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पढ़े-लिखे धार्मिक डरपोक अब पाखंडी लोगों की जमात में बदल रहे हैं

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पढ़े-लिखे धार्मिक डरपोक अब पाखंडी लोगों की जमात में बदल रहे हैं

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

तथाकथित धर्मावलंबियों का ‘धंधा’ आजकल कुछ ज्यादा ही तेजी से फल-फूल रहा है. काल्पनिक सुदूर काल से स्थापित ये लोग धर्म और देशभक्ति की सीढ़ी बनाकर भोग-अभिलाषा में डूबकर विलासपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं. यह धंधा बिना खास निवेश के इतना चोखा हो गया है कि अब इंजीनियरिंग, मेडिकल और साइंस की डिग्रियां लेने वाले पढ़े-लिखे लोग भी धार्मिक प्रवचन का प्रशिक्षण ले रहे हैं और सफल हो रहे हैं. और ये पढ़े-लिखे धार्मिक डरपोक अब पाखंडी लोगों की जमात में परिवर्तित होते जा रहे हैं.

इनमें से कितने ही तो योग और कितने ही आयुर्वेद का सहारा लेकर धर्म की चाशनी में लिपटे सफल व्यापारी बन चुके हैं. कितने तो ‘कास्मेटिक्स’ तक बेचने लगे हैं और कुछ ने तो किसी भी आशंका से आगे जाकर यह सिद्ध कर दिया कि इस देश के लोग जबरदस्त ‘लालची’ (अपनी क्षमता और कर्तव्य से बहुत ज्यादा की चाहत रखने वाले) हैं. कितने तो रंग-बिरंगी चटनियां खिला कर लोगों के न सिर्फ दु:ख दूर कर रहे हैं बल्कि उन्हें खूब धनवान भी बना रहे हैं.

वैसे भी आजकल भारत में कृत्रिम धर्मोंं का बड़ा जोर है और धार्मिक आधार पर ही भगवा आंतकवाद, जिहाद और भी न जाने क्या-क्या चीज़ें धर्म के नाम पर प्रचलित हो गयी है क्योंकि गाहे-बगाहे सुनते रहते है कि फलां धर्म पर किसी दूसरी कौम से खतरा मंडरा रहा हैं. इसीलिये वो कभी गायों के नाम पर तो कभी धर्म को बचाने के नाम पर हिंसा करते हैं और कहते हैं ‘धर्मों रक्षति रक्षतः’ अर्थात धर्म की रक्षा ही तुम्हारी सुरक्षा है. अथवा तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा…आदि इत्यादि.

इसी तरह का एक दूसरा धर्म भी है जो हमेशा या तो खतने में रहता है या फिर हमेशा खतरे में रहता हैं. पता नहीं उसे किस बात से खतरा रहता है ? पर यह तो तय है कि जो काल्पनिक आधार वाले धर्म हैं, वे हमेशा डर का धंधा करते हैं ताकि उनके अनुयायी डरकर धार्मिक बने रहे और धर्म के नाम पर उनसे कुछ भी करवाया जा सके. हांं, धर्म बचाने के नाम पर इस धर्म में तो जिहाद के नाम पर अनुयायी को मानव बम भी बनाया जाता है.

लोगों को समझना होगा कि असल धर्म ये नहीं है जबकि आजकल इन तथाकथित पाखंडी ज्ञानियों के कारण से आम प्रचलित मान्यता ये हो गयी है कि पंथ या सम्प्रदाय या समुदाय ही धर्म है. मुर्ख और अज्ञानी लोगों ने इसे मान भी लिया है और निकल पड़े धर्म की रक्षा करने भाले और तलवारों के साथ …, जबकि वास्तव में जिस धर्म की बात असली ज्ञानियों ने शास्त्रों में की थी, उसे कभी ये धर्म के फर्जी ठेकेदार समझ ही नहीं पाये.

शास्त्रों के अनुसार धर्म का अर्थ है. व्यक्ति का स्वाभाविक कर्तव्य अथवा अन्य के प्रति उत्तरदायित्व अर्थात ‘वह गुण, व्यवहार या फर्ज जो अनुकूल है और जिसे स्वेच्छा से स्वीकार किया गया है, उसे धर्म कहा गया था, मगर उसे करने की बाध्यता नहीं थी. बल्कि ये अनुकूलता और ऐच्छिकता पर निर्भर था और उसका किसी कथित भगवान अल्लाह या ईश्वर से कोई संबंध नहीं था.

  • अर्थात ‘यदि आप सैनिक हो तो सीमा की सुरक्षा करना और सुरक्षा करते हुए या तो अपने प्राणों की आहुति देना या शत्रु के प्राण लेकर भी देश की सीमाओं की सुरक्षा करना आपका धर्म है.
  • ‘यदि आप पुलिस हो तो सभी नागरिको के हितार्थ नगरीय शांति बनाये रखने के लिये अपराधियों को पकड़कर उचित दंड दिलवाना आपका धर्म है.’
  • ‘यदि आप वकील हो तो पीड़ित को न्याय दिलवाने में सहायता करना आपका धर्म है’
  • ‘यदि आप जज हो तो उचित न्याय देना ही आपका धर्म है.’

इसी तरह पति-धर्म, पत्नी धर्म, पिता-धर्म, पुत्र-धर्म, राष्ट्र-धर्म, प्रजा-धर्म … ये सारे धर्म ही हैं, जिसकी रक्षा करने को शास्त्रों में कहा गया. क्योंकि इनकी रक्षा में ही तुम्हारी सुरक्षा है और सुरक्षा है तो समाज है, समाज है तो ये तुम्हारा संप्रदाय या समुदाय है लेकिन आजकल तो समुदायवर्ती क्रिया-कलापों और फर्जी राष्ट्रवाद को ही सर्वोपरि धर्म बना दिया गया है और कम्युनिटी विशेष, नेता विशेष, पार्टी विशेष, समूह विशेष इत्यादि के प्रति जबरन समर्थन या वफादारी को भी राष्ट्रवाद या राष्ट्र धर्म के साथ जोड़ दिया गया है.

जबकि राष्ट्र धर्म का सरल शब्दों में रूपांतरण किया जाये तो ‘प्राणी मात्र’ के सृष्टिगत (प्राकृतिक) अधिकारों की रक्षा करना, राष्ट्र धर्म कहलाता है और अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए ईमानदार जीवन यापन करना प्रजा धर्म कहलाता है लेकिन आजकल हो क्या रहा है ? ‘अन्धी प्रजा का काणा राजा’ वाली लोकोक्ति चरितार्थ हो रही है.’

पाखंडी समुदायों के नाम पर बनाये गये सिद्धांतों को धर्म का प्रारूप मान लिया गया है और किसी एक सन्देष्टा को उठाकर उसका कर्ता नियत करके उसे ईश्वर, गॉड या भगवान बना दिया गया है. तथा कुछ में तो उस सन्देष्टा का असल रूप भी हटाकर उसे निराकार कहकर उसके नाम पर बनाये गये सिद्धांतों को धर्म बनाकर हिंसा की जाती है.

मैंने आज तक किसी ओरिजनल लिपी में नहीं पढ़ा और न ही किसी वास्तविक ज्ञानी के मुंह से ये सुना कि किसी भी धर्म प्रवर्तक, उपदेष्टा या सन्देष्टा ने धर्म के नाम पर की गयी हिंसा को जायज कहा हो. सभी ने धर्म का प्राण अहिंसा ही कहा है और जिसने भी हिंसा को धर्म कहा था/है, वह असल में धर्म का पोषक नहीं बल्कि धार्मिक पाखंडी था/है. जो अपने जैसी ही मान्यता वालों को एकत्रित कर उनका सन्देष्टा बन अपनी मानसिकता को ही पाखंडी धर्म बनाकर पेश कर दिया.

हम सभी नागरिकों, संरक्षकों या प्रशासकों को इन पाखंडी धर्मोंं की रक्षा के बजाय इनका नाश करना चाहिये, फिर भले ही कोई हमे अधर्मी कहे मगर हम सभी को दृढ़ता के साथ धर्म में राजनीती और राजनीती में धर्म के इस मिश्रण का खत्म करने का प्रयास जरूर करना पड़ेगा क्योंकि हमेशा याद रखिये कि राजनीती धर्म नहीं क्रिया है. इसलिये इसकी पूर्णता हिंसा से होती है जबकि अपने अपने कर्तव्य ईमानदारी से पालन करना धर्म होता है और इसलिये ही जब हम कोई उत्तरदायित्व निभाते हैं, तब उसमें जिम्मेदारी के साथ-साथ प्रेम और अहिंसा का भी अहसास होता है.

आज के पाखंडी धर्मगुरु मुर्ख बना रहे हैं लोगों को. ये धर्म के नाम पर धन इकट्ठा करते हैं और जब-जब ये लोग अपना धन खतरे में देखते हैं तब-तब धर्म की रक्षा की दुहाई देने लगते हैं. धर्म के नाम पर हिंसा करवाते हैं और उसे जायज भी ठहराने की कोशिश करते हैं. इसलिये इसे अच्छे से समझ लीजिये कि जब ये कहे कि धर्म खतरे में हैं तो वास्तव में इनका मतलब होता है कि इनका धन खतरे में हैं क्योंकि वही धन तो इनकी अय्याशियों में कारणभूत है. अतः वह धन जो मंदिरों-मस्जिदों और मठों में आना चाहिये था, जब वह कहीं और जाने लगता है तो धर्म खतरे में आ जाता है.

आज राममंदिर बनाने के नाम पर वर्षों से एकत्रित धन का इन्वेस्ट किया जा रहा है और भव्यातिभव्य मंदिर बनाने की बात कही जा रही है. कोई तो सोने का बनाने का बोल रहा है और तथाकथित ठेकेदारों का ब्रांडनेम उसमें चांदी की ईंट से शिलान्यास करने 200 विशेष लोगों को आमंत्रण भेज रहा है. यह सब दिखावा इसीलिये ताकि मंदिर बनने में जो धन इन्वेस्ट हुआ है, वो एक साल के अंदर वापिस वसूल हो जाये और मस्जिद तोड़कर बनाये गये इस मंदिर और उसके आसपास की जमीन पर उनका कब्ज़ा तो रहेगा ही, सो वहां से भी व्यपार चालू रहेगा, जिसमें पूजा सामग्री से लेकर धर्मशाला में ठहरने तक का खर्च शामिल कर कालांतर तक आपसे वसूला जायेगा.

यही धर्म के ठेकेदार जब कोई किसान आत्महत्या करता है या कोई प्राकृतिक आपदा-विपदा आती है, तब मनुष्य को कीड़ा-मकोड़ा समझ कर भूल जाते हैं और हर साल हज़ारों-लाखों लोग पलायन को मजबूर होते हैं लेकिन उन्हें फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इनके लिये तो वो अवसर होता है और संबंधित क्षेत्र के वे ठेकेदार उन जमीनों पर कब्ज़ा कर लेते हैं, जहांं से लोगों का पलायन होता है. फिर बचे लोगों को धमकाकर या डराकर भगा दिया जाता है ताकि बाकी की जमीन भी कब्जाई जा सके. जो नहीं जाता उसे मार दिया जाता है. और फिर उस बड़ी जमीन पर एक बड़ा प्रोजेक्ट निकलता है जो या तो धार्मिक होता है या राजनैतिक जो संबंधित भू-माफियाओं से लेकर कार्पोरेट्स तक को फायदा पहुंचाता है. ये खेल निरंतर जारी रहता है. प्राकृतिक आपदा (बाढ़, भूकंप वगैरह) आती है तो क्या आपने कभी सुना कि धर्म के इन ठेकेदारों ने कभी सहायतार्थ कोष दान किया हो ?

जबकि असल में उस समय उस एकत्रित धार्मिक संग्रह (धर्म के नाम पर संग्रहित धन/भूमि इत्यादि) से उन लाचार लोगों की सहायता करे. उन पलायित होने वाले लोगों को ऐसी भूमि पर प्रस्थापित करें, जिससे उन्हें उन सालाना आपदाओं (बाढ़, भूस्खलन, भूकंप इत्यादि) के प्रकोपों से मुक्ति मिले और इसके लिये वो उस भूमि और धन का प्रयोग करे जो उन्होंंने ही धर्म के नाम पर एकत्रित कर संग्रह कर रखा है.

लेकिन तब इनको धर्म याद नहीं आता और न ही धर्म खतरे में आता है जबकि असल में मंदिरों में भंडार, मस्जिदों में ज़कात इत्यादि की व्यवस्था सिर्फ इसलिये बनायी गयी थी कि किसी एक पर किसी दूसरे का भार न पड़े और समाज में किसी भी वंचित को वांछित धन दिया जा सके. मगर अब तो धर्म के ठेकेदार इन पर नागनाथ और सांपनाथ बनकर बैठे हैं और वंचित तो छोड़िये, विपदा के समय भी एक पैसा नहीं निकालने देते. उल्टे धनों की और ज्यादा उगाही करने लगते हैं या सरकारी खजाने से अपनी आपूर्ति की मांग करने लगते हैं. कोरोना काल के समय यह साफ तौर पर दीखा जब सरकारी खजाने से धन की मांग की गई.

असल में इन लोगों को सिर्फ अपनी अय्याशियों की चिंता होती है और जब अय्याशियों के लिये धन एकत्रित करना हो तो फिर ये सड़कों पर धर्म की रक्षा करने लाठी और भाला लेकर निकल पड़ते हैं. और इनके साथ चलते हैं वे मुर्ख अंधश्रद्धावान आस्तिक लोग जो बिना अपने दिमाग का इस्तेमाल किये कुछ भी करने को तैयार होते हैं. वैसे भी इस पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा धार्मिक मुर्ख भारत में ही है जो धर्म के नाम पर गोबर और गौमूत्र तक खरीद लेते हैं और गाय जैसे किसी जानवर के लिये भी धर्म के नाम पर या काल्पनिक छवियों वाले ईशनिंदा कानून के नाम पर जिन्दा इंसानों को मार देते हैं.

और जब ऐसे ही किसी धर्म के नाम पर मंदिर-मस्जिद का निर्माण किया जाता है (जो कि असल में उन धार्मिक ठेकेदारों का इन्वेस्टमेंट होता है, जिससे उनकी आवक बढे) तो अपने घर-बार और जेवर तक बेचकर ऐसे धार्मिक मुर्ख अपनी जीवन की जमा-पूंजी लुटा देते हैं और उन्हें पता भी नहीं चलता कि वे ठगे जा चुके हैं. ऐसे मूर्खतापूर्ण पागलपन वाला धर्म देखकर तो उस ईश्वर-अल्लाह और गॉड ने (अगर सच में उनका अस्तित्व है तो) ऊपर आसमान में जरूर आत्महत्या कर ली होगी.

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ROHIT SHARMA

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