हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
कोई उम्मीद भी कैसे करता था कि निजी ट्रेन के टिकटों की कीमत पर सरकार का कोई अंकुश हो भी सकता है ? आज अगर रेलवे ने यह साफ कर दिया है कि निजी ट्रेन ऑपरेटर्स अपनी मर्जी से टिकटों के दाम वसूल सकते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है.
ट्रेन ही क्यों, ऐसा क्या निजी है जिसके शुल्क पर सरकार का कोई भी नियंत्रण हो ? लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिये कुछेक भ्रामक रेगुलेशंस की चर्चा करना एक बात है और निजी तंत्र की लूट पर प्रभावी अंकुश लगाना बिल्कुल दूसरी बात.
जब निजी अस्पतालों और निजी स्कूलों की लूट पर सरकारों का कभी कोई नियंत्रण नहीं रहा तो निजी ट्रेन क्या चीज है ? और जब निजी ट्रेन के यात्री किराया पर सरकारों का कोई अंकुश नहीं तो रेलवे प्लेटफार्म से जुड़े शुल्कों पर क्यों नियंत्रण होगा ?
आज खबरों में देखा, पटना रेलवे स्टेशन को खरीदने के लिये दो-तीन व्यवसायियों ने रुचि दिखाई है. अगले कुछ दिनों में इसे बिकना है ताकि, जैसा कहा जा रहा है, पटना रेलवे स्टेशन पर भी ‘विश्वस्तरीय सुविधाएं’ मिल सकें.
एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट है. मांग के संकट से जूझ रहे बाजार के लिये शिक्षा, चिकित्सा और सार्वजनिक परिवहन पर कब्जा करना बहुत जरूरी है. ये तीनों क्षेत्र ऐसे हैं जहां मांग का अधिक संकट कभी उत्पन्न नहीं होगा.
सार्वजनिक हित से जुड़े इन तीनों क्षेत्रों पर निजी पूंजी की गिद्ध दृष्टि बहुत पहले से गड़ी रही है. बीते दशकों में वे इन क्षेत्रों में अपने पैर पसारते भी रहे हैं. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद सार्वजनिक हित से जुड़े क्षेत्रों के निजीकरण की साहसिक प्रक्रिया को गति मिली.
‘साहसिक’ इसलिये, क्योंकि ट्रेनों और स्टेशनों को बेचने के लिये राजनीतिक साहस की जरूरत होती है और नरेंद्र मोदी में यह है. यह साहस उनको कहांं से मिलता है ?
- पहली बात, लोगों को भरमाए रख कर अपने समर्थन में बनाए रखने के लिये उनके पास अनेक मुद्दे हैं.
- दूसरी बात, कारपोरेट सेक्टर के कुछ महाप्रभुओं का जितना सशक्त समर्थन उनके साथ है, वह उन्हें राजनीतिक रूप से भी शक्तिशाली बनाता है.
- तीसरी बात, मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा जिस तरह नरेंद्र मोदी का चारण बन गया है, वह भी इस खेल का बड़ा हिस्सा है.
मीडिया का यह बड़ा हिस्सा डरा हुआ नहीं है, बिका हुआ भी नहीं है, बल्कि, वह इस खेल में बराबर का साझीदार है. वह उस नृशंस सत्ता-संरचना का अनिवार्य कंपोनेंट है, जो निर्धनों और कामगारों के रक्त को चूस कर शक्ति अर्जित करता है.
राजनीति और कारपोरेट के गठजोड़ का जितना खुला खेल मोदी राज में खेला गया है, उसके लिये उदाहरण गिनाने की भी जरूरत नहीं. अडानी जैसों की संपत्ति में महज एक साल में दोगुने की वृद्धि दर ही बहुत कुछ कह डालती है. अंबानी के साम्राज्य की वृद्धि दर की चर्चा तो हम अख़बारों में अक्सर पढ़ते रहते हैं.
बहुत कुछ ऐसा है जो अब आश्चर्य की हदों के पार जा चुका है. हमारी पीढ़ी अब अधिक आश्चर्य नहीं करती कि कितनी तेजी से सरकारी संपत्तियों को बेचा जा रहा है. गौर करने की बात यह भी है कि किन हाथों में, किन शर्त्तों पर बेचा जा रहा है.
आम लोग इन मुद्दों से जितने असंपृक्त आज हैं, ऐसा अतीत में कभी नहीं हुआ. आत्मलीन मध्यवर्ग, मूढ़ता का शिकार निम्नवर्ग और निरन्तर समृद्ध और अधिक समृद्ध होता उच्च वर्ग.
हमारे सामने हमारे बच्चों का भविष्य गिरवी रखा जा रहा है और हम आत्मलीन मूढ़ता के शिकार हो राम मंदिर हेतु भूमि पूजन के दिन ज्योति पर्व मनाने के लिये दीया-बाती के इंतजाम में लगे हैं.
हमें तैयार रहना होगा निजी ट्रेनों का मनमाना किराया भरने के लिये, निजी अस्पतालों की मनमानी फीस भरने के लिये और निजी शिक्षा संस्थानों की मनमानी लूट का शिकार होने के लिये.
नई शिक्षा नीति में जो सरकार कह रही है कि वह निजी संस्थानों की अधिकतम फीस की सीमा तय करेगी, यह भ्रामक बकवास के सिवा कुछ भी नहीं. जो सरकार निजी अस्पतालों की लूट पर कोई अंकुश नहीं लगा सकी, मरीजों के इलाज के नाम पर अस्पताल व्यवसायियों के गिद्ध बन जाने पर कोई नियंत्रण स्थापित न कर सकी, वह निजी शिक्षा संस्थानों की फीस की सीमा तय करेगी, यह सोचना भी व्यर्थ है.
यह भी समय का एक चक्र है जब हमारी मूढ़ पीढ़ी अपना सब कुछ गंवा रही है और अपने बच्चों के भावी जीवन को जटिल बना रही है. निजी स्कूलों और अस्पतालों के कर्मचारियों की हालत देख लीजिये, और, तैयार रहिये कि रेलवे के निजी तंत्र में कर्मियों की क्या फ़ज़ीहतें होने वाली हैं. आज की पीढ़ी का हर बाप अपने बच्चों के प्रति गुनहगार है.
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