हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
‘टू वंजा टू, टू टूजा फोर…’ के बदले अपने बच्चों को ‘दो एक्का दो, दो दूनी चार…’ की रट लगाते देख मध्यवर्गीय मॉम-डैड सदमा बर्दाश्त कर पाएंगे ? नहीं न…? तो फिर निम्न मध्य वर्ग के मम्मी-पापा आखिर कैसे सहन करेंगे कि जिस बच्चे की महंगी स्कूल फीस जुटाने के लिये उन्हें जाने कितनी जरूरतों को दरकिनार करना पड़ता है, वे पहली-दूसरी क्लास में ही ‘पोयम’ के बदले ‘कविता’ याद करने लगें और ‘गौतम बुद्धा’ को गौतम बुद्ध कहने लगे जाएं ?
जाहिर है, नई शिक्षा नीति के इस बहुप्रचारित आयाम कि पांचवी क्लास तक की शिक्षा का माध्यम ‘अनिवार्य रूप से’ मातृभाषा को बनाया जाएगा और आठवीं क्लास तक इस माध्यम को ही प्रोत्साहित किया जाएगा, की बैंड शुरू से ही बजना तय है.
बाजारवादी व्यवस्था में आप बाजार और मांग के बीच एक सीमा से अधिक नहीं आ सकते. खास कर तब, जब आप किसी तंत्र को बाजार के ही अधिकाधिक हवाले करते जा रहे हैं. शिक्षा शास्त्रीय तथ्य, विभिन्न आयोगों की रिपोर्ट्स, बच्चों की भावनात्मक कठिनाइयां, सांस्कृतिक अंतर्विरोध आदि के सवाल एक तरफ, करियर में अंग्रेजी की असंदिग्ध महत्ता की स्थापना दूसरी तरफ. जाहिर है, अंग्रेजी के प्रति भारत के अधिकतर हिस्से का मनोविज्ञान इस कारण बहुत प्रभावित हुआ है.
आप सिर्फ नीतियां बना कर उन प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगा सकते जो हमारी सांस्कृतिक पराजय और मनोवैज्ञानिक जटिलताओं से उपजी हैं. अंग्रेजी अगर आगे बढ़ने की अनिवार्य शर्त्त है तो फिर इसको लेकर भेड़-चाल होना भी प्रायः अनिवार्य ही है.
वैसे सरकारों की इच्छाशक्ति भी होती है, जो उनकी नीतियों को प्रभावी बनाती हैं लेकिन, इस बात में गहरे संदेह हैं कि अति महंगे, जिन्हें इलीट स्कूल कहा जाता है, को पहली कक्षा से ही पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी रखने में सरकारें अधिक रोक-टोक करें. नीतियों का क्या है ? वे सरकारी संस्थानों पर तो लागू होती ही हैं, होती रहेंगी.
वैसे भी, नई शिक्षा नीति में प्राइवेट तंत्र को और अधिक ताकतवर बनाया जा रहा है. उन्हें अकादमिक स्वायत्तता ही नहीं, और अधिक संरचनात्मक स्वायत्तता भी देने की बातें हो रही हैं. कहा जा रहा है कि सरकार अधिकतम फीस की सीमा तय करेगी. लेकिन, यहां फिर बाज़ार आड़े आएगा.
आप यह अंतिम तौर पर तय नहीं कर सकते कि मुनाफा आधारित कोई संस्थान दी गई सेवा या सुविधा के बदले में अपने ग्राहक से अधिकतम कितना और कितने तरह के शुल्क ले सकता है, खास कर तब, जब ग्राहक खुशी-खुशी देने को तैयार हो बल्कि बोली तक लगाने को तैयार हो.
एक साथ दो परस्पर विरोधी बातें कैसे हो सकती हैं ? आप शिक्षा का व्यवसायीकरण भी करते जाएं, शिक्षा के व्यावसायिक तंत्र को बेलगाम बनने की हद तक ताकतवर भी बनाते जाएं और यह उम्मीद भी करें कि वह फीस नियंत्रण के सरकारी पत्रों का अक्षरशः पालन भी करे ?
जो सिस्टम निजी अस्पतालों की लूट पर कभी अंकुश नहीं लगा सका, वह निजी शिक्षा संस्थानों को कितना नियंत्रित कर पाएगा ! वैसे, किसी भी नई चीज को सामने लाने का अपना सरकारी तरीका होता है, ऐसी शब्दावली में इस तरह बताया जाता है कि भ्रम होने लगता है लेकिन, मामला इतना सादा नहीं होता.
मसलन, कुछ सरकारी संस्थानों को ‘स्वायत्त’ बनाने की बातों को लें. यह आकर्षक शब्द तब डरावना लगने लगता है जब पता चलता है कि तथाकथित स्वायत्तता के बाद ये सरकारी संस्थान भी अनेक अर्थों में प्राइवेट टाइप के ही हो जाएंगे महंगे…आम लोगों से दूर…समृद्ध तबकों के लिये रिजर्व टाइप.
संरचनात्मक स्तर पर यह नई शिक्षा नीति बीते दशकों से चली आ रही शिक्षा के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया में अगली लंबी और साहसिक छलांग है. ऐसी ही लंबी और साहसिक छलांगों के लिये नरेंद्र मोदी की सरकार की आलोचना भी होती है, प्रशंसा भी होती है.
जब रेलवे तक के निजीकरण की प्रकिया शुरू हो सकती है, आयुष्मान योजना के माध्यम से स्वास्थ्य तंत्र के निजी स्वरूप को और अधिक व्यापक बनाने की नीति बन सकती हो तो…शिक्षा में निजी पूंजी को और अधिक अवसर, और अधिक ताकत देने में आश्चर्य कैसा ?
भारत सिर्फ मोबाइल का ही नहीं, शिक्षा का भी बहुत बड़ा बाजार है. अब, इतने बड़े बाजार को, जिसमें मांग कम होने का सवाल ही नहीं, कारपोरेट खुद की झोली में नहीं डाल सके तो काहे का कारपोरेट राज !
और, बात जब कारपोरेट राज की हो, तो नरेंद्र मोदी तो उसके राजनीतिक ध्वजवाहक ही हैं. जाहिर है, नई शिक्षा नीति आने वाले भारत की नई कहानी रचने में कारपोरेट शक्तियों के लिये बहुत उपयोगी साबित होगी.
समृद्ध तबकों के लिये संभावनाओं के द्वार और अधिक चौड़े, और अधिक ऊंचे होंगे, वंचित तबकों के लिये तो छठी क्लास से ही स्किल डेवलपमेंट के लिये वोकेशनल कोर्सेज की शुरुआत की जाएगी. कह सकते हैं कि यह शिक्षा नीति हमारे समाज के बदलते अक्स का ही एक अध्याय है. अवसरों की छीना झपटी में समृद्ध और ताकतवर वर्गों का बढ़ता एकाधिकार.
कई आयाम हैं इन नीतियों के. अभी तो चर्चाएं होंगी, बातें सामने आएगी. सरकार को जो करना है करेगी, लेकिन विमर्श तो होंगे. बहरहाल, साइंस, आर्ट्स, कामर्स आदि की सीमा-रेखाओं को शिथिल किया जाना स्वागत योग्य कदम है.
स्वागत योग्य तो यह भी है कि जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का संकल्प है, लेकिन, इसमें आंकड़ों की चतुराई का मामला लगता है. खास कर यह देखते हुए कि आंगनवाड़ी के बच्चों को औपचारिक शिक्षा संरचना में लाने की बातें की गई हैं, जिन पर पहले से ही तय बजट खर्च होता रहा है. आंकड़ों को प्रस्तुत करने में सिस्टम ने मोदी राज में जितनी चतुराई हासिल की है, उसकी भी मिसाल नहीं.
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