सुब्रतो चटर्जी
रक्षा मंत्रालय ने देश को रक्षा उपकरणों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अहम फ़ैसला सुनाते हुए उन 69 चीजों का आयात नहीं करेगी, जो भारत में नहीं बनती. गधत्व के शिखर पर बैठा यह मूर्खों की सरकार का आयात को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने की एक फूहड़, बेहूदा और आत्मघाती निर्णय है.
संभव है कि दुनिया का भ्रष्टतम प्रधानमंत्री अपने 15 अगस्त के बौद्धिकी में अपने फटे हुए ढोल पर आत्मनिर्भर ताल पर बिके हुए लाल क़िले पर पैशाचिक नृत्य का बेशर्म मुज़ाहिरा पेश करे और गोदी मीडिया भारत की नब्बे प्रतिशत भूखी-नंगी, विचार शून्य जनता के लिए एक ऐसा मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत करें, जो कि इस चतुर्दिक असफल सरकार के डामर पुती चेहरे पर पोचाड़ा करे. वैसे भी भरी बारिश में पोचाड़ा तो घर में किसी की मौत के बाद ही नियमानुसार होती है.
हांं, यह सही है कि भारत काफ़ी हद तक मर चुका है. 9 अगस्त से 15 अगस्त तक के हफ़्ते को हमें एक राष्ट्रीय मनन सप्ताह के रूप में मनाना चाहिए. भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर आज़ादी की तिथि तक सारा इतिहास इस एक सप्ताह में समझाया है.
अब देखिए, इस क्रिमिनल गिरोह ने भारत छोड़ो आन्दोलन की तर्ज़ पर गंदगी भारत छोड़ो का नारा दे कर कैसे 9 अगस्त का मान रखा. मिमिक्री अगर फूहड़ हो तो हंसाता नहीं है, दर्शकों के हाथों जूते थमा देता है.
अब ये आत्मनिर्भरता का राग ! इंटरनेट के जमाने में कैसी आत्मनिर्भरता ? क्या सैनिकों के लिए जूते के फ़ीते ख़रीद कर हम आत्मनिर्भर बन जाएंंगे ? विडंबना यह है कि जिस सरकार ने पिछले 6 सालों में देश की संपत्तियों को बेचने के सिवा कुछ नहीं किया है, वही देश को आत्मनिर्भर बनाने का ज्ञान बांंट रही है.
नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन से करोड़ों लोगों को भिखारी बनाने वाले क्रिमिनल, अंबानी-अदानी का दलाल आत्मनिर्भरता का उपदेश दे रहा है. जिस बेशर्म से एक मूर्ति देश में नहीं बनाया गया, वह सुखोई बनाएगा और हमारी मूर्ख जनता उस पर यक़ीन करेगी !
दरअसल, संघी जानते हैं कि अधिकांश भारतीय एक हीरो के द्वारा सौ लोगों के पीटने पर ताली बजाने वाली क़ौम है. ज़्यादातर अपने इतिहास में जीते हैं, जो तथाकथित रूप से स्वर्णिम था. वे मानते हैं कि दुनिया हीरो और विलन में बंटा हुआ एक रंगमंच है, जिसकी डोर किसी भगवान के हाथों में है.
भगवान की दासता से मुक्ति की छटपटाहट अपनी जगह और भाग्य के सामने समर्पण अपनी जगह. ऐसे दिमाग़ को सच से कोई लेना देना नहीं है. यह आधे अंधेरे और आधी रोशनी में सिकुड़ा हुआ अविकसित प्रज्ञा है, जिसे हाईजैक करने के लिए बस कुछ प्रतीकात्मक नारों की ज़रूरत है. यही कारण है कि जिस व्यक्ति को कोई भी सभ्य समाज 2002 में ही फांंसी पर चढ़ा देता, उसी व्यक्ति का हाथ थाम कर आज रामलला आज अपने घर जा रहे हैं.
मैं अपने लेखों में ज़्यादा आंंकड़े जानबूझकर प्रस्तुत नहीं करता, क्योंकि यह काम मुझसे बेहतर कई लोग करते हैं. मेरे शब्द सिर्फ़ बदलते हुए हालातों पर भावनात्मक और बौद्धिक प्रतिक्रिया है . ठंढा तर्क या cold logic भारतीयों के लिए अपनी संप्रेषण क्षमता खो चुका है. इसलिए, मेरा निष्कर्ष यह है कि 15 अगस्त 1947 तक हम जिस बौद्धिक स्तर पर थे, आज उससे बहुत पीछे चले गए हैं.
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