन आपको डंस कर आपमें भी ज़हर भर देंगे. अपने आप को इनसे बचाइए, इनसे कोई समझौता और व्यवहार नहीं हो सकता. यह हद दर्ज़े के नरपिशाच है. अगर आपमें थोड़ी भी मानवीयता और तर्क है तो पुनः चेता रहा हूंं, इनसे बचकर रहिए, यह किसी के मित्र नहीं हो सकते.

राहत बहुत लाजवाब आदमी थे, वह मनुष्यता के गीत गाते रहे, उनमें कोई धार्मिक विभेद नहीं था, वह कोई धार्मिक पहचान तक नहीं रखते थे फिर भी उनके प्रति ऐसे ज़हर और जहालत ने नैराश्य में डूबे दिया है. हम किस भारत की ओर बढ़ रहे हैं ? सूर, निराला, महादेवी, पंत और प्रसाद की पंरपरा के आदमी की मौत पर यदि ठहाके लग रहे तो यह अत्यंत दुःखद है.

एक दफ़ा मरहूम शायर राहत इंदौरी किसी मुशायरे में गए थे. वहां उनके कोई धनाड्य फैन ने उन्हें अपनी कार से थोड़ी दूर छोड़ने का आग्रह किया. वह उस कार में बैठ गए. शायद कार मर्सडीज बेंज थी. थोड़ी दूर चले और स्टेशन के पहले उतर गए.

सड़क पर पैदल चलने लगे. मुशायरा सुनकर उनका कोई दूसरा फैन साइकिल से जा रहा था. वह राहत इंदौरी को देखकर रुक गया. राहत इंदौरी से उस दूसरे शख़्स ने आग्रह किया कि मैं आपको स्टेशन तक छोड़ सकता हूंं. राहत इंदौरी साइकिल पर बैठ गए. साइकिल चलती रही महफ़िल जमती रही. आधे घंटे में मर्सिडीज बेंज से साइकिल के पहिये तक जीवन का सार उतर आया. आदमी भी इस तरह अर्श से फर्श और फर्श से अर्श चलता रहता है.

फ़ैज़ और पाश से लेकर राहत तक हर शायर आम आदमी के दर्द और उसके इश्क़ को लिखता रहा है, वह हुक्मरानों के खिलाफ आम हाशिए पर खड़े आदमी की आवाज़ बनकर गरजता रहा है.

अभी कुछ दिनों पहले ही मुझे भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक एक पंजाबी महिला ने इंदौर सिर्फ इसलिए आने को कहा था कि वह राहत इंदौरी से मिलना चाहती है. किसी छोटे से शहर से निकले एक शायर को सारी दुनिया के हिंदी उर्दू जानने वाले लोगों ने ऐसा प्यार कम ही दिया है. सलमान खान, मक़बूल फ़िदा, लता मंगेशकर के बाद यदि इंदौर को विश्व में पहचाना गया तो राहत इंदौरी के नाम से जाना गया.

राहत इंदौरी जब मुशायरे के मंच पर नहीं होते तब उनके हाथ कांपते थे और जैसे ही मंच पर जाते थे, गरजते थे. यह शायरी का अजीब जिन्नात था जो उन पर सारी उम्र सवार रहा.

राहत इंदौरी के घर तक जाने वाली ओल्ड पलासिया की सड़क को राहत का नाम दिया जाना चाहिए था, पर सरकारे अंधी, बहरी और गूंगी होती है. उन्हें राहत की चिंघाड़ सुनाई ही नहीं दी जो आधी सदी तक हवाओं में गूंज रही थी. उस ही सड़क पर सलीम खान का भी घर है.

राहत इंदौरी ने अपने एक गीत में कहा है –

जी खोल कर जी
जी जान से जी
कुछ कम ही सही
पर शान से जी

दो सदी पहले मीर तकी मीर ने कहा है –

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं.

शायद मीर राहत के लिए ही हुक्मरानों को लिखकर गए थे. मीर को यह इल्म होगा दो सदी बाद उर्दू अपने किसी ऐसे बेटे को जन्म देगी जो उर्दू के पुष्प सारी धरती पर बिखेर देगा और जो मनुष्यता के गीत गाते हुए सारी धरती पर आम आदमी के शब्दों में हुक्मरानों के विरुद्ध दहाड़ता फिरेगा, जो हिंदी और उर्दू के भेद को पाट कर रख देगा.

भावेश विद्रोही लिखते हैं :

कुछ सोशल मीडियाई लपड़झंडूसों को भाजपा आईटी सेल ने याद दिलाया कि डेढ़ दशक पहले राहत इंदौरी ने किसी कवि सम्मेलन में अटलजी के घुटनों का मज़ाक बनाया था. बस तभी से इनकी ‘टॉमी छू’ भावनाएंं अपने नुकीले दांंत दिखा-दिखाकर राहत इंदौरी पर भौंक रही है.

‘टॉमी छू’ भावनाएंं कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि इन अकल के अंधों की भावनाओं का रिमोट कंट्रोल भाजपा के पास है, कब, कहांं, कैसे और किस पर आहत होनी है ये ऊपर से तय होता है वरना इनकी भावनाएंं तब आहत नहीं हुई जब अटलजी को शराबी, वैश्याखोर और ब्रिटिशों का दलाल कहने वाला सुब्रमण्यम स्वामी भाजपा में आ गया.

इनकी भावनाएंं तब आहत नहीं हुई जब संसद के अंदर समाजवादी पार्टी का सांसद बनकर रामायण के पात्रों की तुलना शराब के अलग-अलग ब्रांड से करने वाला नरेश अग्रवाल को खुद अमित शाह ने नारंगी पट्टा गले में डालकर भाजपाई बनाया.

इनकी भावनाएंं तब आहत नहीं हुई जब आडवाणी ने जिन्ना को ‘सच्चा सेक्युलर’ कहते हुए उसकी कब्र पर नाक रगड़ी थी. इनकी भावनाए तब आहत नहीं हुई जब ‘सैनिक तो होते ही मरने के लिए है’, कहने वाला आरजेडी विधायक भाजपा जॉइन कर लेता है.

राहत इंदौरी का मुसलमान होना ही काफी है, दक्षिणपंथियों के चरित्रहनन की वजह बनने के लिए. याद रखिए अगर राष्ट्रवाद, देशभक्ति, धार्मिक आस्था जैसी चीजें ड्रग्स है तो भाजपा आरएसएस इस फील्ड के ड्रग माफिया है.

देशबन्धु अखबार ने ‘बेचैन कर गया राहत इंदौरी का जाना‘ शीर्षक के तहत सम्पादकीय लिखते हुए कहते हैं :

लोकप्रिय शायर राहत इंदौरी ने मंगलवार सुबह जब यह जानकारी ट्विटर पर दी कि वे कोरोना संक्रमित हैं तो उनके जल्द सेहतमंद होने की कामना उनके प्रशंसक करने लगे थे, लेकिन शाम होते-होते यह दुःखद समाचार आ गया कि राहत साहब इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं. इस ख़बर ने सबको गमगीन कर दिया, उन्हें भी जो उनकी शायरी के मुरीद थे और उन्हें भी जिन्हें शायरी की समझ हो न हो, लेकिन राहत साहब के होने से यह आश्वस्ति रहती थी कि हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी सभ्यता के पक्ष में खुलकर बोलने और लिखने वाला कोई शख़्स आज भी है.

मौजूदा दौर में कलाकारों के भी गुट बन गए हैं. अलग-अलग राजनैतिक दलों से बहुत से कलाकारों की प्रतिबद्धताएं हैं, जो उनके कला क्षेत्र में भी झलकने लगती है लेकिन राहत इंदौरी ने हमेशा हिंदुस्तान की तहजीब के पक्ष में लिखा और इस तहजीब के राजनीतिकरण की जमकर खबर ली.

‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में,
यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है.
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है.’

ये पंक्तियां पढ़ने में जितनी आसान लगती हैं, क्या लिखने में भी उतनी ही आसान रही होंगी ? इस सवाल का जवाब तो राहत इंदौरी ही दे सकते थे लेकिन इन दो पंक्तियों में उन्होंने हिंदुस्तानियत का सारा फ़लसफ़ा बयां कर दिया और धर्म, जाति के नाम पर दूसरों को सताने वालों को चेतावनी भी दे दी.

इक़बाल ने सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, लिख कर यही बताने की कोशिश की थी कि सभी लोगों को साथ लेकर मिल-जुलकर रहने के कारण ही हिंदोस्तां दुनिया के बाकी देशों से अलहदा है और उसी बात को ठेठ देसी अंदाज में लिखकर राहत इंदौरी ने समझाने की कोशिश की कि किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है, यानी इस पर कोई अपनी मिल्कियत न समझे, ये सबका है, सब इसके हैं.

उनकी ये पंक्तियां एनआरसी और सीएए विरोधी आंदोलनों का प्रतीक बन गई थीं और न जाने कितने बार, कितने लोगों ने इन्हें हाल-फिलहाल में उद्धृत किया. यही राहत इंदौरी की शायरी की खूबी थी कि वे बड़ी से बड़ी बात को सहजता से व्यक्त कर देते थे.

बशीर बद्र, निदा फाजली, अदम गोंडवी, मुनव्वर राणा जैसे शायरों की तरह उनकी शायरी आम आदमी की जुबां पर चढ़ गई. वे जितनी सहजता से लिखते थे, उतनी ही खूबसूरती से मंच पर अपनी शायरी को आवाज देते थे. उनके कहने का तरीका भी लोगों को बेहद पसंद आता था. समकालीन राजनीति की हलचलों पर उनकी पैनी नजर थी और गलत को गलत कहने का साहसी जज्बा उनमें कूट-कूट कर था. इसी साल जनवरी में हैदराबाद में सीएए-एनआरसी के खिलाफ आयोजित मुशायरे में उन्होंने कहा था कि-

साथ चलना है तो तलवार उठा मेरी तरह,
मुझसे बुज़दिल की हिमायत नहीं होने वाली.’

यह एक संदेश था उन लोगों के लिए जो सोशल मीडिया पर ही सारी क्रांति कर देते हैं और चाहते हैं कि उनके हक़ के लिए कोई और आवाज उठाए. अभी देश राम मंदिर के भूमिपूजन की खुशियां मना रहा है. बहुत से लोग यह समझाने की कोशिश भी कर रहे हैं कि इससे हिंदू-मुस्लिम एकता बढ़ेगी, लेकिन मस्जिद गिराने के दोषी अब भी सजा से बचे हुए हैं और यह एक कड़वी सच्चाई है कि एक ऐतिहासिक धरोहर धर्म की राजनीति की भेंट चढ़ गई. इस दु:ख को राहत इंदौरी ने कुछ इस तरह बयां किया था कि-

टूट रही है, हर दिन मुझमें एक मस्जिद,
इस बस्ती में रोज दिसंबर आता है.

राष्ट्रवाद और देश की रक्षा के नाम पर सियासी फायदा कैसे लिया जाता है, इसका सटीक विश्लेषण उन्होंने इन पंक्तियों में किया था –

‘सरहद पर तनाव है क्या ?
ज़रा पता तो करो चुनाव है क्या ?’

कोई आश्चर्य नहीं अगर हुक्मरान ऐसे अशआर सुनकर तिलमिला न जाते हों. चुनाव के वक्त सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान का नाम लेने का जो चलन पड़ गया है, वे इसी बात का तो प्रमाण हैं. केवल राजनैतिक ही नहीं समसामयिक तमाम तरह के हालात राहत इंदौरी की शायरी का विषय बने. बेरोज़गारी की समस्या पर बड़ी खूबसूरती से उन्होंने नौजवानों की उदासी और पीड़ा को व्यक्त किया –

काॅलेज के सब बच्चे चुप हैं, काग़ज़ की एक नाव लिए,
चारों तरफ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है.

इसी तरह बढ़ते प्रदूषण पर उन्होंने लिखा –

शहर क्या देखें कि हर मंजर में जाले पड़ गए,
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए

राहत इंदौरी जितनी ख़ूबसूरती से शायरी में रंग भरते थे, उसी तरह रेखाओं को आवाज़ देते थे. वे एक बेहतरीन चित्रकार थे और उनके बनाए साइनबोर्ड, पोस्टर भी जनता खूब पसंद करती थी. राहत इंदौरी ने उर्दू अध्यापन को आजीविका के लिए चुना था, लेकिन इससे पहले वे मुफ़लिसी के दिनों में चित्रकारी से रोज़गार कमाते थे.

बाद में वे मंच के शायर के रूप में देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए और उन्होंने मुन्ना भाई एमबीबीएस, सर, खुद्दार, मर्डर, मिशन कश्मीर, करीब, तमन्ना और बेगम जान जैसी कई फिल्मों के गीत भी लिखे. एम बोले तो मास्टर में मास्टर से लेकर बूम्बरो बूम्बरो श्याम रंग बूम्बरो जैसे गीतों में उनके हुनर की विविधता झलकती है.

एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तों, दोस्ताना जिंदगी से मौत से यारी रखो, जैसी सीख देने वाले राहत इंदौरी ने कोरोना की ख़बर भी खूब ली थी कि –

शाखों से टूट जाए, वो पत्ते नहीं हैं हम,
कोरोना से कोई कह दे कि औकात में रहे.

कोरोना ने भले उन्हें मौत का तोहफा दिया, लेकिन राहत इंदौरी ने यह लिखकर पहले ही अपनी जीत निश्चित कर ली थी कि –

‘मैं जब मर जाऊं, मेरी अलग पहचान लिख देना,
लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना.’

ऐसे हिंदुस्तानी को सच्ची श्रद्धांजलि तभी मिलेगी, जब उनके दिए संदेशों को जमाना सुनेगा और समझेगा.

प्रसिद्ध विद्वान पं. किशन गोलछा जैन कहते हैं :

राहत इन्दौरी साहब के निधन के साथ ही भारत से एक महान उर्दू शायर का अध्याय समाप्त हो गया. राहत इन्दोरी साहब का जन्म इंदौर में 1 जनवरी, 1950 में कपड़ा मिल के कर्मचारी रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहांं हुआ. वे उन दोनों की चौथी संतान थे और उनका नाम और जाति राहत कुरैशी था लेकिन अपने शहर की पहचान अपने साथ रखने के लिये वे इंदौरी शब्द का इस्तेमाल करते थे.

उनकी प्रारंभिक शिक्षा नूतन स्कूल इंदौर में हुई और बाद में उन्होंने इस्लामिया करीमिया कॉलेज इंदौर से 1973 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल से उर्दू साहित्य में एमए किया, तत्पश्चात 1985 में मध्य प्रदेश के मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की.

वह न केवल उच्चतम शिक्षा प्राप्त थे बल्कि वो खेलकूद में भी महारत रखते थे और वे स्कूल और कॉलेज के जमाने में फुटबॉल और हॉकी टीम के कप्तान भी थे. वह केवल 19 वर्ष के थे जब उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में अपनी पहली शायरी सुनाई थी. राहत साहब ने शुरुवाती दौर में इस्लामिया करीमिया कॉलेज इंदौर में उर्दू साहित्य का अध्यापन कार्य शुरू कर दिया और बाद में वे इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक भी रहे मगर चूंंकि वे उर्दू शायर और हिंदी फिल्मों के गीतकार भी थे, अतः पूरे भारत और विदेशों से निमंत्रण प्राप्त होने के कारण से मुशायरों में व्यस्त रहने लगे. अतः अध्यापन का कार्य छोड़ दिया.

उनकी कलाम कहने की अद्भुत शैली और विशिष्ट शब्दों की चयनात्मक कला के कारण ही वे जनता के बीच इतना लोकप्रिय हो गये कि जहांं भी उनका मुशायरा होता लोग सिर्फ उन्हें सुनने को घंटों बैठे रहते. राहत इंदौरी साहब न सिर्फ उर्दू शायर और गीतकार वरन चित्रकारी में भी महारत रखते थे.

उनके बचपन में जब परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी तो मात्र 10 साल की उम्र में उन्होंने अपने ही शहर में एक साइन-चित्रकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया था. उनकी विशिष्ट शैली के कारण बहुत जल्द ही वह इंदौर के व्यस्ततम साइनबोर्ड चित्रकार बन गये थे.

उनकी असाधारण डिज़ाइन का कौशल और शानदार रंग भावना की कल्पना प्रतिभा कमाल की थी कि उस दौर में भी वह इतने प्रसिद्ध थे कि ग्राहक राहत साहब द्वारा चित्रित बोर्डों को पाने के लिये महीनों इंतजार कर लेते थे (आज भी इंदौर की कितनी ही दुकानों में उनके द्वारा किया गया पेंट और साइनबोर्ड्स बहुत से लोगों के पास मौजूद है).

उनका निधन कल 11 अगस्त, 2020 को दिल का दौरा (हार्ट अटैक) आने की वजह से हुआ था, न की कोरोना की वजह से. बहुत से लोगों ने कोरोना से राहत साहब की मृत्यु संबंधी खबर डाली थी और न्यूज मीडिया के साथ सोशल मीडिया में भी भ्रम बना हुआ था लेकिन उनके डॉक्टर ने स्पष्ट कर दिया कि उनकी मृत्यु अटैक आने की वजह से हुई है (उनका हार्ट का ऑपरेशन भी पहले हो चुका था).

अपनी विरासत में वे अपनी बीबी सीमा और तीन संतानें (शिबली, फैसल, सतलज) के लिये छोड़कर सदा के लिये शून्य में विलीन हो गये. राहत साहब भले ही चले गये मगर उनके शब्द हमेशा हमारे बीच मौजूद रहेंगे.

उनकी ही आखिरी नज्म (श्रद्धांजलि के रूप में) –

नए सफर का जो ऐलान भी नहीं होता
तो जिन्दा रहने का अरमान भी नहीं होता

तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते है
जिनके कमरों में गुलदान भी नहीं होता

ख़ामोशी ओढ़ के सोइ है मस्जिदें सारी
किसी की मौत का ऐलान भी नहीं होता

वबा ने काश हमें भी बुला लिया होता
तो हम पर मौत का अहसान भी नहीं होता

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