प्रतीकात्मक तस्वीर
यह सच है कि मध्यकाल में कुछ मन्दिर तोड़े गए थे, पर उसके कारण धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक होते थे. मंदिर सत्ता के प्रतीक थे और मुस्लिम राजाओं के अलावा, हिन्दू राजा भी युद्ध/आक्रमण के दौरान दूसरे क्षेत्र के मंदिरों/मूर्तियों के साथ ऐसा करते थे.
देश में लंबे समय तक केंद्रीय सत्ता मुगलों की रही. इसके अलावा अन्य क्षेत्रों में मुस्लिम नवाबों का अधिकार रहा. यह सोचने वाली बात है कि लगातार मुस्लिम शासन के दौरान कैसे हर गली- कूचे में मन्दिर बनते रहे और सुरक्षित भी रहे. यदि वास्तव में सब मन्दिरों को गिराना मकसद होता तो इतनी ज्यादा संख्या में मंदिरों का अस्तित्व बना रहना सम्भव नहीं था.
अयोध्या जैसे शहरों में हर गली-कूचे में और देश के अन्य इलाकों में अनेक छोटे-बड़े मंदिर हैं, उनका न केवल अस्तित्व बना रहा बल्कि पूजा-पाठ भी होता रहा. इसके अलावा दोनों धर्मों की आबादी प्रेम से रहती भी रही. मुस्लिम फूल भी बेचते रहे. रामलीला भी खेलते रहे.
हमको एक बात समझना चाहिये. लुटेरों और राजनीतिज्ञों का ज़्यादा मतलब धर्म-मर्म से नहीं होता. वे केवल उसका दोहन करते हैं. उनका उद्देश्य शुद्ध आर्थिक-राजनीतिक लाभ प्राप्त करना होता है. पहले भी यही था और आज भी यही है.
बाहर से जो लुटेरे आये उन्होंने लूटने के उद्देश्य से मन्दिरों को तोड़ा और जो राजाओं ने मन्दिर तोड़े, उन्होंने सत्ता स्थापित करने के लिये और दूसरे राजाओं के वर्चस्व को ख़त्म करने के लिये मंदिर तोड़ा.
मंदिर धर्मस्थल के अलावा सत्ता के प्रतीक भी होते थे और कई बार सत्ता की वैधता ही मन्दिर से प्राप्त होती थी. ऐसी स्थिति में विजेता राजा के लिये यह आवश्यक था कि वह दूसरे राज्य के उन मन्दिरों, जिनसे उस राज्य के कुल-देवता/देवी स्थापित हों, को नष्ट कर दे.
जो मन्दिर राजनीतिक सत्ता तथा वैधता के केन्द्र नहीं थे या शासक द्वारा त्याग दिए गए थे, उन मन्दिरों पर चोट नहीं पहुंंचाई गई. इसका उदाहरण खजुराहो के मन्दिर हैं क्योंकि उनको चन्देल राजाओं द्वारा त्याग दिया गया था.
यह कॉमनसेंस की बात है कि यदि समस्त मंदिरों को तोड़ना ही उद्देश्य होता तो मंदिर बचते ही नहीं. मुस्लिम राजाओं और नवाबों के इलाकों में इन मंदिरों का बचना बिल्कुल भी सम्भव नहीं था. मन्दिर इतनी ज्यादा मात्रा में कदापि नहीं होते.
यदि इन मुस्लिम शासकों की नज़र में मन्दिर इतने ही बुरे होते तो मन्दिरों के लिये ज़मीन देना असम्भव था (मंदिर हेतु ज़मीन देने के रिकॉर्ड मौज़ूद हैं). जबकि, कुछ ख़ास मंदिरों को छोड़कर किसी को चोट नहीं पहुंचाई गई. कुछ मन्दिर तोड़े गए तो मंदिरों के लिये ज़मीनें भी दी गईं.
अब इस प्रश्न पर आते हैं कि क्या हिन्दू राजाओं ने भी अन्य इलाकों और दूसरे राजाओं के मंदिरों को चोट पहुँचाई ? इसका उत्तर है, हाँ. उन्होंने ऐसा किया.
पल्लव शासक नरसिंह वर्मन चालुक्यों की राजधानी वातापी से गणेश प्रतिमा को लूट ले गया. बाद में चालुक्य भी उत्तर भारत से गंगा-यमुना की मूर्तियांं लूटकर दक्षिण में स्थापित किया. 12-13वीं शताब्दी में परमार वंश ने गुजरात के जैन मन्दिरों को लूटा. यह परम्परा तुर्कों के आने के बाद भी चलती रही.
15वीं शताब्दी में उड़ीसा का शासक कपिलदेव कावेरी मुहाने के शैव व वैष्णव मन्दिरों को लूटता है और बाद में 16वीं सदी में कृष्णदेव राय उदयगिरि से बालकृष्ण की मूर्ति को लूट ले गया. मराठों ने शृंगेरी के शारदा मठ को लूटा और मूर्ति भी तोड़ दिया.
कहने का मतलब यह है कि मुस्लिम तुर्कों के भारत आने से पहले ही यहांं मन्दिर राज-सत्ता के संघर्ष के केन्द्र होते थे. यह एक प्रकार से विजय की घोषणा और पराजित राजा को नीचा दिखाने का जरिया था. बाद में आये मुस्लिम शासकों ने भी इसे जारी रखा.
कुछ महत्वपूर्ण बातें और हैं. पहली बात यह है कि मन्दिर तोड़ते/लूटते समय आम जनता को चोट/नुकसान नहीं पहुंंचाया जाता था.
दूसरी बात बाबर या अन्य मुगल शासकों के समय मन्दिर तोड़ने का यह काम बहुत कम संख्या में किया गया. अकबर के समय मंदिरों को संरक्षण देने की नीति थी. किसी क्षेत्र में विजय के बाद उस क्षेत्र में मन्दिरों को स्टेट की प्रॉपर्टी मान लिया जाता था तथा मन्दिर और उनके पुजारियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी.
हांं, यदि कोई हिन्दू राजा बग़ावत करता तो उसके क्षेत्र के मुख्य मंदिर को नष्ट किया जाता था और विजय चिह्न के रूप में मूर्तियों को लूट लिया जाता था. अकबर ने भव्य मन्दिरों के निर्माण की अनुमति भी दिया. राजा मान सिंह द्वारा संरक्षित वृन्दावन का गोविन्द देव मन्दिर इसका उदाहरण है.
बाबर ने 1526 में मंदिर क्यों नहीं तोड़े ? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि यहांं पहले से ही गैर-हिन्दू यानी मुस्लिम अफगान शासन था. दिल्ली में इब्राहीम लोदी की सत्ता थी. उसके शासन क्षेत्र में मंदिर सत्ता के प्रतीक नहीं थे. किसी मंदिर/देवता की सहभागिता नहीं थी इसीलिये अयोध्या में और अन्य स्थानों पर पक्के तौर पर मन्दिर तोड़ने का कोई सबूत नहीं मिला.
आख़िरी बात, बाबरी मस्जिद के संदर्भ में यह है कि मस्जिद के शिलालेख पर मात्र यही अंकित है कि बाबर ने निर्माण की इजाजत दिया और उसके कर्मचारी मीर बाकी ने निर्माण किया. इस शिला लेख में इसे ‘दिव्य सत्ताओं के अवतरण के स्थल’ (महतिब-इ-कुदसियां) के रूप में चित्रित किया गया है.
यह मस्जिद का विवरण है न कि उस स्थल पर बनी पहले की किसी इमारत का. इस विवाद के निर्णय में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी मन्दिर बनाने को कहा है लेकिन मस्जिद तोड़ने को स्पष्ट रूप से ग़लत कहा है.
निष्कर्ष यह है कि मध्यकाल को मध्यकाल की तरह देखें. उसे आज अपने चश्मे से देखेंगे या जो चश्मा पहनाया जा रहा है उससे देखेंगे तो चीज़ें धुंधली दिखेंगी और फिर मनमानी व्याख्याएंं आपको भ्रमित करेंगी. मध्यकाल में मन्दिर तोड़ने जैसी घटनाओं से इंकार नहीं है लेकिन उसके वही कारण नहीं हैं जो हमको बताए जा रहे हैं.
जो सांप्रदायिक राजनीति करने वाले लोग अतीत का बदला लेने की सोच फैलाते हैं, वे यह कभी नहीं चाहते कि अवाम अपना ध्यान वर्तमान समय के जिंदगी से जुड़े मुद्दों रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास आदि पर ले जाए. यह जनता को ही सोचना होगा और ऐसी ताकतों और ऐसे नैरेटव फैलाने वाले लोगों से सावधान रहना होगा.
इससे बिल्कुल भी इंकार नहीं है कि इस देश में मध्यकाल में तमाम मुस्लिम शासक रहे. तोड़-फोड़ भी हुई. उत्तराधिकार के लिये लड़ाईयांं भी हुईं और राज्य के क्षेत्राधिकार को बढ़ाने के लिये भी युद्ध हुए. वर्चस्व की लड़ाइयांं भी हुईं. मेल-जोल भी होते रहे। त्योहार-उत्सव भी चलते रहे. उस समय यही सब चलता था.
निर्माण कार्य भी हुए. अर्थव्यवस्था, कला, स्थापत्य आदि क्षेत्रों में विकास भी हुआ. बाहर से आने वाले भी दो तरह के थे. एक शुद्ध लुटेरे थे जो लूट कर चले गए. दूसरे, वे थे जो रुक गए.
यह सत्य है कि कोई बाहर से आया तो वह लूटने, कब्जा करने, धन आदि की तलाश में आया लेकिन जब वह यहीं रुक गया और उसके उत्तरवर्त्तियों ने यहांं शासन किया तो वे यहांं के रंग में रंग गए और यहीं अपना जीवन पूरा करके दफ़्न हो गए. यकीन मानिए उनकी जगह कोई स्थानीय या भारतीय सम्राट होता तो वह भी यही सब करता.
- पुनीत शुक्ला