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भगत सिंह के लेख ‘पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या’ के आलोक में हिन्दी

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पिछले दिनों विभिन्न मीडिया में खबरें छायी हुई थी ‘हिन्दी के सबसे बड़े प्रदेश, उत्तर प्रदेश में हिन्दी विषय में 8 लाख छात्र फेल.’ यह खबर हिन्दी साहित्यवेत्ताओं के माथे पर अगर शिकन नहीं डालती है तो निःसंदेह हिन्दी का भविष्य खतरे में है.

भाषा के तौर पर हिन्दी देश की लोकप्रिय भाषा जरूर है परन्तु आज यह दुर्गति के जिस मोड़ पर पहुंच गई है, उसके लिए हिन्दी के वर्तमान साहित्यकार और इसकी जटिलताएं जिम्मेदार हैं, जिसे सभ्रांत कहे जाने वाले ‘साहित्यकार’ ने अंधकूप में धकेलने का प्रयास किया है.

आज हिन्दी जिस स्थिति में पहुंच गई है, कभी पंजाबी साहित्य भी वैसे ही संकट के दौर से गुजर रही थी, जब वह अपनी लिपि का चयन कर रहा था. 1924 के दौरान पंजाब में भाषा-विवाद चल रहा था. पंजाबी भाषा की लिपि के प्रश्न पर उर्दू और हिन्दी के पक्षधरों में बहस जारी थीे. भगत सिंह भी इस बहस पर अपने विचार बनाने लगे थे. पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या पर यह लेख उन्होंने पंजाब हिन्दी साहित्य सम्मेलन के आमन्त्रण पर लिखा था और अव्वल मानकर सम्मेलन ने इस पर ₹50/- का ईनाम भी दिया था.

भगत सिंह का यह लेख सम्मेलन के प्रधानमन्त्री श्री भीमसेन विद्यालंकार ने सुरक्षित रखा और भगत सिंह के बलिदान के बाद 28 फरवरी, 1933 के ‘हिन्दी सन्देश’ में प्रकाशित किया. भगत सिंह का यह लेख हिन्दी भाषा की मौजूदा दुर्गति को देखते हुए समीचीन है. हिन्दी के साहित्यकारों को इस पर ध्यान देते हुए खुले दिमाग से विचार करना चाहिए, ताकि हिन्दी भाषा डर और बोरियत की कूप से निकल कर अपनी वास्तविक स्वरूप को ग्रहण कर सके. – सम्पादक

भगत सिंह के लेख 'पंजाब की भाषा और लिपि की समस्या' के आलोक में हिन्दी

‘किसी समाज अथवा देश को पहचानने के लिए उस समाज अथवा देश के साहित्य से परिचित होने की परमावश्यकता होती है, क्योंकि समाज के प्राणों की चेतना उस समाज के साहित्य में भी प्रतिच्छवित हुआ करती है.’

उपरोक्त कथन की सत्यता का इतिहास साक्षी है. जिस देश के साहित्य का प्रवाह जिस ओर बहा, ठीक उसी ओर वह देश भी अग्रसर होता रहा. किसी भी जाति के उत्थान के लिए ऊंचे साहित्य की आवश्यकता हुआ करती है. ज्यों-ज्यों देश का साहित्य ऊंचा होता जाता है, त्यों-त्यों देश भी उन्नति करता जाता है. देशभक्त, चाहे वे निरे समाज-सुधारक हों अथवा राजनीतिक नेता, सबसे अधिक ध्यान देश के साहित्य की ओर दिया करते हैं. यदि वे सामाजिक समस्याओं तथा परिस्थितियों के अनुसार नवीन साहित्य की सृष्टि न करें तो उनके सब प्रयत्न निष्फल हो जायें और उनके कार्य स्थायी न हो पायें.

शायद गैरीबाल्डी को इतनी जल्दी सेनाएं न मिल पातीं, यदि मेजिनी ने 30 वर्ष देश में साहित्य तथा साहित्यिक जागृति पैदा करने में ही न लगा दिये होते. आयरलैण्ड के पुनरुत्थान के साथ गैलिक भाषा के पुनरुत्थान का प्रयत्न भी उसी वेग से किया गया. शासक लोग आयरिश लोगों को दबाये रखने के लिए उनकी भाषा का दमन करना इतना आवश्यक समझते थे कि गैलिक भाषा की एक-आध कविता रखने के कारण छोटे-छोटे बच्चों तक को दण्डित किया जाता था. रूसो, वाल्टेयर के साहित्य के बिना फ्रांस की राज्यक्रान्ति घटित न हो पाती. यदि  टालस्टाय, कार्ल मार्क्स तथा मैक्सिम गोर्की इत्यादि ने नवीन साहित्य पैदा करने में वर्षों व्यतीत न कर दिये होते, तो रूस की क्रान्ति न हो पाती, साम्यवाद का प्रचार तथा व्यवहार तो दूर रहा.

यही दशा हम सामाजिक तथा धार्मिक सुधारकों में देख पाते हैं. कबीर के साहित्य के कारण उनके भावों का स्थायी प्रभाव दीख पड़ता है. आज तक उनकी मधुर तथा सरस कविताओं को सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं.

ठीक यही बात गुरु नानकदेव जी के विषय में भी कही जा सकती है. सिक्ख गुरुओं ने अपने मत के प्रचार के साथ जब नवीन सम्प्रदाय स्थापित करना शुरू किया, उस समय उन्होंने नवीन साहित्य की आवश्यकता भी अनुभव की और इसी विचार से गुरु अंगददेव जी ने गुरुमुखी लिपि बनायी. शताब्दियों तक निरन्तर युद्ध और मुसलमानों के आक्रमणों के कारण पंजाब में साहित्य की कमी हो गयी थी. हिन्दी भाषा का भी लोप-सा हो गया था. इस समय किसी भारतीय लिपि को ही अपनाने के लिए उन्होंने कश्मीरी लिपि को अपना लिया. तत्पश्चात गुरु अर्जुनदेव जी तथा भाई गुरुदास जी के प्रयत्न से आदिग्रन्थ का संकलन हुआ. अपनी लिपि तथा अपना साहित्य बनाकर अपने मत को स्थायी रूप देने में उन्होंने यह बहुत प्रभावशाली तथा उपयोगी कदम उठाया था.

उसके बाद ज्यों-ज्यों परिस्थिति बदलती गयी, त्यों-त्यों साहित्य का प्रवाह भी बदलता गया. गुरुओं के निरन्तर बलिदानों तथा कष्ट-सहन से परिस्थिति बदलती गयी. जहां हम प्रथम गुरु के उपदेश में भक्ति तथा आत्मविस्मृति के भाव सुनते हैं और निम्नलिखित पद में कमाल आजिज़ी का भाव पाते हैं :

नानक नन्हे हो रहे, जैसी नन्हीं दूब।
और घास जरि जात है, दूब ख़ूब की ख़ूब।।

वहीं पर हम नवें गुरु श्री तेगबहादुर जी के उपदेश में पददलित लोगों की हमदर्दी तथा उनकी सहायता के भाव पाते हैं :

बाँहि जिन्हाँ दी पकड़िये, सिर दीजिये बाँहि न छोड़िये।
गुरु तेगबहादुर बोलया, धरती पै धर्म न छोड़िये।।

उनके बलिदान के बाद हम एकाएक गुरु गोविन्द सिंह जी के उपदेश में क्षात्र धर्म का भाव पाते हैं. जब उन्होंने देखा कि अब केवल भक्ति-भाव से ही काम न चलेगा, तो उन्होंने चण्डी की पूजा भी प्रारम्भ की और भक्ति तथा क्षात्र धर्म का समावेश कर सिक्ख समुदाय को भक्तों तथा योद्धाओं का समूह बना दिया. उनकी कविता (साहित्य) में हम नवीन भाव देखते हैं.

वे लिखते हैं:

जे तोहि प्रेम खेलण का चाव, सिर धर तली गली मोरी आव।
जे इत मारग पैर धरीजै, सिर दीजै कांण न कीजै।।

और फिर –

सूरा सो पहिचानिये, जो लड़ै दीन के हेत।
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरै, कभूँ न छाँड़ै खेत।।

और फिर एकाएक खड्ग की पूजा प्रारम्भ हो जाती है.

खग खण्ड विहण्ड, खल दल खण्ड अति रन मण्ड प्रखण्ड।
भुज दण्ड अखण्ड, तेज प्रचण्ड जोति अभण्ड भानुप्रभं।।

उन्हीं भावों को लेकर बाबा बन्दा आदि मुसलमानों के विरुद्ध निरन्तर युद्ध करते रहे, परन्तु उसके बाद हम देखते हैं कि जब सिक्ख सम्प्रदाय केवल अराजकों का एक समूह रह जाता है और जब वे ग़ैर-कानूनी (Outlaw) घोषित कर दिये जाते हैं, तब उन्हें निरन्तर जंगलों में ही रहना पड़ता है. अब इस समय नवीन साहित्य की सृष्टि नहीं हो सकी. उनमें नवीन भाव नहीं भरे जा सके. उनमें क्षात्र-वृत्ति थी, वीरत्व तथा बलिदान का भाव था और मुसलमान शासकों के विरुद्ध (Outlaw) युद्ध करते रहने का भाव था, परन्तु उसके बाद क्या करना होगा, यह वे भली-भांति नहीं समझे. तभी तो उन वीर योद्धाओं के समूह (felysa) आपस में भिड़ गये. यहीं पर सामयिक भावों की त्रुटि बुरी तरह अखरती है. यदि बाद में रणजीत सिंह जैसा वीर योद्धा और चालाक शासक न निकल आता, तो सिक्खों को एकत्रित करने के लिए कोई उच्च आदर्श अथवा भाव शेष न रह गया था.

इन सबके साथ एक बात और भी ख़ास ध्यान देने योग्य है. संस्कृत का सारा साहित्य हिन्दू समाज को पुनर्जीवित न कर सका, इसीलिए सामयिक भाषा में नवीन साहित्य की सृष्टि की गयी. उस सामयिक भाव के साहित्य ने अपना जो प्रभाव दिखाया वही हम आज तक अनुभव करते हैं. एक अच्छे समझदार व्यक्ति के लिए क्लिष्ट संस्कृत के मन्त्र तथा पुरानी अरबी की आयतें इतनी प्रभावकारी नहीं हो सकतीं जितनी कि उसकी अपनी साधारण भाषा की साधारण बातें.

ऊपर पंजाबी भाषा तथा साहित्य के विकास का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है. अब हम वर्तमान अवस्था पर आते हैं. लगभग एक ही समय पर बंगाल में स्वामी विवेकानन्द तथा पंजाब में स्वामी रामतीर्थ पैदा हुए, दोनों एक ही ढर्रे के महापुरुष थे. दोनों विदेशों में भारतीय तत्त्वज्ञान की धाक जमाकर स्वयं भी जगत-प्रसिद्ध हो गये, परन्तु स्वामी विवेकानन्द का मिशन बंगाल में एक स्थायी संस्था बन गया, पर पंजाब में स्वामी रामतीर्थ का स्मारक तक नहीं दीख पड़ता. उन दोनों के विचारों में भारी अन्तर रहने पर भी तह में हम एक गहरी समता देखते हैं. जहां स्वामी विवेकानन्द कर्मयोग का प्रचार कर रहे थे, वहां स्वामी रामतीर्थ भी मस्तानावार गाया करते थे :

हम रूखे टुकड़े खायेंगे, भारत पर वारे जायेंगे।
हम सूखे चने चबायेंगे, भारत की बात बनायेंगे।
हम नंगे उमर बितायेंगे, भारत पर जान मिटायेंगे।

वे कई बार अमेरिका में अस्त होते सूर्य को देखकर आंंसू बहाते हुए कहा करते थे – ‘तुम अब मेरे प्यारे भारत में उदय होने जा रहे हो. मेरे इन आंंसुओं को भारत के सलिल सुन्दर खेतों में ओस की बूंदों के रूप में रख देना.’ इतना महान देश तथा ईश्वर-भक्त हमारे प्रान्त में पैदा हुआ हो, परन्तु उसका स्मारक तक न दीख पड़े, इसका कारण साहित्यिक फिसड्डीपन के अतिरिक्त क्या हो सकता है ?

यह बात हम पद-पद पर अनुभव करते हैं. बंगाल के महापुरुष श्री देवेन्द्र ठाकुर तथा श्री केशवचन्द्र सेन की टक्कर के पंजाब में भी कई महापुरुष हुए हैं, परन्तु उनकी वह कद्र नहीं और मरने के बाद वे जल्द ही भुला दिये गये, जैसे ज्ञान सिंंह जी इत्यादि. इन सबकी तह में हम देखते हैं कि एक ही मुख्य कारण है, और वह है साहित्यिक रुचि-जागृति का सर्वथा अभाव.

यह तो निश्चय ही है कि साहित्य के बिना कोई देश अथवा जाति उन्नति नहीं कर सकती, परन्तु साहित्य के लिए सबसे पहले भाषा की आवश्यकता होती है और पंजाब में वह नहीं है. इतने दिनों से यह त्रुटि अनुभव करते रहने पर भी अभी तक भाषा का कोई निर्णय न हो पाया. उसका मुख्य कारण है हमारे प्रान्त के दुर्भाग्य से भाषा को मज़हबी समस्या बना देना. अन्य प्रान्तों में हम देखते हैं कि मुसलमानों में प्रान्तीय भाषा को ख़ूब अपना लिया है. बंगाल के साहित्य-क्षेत्र में कवि नज़र-उल-इस्लाम एक चमकते सितारे हैं. हिन्दी कवियों में लतीफ हुसैन ‘नटवर’ उल्लेखनीय हैं. इसी तरह गुजरात में भी हैं, परन्तु दुर्भाग्य है पंजाब का. यहांं पर मुसलमानों का प्रश्न तो अलग रहा, हिन्दू-सिक्ख भी इस बात पर न मिल सके.

पंजाब की भाषा अन्य प्रान्तों की तरह पंजाबी ही होनी चाहिए थी, फिर क्यों नहीं हुई, यह प्रश्न अनायास ही उठता है, परन्तु यहांं के मुसलमानों ने उर्दू को अपनाया. मुसलमानों में भारतीयता का सर्वथा अभाव है, इसीलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्त्व न समझकर अरबी लिपि तथा फारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं. समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिन्दी होने का महत्त्व उनकी समझ में नहीं आता इसलिए वे तो अपनी उर्दू की रट लगाते रहे और एक ओर बैठ गये.

फिर सिक्खों की बारी आयी. उनका सारा साहित्य गुरुमुखी लिपि में है. भाषा में अच्छी-ख़ासी हिन्दी है, परन्तु मुख्य पंजाबी भाषा है. इसलिए सिक्खों ने गुरुमुखी लिपि में लिखी जाने वाली पंजाबी भाषा को ही अपना लिया. वे उसे किसी तरह छोड़ न सकते थे. वे उसे मज़हबी भाषा बनाकर उससे चिपट गये.

इधर आर्यसमाज का आविर्भाव हुआ. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने समस्त भारतवर्ष में हिन्दी प्रचार करने का भाव रखा. हिन्दी भाषा आर्यसमाज का एक धार्मिक अंग बन गयी. धार्मिक अंग बन जाने से एक लाभ तो हुआ कि सिक्खों की कट्टरता से पंजाब की रक्षा हो गयी और आर्यसमाजियों की कट्टरता से हिन्दी भाषा ने अपना स्थान बना लिया.

आर्यसमाज के प्रारम्भ के दिनों में सिक्खों तथा आर्यसमाजियों की धार्मिक सभाएंं एक ही स्थान पर होती थीं. तब उनमें कोई भिन्न भेदभाव न था, परन्तु पीछे ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के किन्हीं दो-एक वाक्यों के कारण आपस में मनोमालिन्य बहुत बढ़ गया और एक-दूसरे से घृणा होने लगी. इसी प्रवाह में बहकर सिक्ख लोग हिन्दी भाषा को भी घृणा की दृष्टि से देखने लगे. औरों ने इसकी ओर किंचित भी ध्यान न दिया.

बाद में, कहते हैं कि आर्यसमाजी नेता महात्मा हंसराज जी ने लोगों से कुछ परामर्श किया था कि यदि वह हिन्दी लिपि को अपना लें, तो हिन्दी लिपि में लिखी जाने वाली पंजाबी भाषा यूनिवर्सिटी में मंज़ूर करवा लेंगे, परन्तु दुर्भाग्यवश वे लोग संकीर्णता के कारण और साहित्यिक जागृति के न रहने के कारण इस बात के महत्त्व को समझ ही न सके और वैसा न हो सका. ख़ैर! तो इस समय पंजाब में तीन मत हैं. पहला मुसलमानों का उर्दू सम्बन्धी कट्टर पक्षपात, दूसरा आर्यसमाजियों तथा कुछ हिन्दुओं का हिन्दी सम्बन्धी, तीसरा पंजाबी का.

इस समय हम एक-एक भाषा के सम्बन्ध में कुछ विचार करें, तो अनुचित न होगा. सबसे पहले हम मुसलमानों का विचार रखेंगे. वे उर्दू के कट्टर पक्षपाती हैं. इस समय पंजाब में इसी भाषा का ज़ोर भी है. कोर्ट की भाषा भी यही है, और फिर मुसलमान सज्जनों का कहना यह है कि उर्दू लिपि में ज़्यादा बात थोड़े स्थान में लिखी जा सकती है. यह सब ठीक है, परन्तु हमारे सामने इस समय सबसे मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है. एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम हो नहीं सकता. उसके लिए कदम-कदम चलना पड़ता है. यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देनी चाहिए. उर्दू लिपि तो सर्वांगसम्पूर्ण नहीं कहला सकती, और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी भाषा पर है. उर्दू कवियों की उड़ान, चाहे वे हिन्दी (भारतीय) ही क्यों न हों, ईरान के साकी और अरब की खजूरों को जा पहुंंचती है. काजी नज़र-उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, परन्तु हमारे पंजाबी हिन्दी-उर्दू कवि उस ओर ध्यान तक भी न दे सके. क्या यह दु:ख की बात नहीं ? इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है. उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती, तो फिर उनके रचित साहित्य से हम कहांं तक भारतीय बन सकते हैं ? केवल उर्दू पढ़ने वाले विद्यार्थी भारत के पुरातन साहित्य का ज्ञान नहीं हासिल कर सकते. यह नहीं कि उर्दू जैसी साहित्यिक भाषा में उन ग्रन्थों का अनुवाद नहीं हो सकता, परन्तु उसमें ठीक वैसा ही अनुवाद हो सकता है, जैसाकि एक ईरानी को भारतीय साहित्य सम्बन्धी ज्ञानोपार्जन के लिए आवश्यक हो.

हम अपने उपरोक्त कथन के समर्थन में केवल इतना ही कहेंगे कि जब साधारण आर्य और स्वराज्य आदि शब्दों को आर्या और स्वराजिया लिखा और पढ़ा जाता है तो गूढ़ तत्त्वज्ञान सम्बन्धी विषयों की चर्चा ही क्या ? अभी उस दिन श्री लाला हरदयाल जी एम.ए. की उर्दू पुस्तक ‘कौमें किस तरह ज़िन्दा रह सकती हैं ?’ का अनुवाद करते हुए सरकारी अनुवादक ने ऋषि नचिकेता को उर्दू में लिखा होने से नीची कुतिया समझकर ‘ए बिच आफ लो ओरिजिन’ अनुवाद किया था. इसमें न तो लाला हरदयाल जी का अपराध था, न अनुवादक महोदय का. इसमें कसूर था उर्दू लिपि का और उर्दू भाषा की हिन्दी भाषा तथा साहित्य से विभिन्नता का.

शेष भारत में भारतीय भाषाएंं और लिपियांं प्रचलित हैं. ऐसी अवस्था में पंजाब में उर्दू का प्रचार कर क्या हम भारत से एकदम अलग-थलग हो जावें ? नहीं. और फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उर्दू के कट्टर पक्षपाती मुसलमान लेखकों की उर्दू में फारसी का ही आधिक्य रहता है. ‘ज़मींदार’ और ‘सियासत’ आदि मुसलमान-समाचारपत्रों में तो अरबी का ज़ोर रहता है, जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता. ऐसी दशा में उसका प्रचार कैसे किया जा सकता है ? हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी अपने मज़हब पर पक्के रहते हुए ठीक वैसे ही भारतीय बन जायें जैसे कि कमाल टर्क (तुर्क) हैं. भारतोद्धार तभी हो सकेगा. हमें भाषा आदि के प्रश्नों को मार्मिक समस्या न बनाकर ख़ूब विशाल दृष्टिकोण से देखना चाहिए.

इसके बाद हम हिन्दी-पंजाबी भाषाओं की समस्या पर विचार करेंगे. बहुत-से आदर्शवादी सज्जन समस्त जगत को एक राष्ट्र, विश्व राष्ट्र बना हुआ देखना चाहते हैं. यह आदर्श बहुत सुन्दर है. हमको भी इसी आदर्श को सामने रखना चाहिए. उस पर पूर्णतया आज व्यवहार नहीं किया जा सकता, परन्तु हमारा हर एक कदम, हमारा हर एक कार्य इस संसार की समस्त जातियों, देशों तथा राष्ट्रों को एक सुदृढ़ सूत्र में बांंधकर सुख-वृद्धि करने के विचार से उठना चाहिए. उससे पहले हमको अपने देश में यही आदर्श कायम करना होगा. समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, एक साहित्य, एक आदर्श और एक राष्ट्र बनाना पड़ेगा, परन्तु समस्त एकताओं से पहले एक भाषा का होना ज़रूरी है, ताकि हम एक-दूसरे को भली-भांंति समझ सकें.

एक पंजाबी और एक मद्रासी इकट्ठा बैठकर केवल एक-दूसरे का मुंंह ही न ताका करें, बल्कि एक-दूसरे के विचार तथा भाव जानने का प्रयत्न करें, परन्तु यह परायी भाषा अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की अपनी भाषा हिन्दी में. यह आदर्श भी, पूरा होते-होते अभी कई वर्ष लगेंगे. उसके प्रयत्न में हमें सबसे पहले साहित्यिक जागृति पैदा करनी चाहिए. केवल गिनती के कुछेक व्यक्तियों में नहीं, बल्कि सर्वसाधारण में. सर्वसाधारण में साहित्यिक जागृति पैदा करने के लिए उनकी अपनी ही भाषा आवश्यक है. इसी तर्क के आधार पर हम कहते हैं कि पंजाब में पंजाबी भाषा ही आपको सफल बना सकती है.

अभी तक पंजाबी साहित्यिक भाषा नहीं बन सकी है और समस्त पंजाब की एक भाषा भी वह नहीं है. गुरुमुखी लिपि में लिखी जाने वाली मध्य पंजाब की बोलचाल की भाषा को ही इस समय तक पंजाबी कहा जाता है. वह न तो अभी तक विशेष रूप से प्रचलित ही हो पायी है और न ही साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ही बन पायी है. उसकी ओर पहले तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, परन्तु अब जो सज्जन उस ओर ध्यान भी दे रहे हैं उन्हें लिपि की अपूर्णता बेतरह अखरती है. संयुक्त अक्षरों का अभाव और हलन्त न लिख सकने आदि के कारण उसमें भी ठीक-ठीक सब शब्द नहीं लिखे जा सकते, और तो और, पूर्ण शब्द भी नहीं लिखा जा सकता. यह लिपि तो उर्दू से भी अधिक अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर निर्भर सर्वांगसम्पूर्ण हिन्दी लिपि विद्यमान है, फिर उसे अपनाने में हिचक क्या ?  गुरुमुखी लिपि तो हिन्दी अक्षरों का ही बिगड़ा हुआ रूप है. आरम्भ में ही उसका ‘उ’ का X, ‘अ’ का X बना हुआ है और म ट ठ आदि तो वे ही अक्षर हैं. सब नियम मिलते हैं फिर एकदम उसे ही अपना लेने से कितना लाभ हो जायेगा ? सर्वांग सम्पूर्ण लिपि को अपनाते ही पंजाबी भाषा उन्नति करना शुरू कर देगी. और उसके प्रचार में कठिनाई ही क्या है ? पंजाब की हिन्दू स्त्रियांं इसी लिपि से परिचित हैं. डी.ए.वी. स्कूलों और सनातन धर्म स्कूलों में हिन्दी ही पढ़ाई जाती है. ऐसी दशा में कठिनाई ही क्या है ? हिन्दी के पक्षपाती सज्जनों से हम कहेंगे कि निश्चय ही हिन्दी भाषा ही अन्त में समस्त भारत की एक भाषा बनेगी, परन्तु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी. हिन्दी लिपि के अपनाने से ही पंजाबी हिन्दी की-सी बन जाती है. फिर तो कोई भेद ही नहीं रहेगा और इसकी ज़रूरत है, इसलिए कि सर्वसाधारण को शिक्षित किया जा सके और यह अपनी भाषा के अपने साहित्य से ही हो सकता है. पंजाबी की यह कविता देखिये –

ओ राहिया राहे जान्दया, सुन जा गल मेरी,
सिर ते पग तेरे वलैत दी, इहनूँ पफूक मआतड़ा ला।।

और इसके मुकाबले में हिन्दी की बड़ी-बड़ी सुन्दर कविताएंं कुछ प्रभाव न कर सकेंगी, क्योंकि वह अभी सर्वसाधारण के हृदय के ठीक भीतर अपना स्थान नहीं बना सकी है. वह अभी कुछ बहुत परायी-सी दीख पड़ती है. कारण कि हिन्दी का आधार संस्कृत है. पंजाब उससे कोसों दूर हो चुका है. पंजाबी में फारसी ने अपना प्रभाव बहुत कुछ रखा है. यथा, चीज़ का जमा ‘चीज़ें’ न होकर फारसी की तरह ‘चीज़ाँ’ बन गया है. यह असूल अन्त तक कार्य करता दिखायी देता है. कहने का तात्पर्य यह है कि पंजाबी के निकट होने पर भी हिन्दी अभी पंजाबी-हृदय से काफी दूर है. हांं, पंजाबी भाषा के हिन्दी लिपि में लिखे जाने पर और उसके साहित्य बनाने के प्रयत्न में निश्चय ही वह हिन्दी के निकटतर आ जायेगी.

प्रायः सभी मुख्य तर्कों पर तर्क किया जा चुका है. अब केवल एक बात कहेंगे. बहुत-से सज्जनों का कथन है कि पंजाबी भाषा में माधुर्य, सौन्दर्य और भावुकता नहीं है. यह सरासर निराधार है. अभी उस दिन – ‘लच्छीए जित्थे तू पानी डोलिया ओत्थे उग पये सन्दल दे बूटे’ वाले गाने के माधुर्य ने कवीन्द्र रवीन्द्र तक को मोहित कर लिया और वे झट अंग्रेज़ी में अनुवाद करने लगे – O Lachi, where there spilt water, where there spilt water….etc…etc…

और बहुत-से और उदाहरण भी दिये जा सकते हैं. निम्न वाक्य क्या किसी अन्य भाषा की कविताओं से कम है ? –

पिपले दे पत्तया वे केही खड़खड़ लायी ऐ।
पत्ते झड़े पुराने हुण रुत्त नवयाँ दी आयी आ।।

और फिर जब पंजाबी अकेला अथवा समूह बैठा हो तो ‘गौहर’ के ये पद जितना प्रभाव करेंगे, उतना कोई और भाषा क्या करेगी ?

लाम लक्खाँ ते करोड़ाँ दे शाह वेखे न मुसापिफराँ कोई उधार देंदा,
दिने रातीं जिन्हाँ दे कूच डेरे न उन्हाँ दे थायीं कोई एतबार देंदा।
भौरे बहंदे गुलाँ दी वाशना ते ना सप्पा दे मुहाँ ते कोई प्यार देंदा
गौहर समय सलूक हन ज्यूंदया दे मोयाँ गियाँ नूँ हर कोई विसार देंदा।

और फिर –

जीम ज्यूदियाँ नूँ क्यों मारना ऐं, जेकर नहीं तूं मोयाँ नूँ जिऔण जोगा
घर आये सवाली नूँ क्यों घूरना ऐं, जेकर नहीं तू हत्थीं ख़ैर पौण जोगा
मिले दिलाँ नूँ क्यों बिछोड़ना ऐं, जेकर नहीं तू बिछड़याँ नू मिलौण जोगा
गौहरा बदीयाँ रख बन्द खाने, जेकर नहीं तू नेकीआँ कमौण जोगा।

और फिर अब तो दर्द, मस्ताना, दीवाना बड़े अच्छे-अच्छे कवि पंजाबी की कविता का भण्डार बढ़ा रहे हैं.

ऐसी मधुर, ऐसी विमुग्धकारी भाषा तो पंजाबियों ने ही न अपनायी, यही दु:ख है. अब भी नहीं अपनाते, समस्या यही है. हरेक अपनी बात के पीछे मज़हबी डण्डा लिये खड़ा है. इसी अड़ंगे को किस तरह दूर किया जाये, यही पंजाब की भाषा तथा लिपि विषयक समस्या है, परन्तु आशा केवल इतनी है कि सिक्खों में इस समय साहित्यिक जागृति पैदा हो रही है. हिन्दुओं में भी है. सभी समझदार लोग मिलकर-बैठकर निश्चय ही क्यों नहीं कर लेते. यही एक उपाय है इस समस्या को हल करने का. मज़हबी विचार से ऊपर उठकर इस प्रश्न पर ग़ौर किया जा सकता है, वैसे ही किया जाये, और फिर अमृतसर के ‘प्रेम’ जैसे पत्र की भाषा को ज़रा साहित्यिक बनाते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी में पंजाबी भाषा को मंजूर करा देना चाहिए. इस तरह सब बखेड़ा तय हो जाता है. इस बखेड़े के तय होते ही पंजाब में इतना सुन्दर और ऊंंचा साहित्य पैदा होगा कि यह भी भारत की उत्तम भाषाओं में गिनी जाने लगेगी.

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