हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
तो क्या अब यह मान लिया गया है कि नरेंद्र मोदी से रोजगार और अर्थव्यवस्था संबंधी उम्मीदें पालनी ही नहीं चाहिये ? क्योंकि, जैसा कि बीबीसी की हालिया रिपोर्ट बताती है, उनके अधिकतर समर्थकों का मानना है कि वे तो ‘बड़े काम करने आये हैं.’
‘बड़े काम… ?’
कौन इस शब्द को परिभाषित करेगा ? जाहिर है, लोकतंत्र में बहुसंख्यक मतदाता जिसे अधिक महत्वपूर्ण मानें, वही बड़ा काम है.
लेकिन, रोजगार और अर्थव्यवस्था जैसे कुछ ‘छोटे काम’ भी ऐसे हैं जो जीवन की गाड़ी चलाने के लिये ऑक्सीजन की तरह अनिवार्य हैं. अगर कोई सत्तासीन राजनेता इन मामलों में बेहद लचर प्रर्दशन करता है तो फिर उसका मूल्यांकन कैसे हो ?
क्या उन ‘बड़े कामों’ को लेकर ही किसी प्रधानमंत्री को सफल मान लिया जाए, जिनकी कोई प्रभावी भूमिका आम लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने में न हो ?
नहीं, नहीं मान सकते.
आप किसी प्रधानमंत्री के छह-सात वर्षों के कार्यकाल को सफल कैसे मान सकते हैं, जब रोजगार की स्थिति कई दशकों में सबसे बुरी हो गई हो और अर्थव्यवस्था निरन्तर नकारात्मकताओं के गोते लगा रही हो ?
आप कितना भी नारे लगा लो, दीप जला लो, सड़कों पर उछल-कूद मचा लो…आप रोजगार और आर्थिक सवालों से बच नहीं सकते. आपकी बेरोजगारी आपके सामने खड़ा सबसे बड़ा सवाल है. आपको इससे जूझना ही होगा.
और, जो सत्ताधारी राजनेता आपके अस्तित्व से जुड़े वास्तविक सवालों का जवाब खोजने में आपकी मदद नहीं करता तो उसकी सफलता संदिग्ध है.
अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार की छवि ऐसी बनती जाती है कि ये लोग और चाहे जितने ‘बड़े-बड़े काम’ कर लें, अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से जूझना इनके बस में नहीं…तो यह भाजपा के दीर्घकालिक राजनीतिक हितों पर बेहद नकारात्मक असर डालेगा.
और…ऐसी छवि तो बनती जा रही है.
छह साल कम नहीं होते. इस अवधि में मोदी राज की आर्थिक सफलताओं-विफलताओं का मूल्यांकन कर लें. आंकड़ों की बाजीगरी, बातों के बड़े-बड़े लच्छे आदि एक तरफ, जमीन सूंघते आर्थिक मानक दूसरी तरफ.
कोई कितना भी ताकतवर हो, सूचना के स्रोतों पर कोई कितनी भी पहरेदारी बिठा दे, सच पर पर्दा डालने के लिये आंकड़ों में चाहे जितने उलटफेर करता रहे, सूचना क्रांति के इस युग में सूचनाओं को एक हद से अधिक दबाया नहीं जा सकता.
मोदी राज में अर्थव्यवस्था की सेहत से जुड़ी सूचनाएं बेहद हतोत्साहित करने वाली रही हैं. नहीं, कोरोना कोई बहाना नहीं हो सकता. इस संकट के शुरू होने से पहले ही बेरोजगारी और आर्थिक गिरावटों के डरावने आंकड़े सामने आ चुके थे.
जनवरी-फरवरी, 2020 के दौरान ही भारत में बेरोजगारी 45 वर्षों के उच्चतम स्तरों पर थी. उधर, आर्थिक विकास की दर गिरनी शुरू हुई तो उठने का नाम ही नहीं ले रही थी. तभी, कोरोना आ गया. सरकार को एक बहाना तो मिल ही गया.
लेकिन, बात नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता के चरित्र की है. यह तो पहले ही एक्सपोज हो चुका है. दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों ने स्वीकार किया कि भारत की अर्थव्यवस्था गिरती ही जा रही है. अब कारण नोटबन्दी और जीएसटी आदि में तलाशें या इस तथ्य को स्वीकार करें कि भावनाओं की राजनीति में माहिर नेता के बस में अर्थव्यवस्था जैसे जटिल मसले नहीं हैं.
हमारा जीवन किसी मंदिर की भव्यता पर निर्भर नहीं करता, न ही किसी उपद्रवग्रस्त राज्य की राजनीतिक स्थिति के बदलने से हमारा जीवन बदलने वाला है. यह तो सरकार की आर्थिक नीतियों और उनके क्रियान्वयन से ही बदलेगा.
कोई नेता अपने एक-दो कार्यकाल में उमड़ती हुई जनभावनाओं की लहरों पर सवार होकर किन्हीं खास अर्थों में लोकप्रिय साबित हो सकता है, चुनावों में अपनी सफलता दुहरा सकता है लेकिन, ऐसा कर वह अपनी पार्टी की दीर्घकालीन राजनीतिक प्रासंगिकता को भी खतरे में डाल रहा होता है.
आप भारत जैसे निर्धन बहुल, विशाल देश में भावनाओं की लहरों पर कब तक सवारी करते रहे सकते हैं ? पांच बरस, दस बरस…, इससे अधिक नहीं. फिर, जब आप ऊंचाई से गिरेंगे तो कोई नामलेवा नहीं बचेगा.
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