Home गेस्ट ब्लॉग ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय अवधारणा बनाम राष्ट्रवाद

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय अवधारणा बनाम राष्ट्रवाद

35 second read
0
8
9,533

भारतीय दर्शन की विशुद्ध देशी अवधारणा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को खारिज कर पश्चिमी जगत के घृणा पर आधारित विदेशी दर्शन की अवधारणा ‘राष्ट्रियता’ को तरजीह देने वाली आरएसएस जब भारतीय संस्कृति की दुहाई देती है, तब साजिश की तीखी बू उभर कर सामने आती है.

लेखक व चिंतक विनय ओसवाल अपने गंभीर अध्ययन के बाद इस लेख के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रस्थापना को स्थापित करने और तमाम आन्दोलनकारियों, प्रगतिशील ताकतों का ध्यान आकृष्ट करने की बेहतरीन कोशिश करते हैं कि आज नस्लीय, धार्मिक, भाषाई घृणा के आधार पर निर्मित विदेशी अवधारणा राष्ट्रियता / राष्ट्रवाद की घृणा की असीम सागर में डूब उतरा रहे भारतीय समाज को अपनी विशुद्ध देशी भारतीय दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा को पूरी ताकत से स्थापित करना चाहिए,

घृणा आधारित राष्ट्रवाद ने पश्चिमी जगत में दो-दो विश्वयुद्धों को पैदा कर करोडों मनुष्यों को मौत के घाट उतारने के बाद अब आरएसएस-भाजपा के कंधे पर सवार होकर भारतीय उपमहाद्वीप पर दस्तक दे चुकी है. इससे पहले की घृणा की अग्नि पर सवार राष्ट्रवाद इस भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों लोगों की बलि ले लें, हमें फौरन अपने भारतीय दर्शन ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की देशी अवधारणा को अपनाना होगा. – सम्पादक

'वसुधैव कुटुम्बकम' की भारतीय अवधारणा बनाम राष्ट्रवाद

Vinay Oswalविनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं चिंतक

यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है :

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

(महोपनिषद्, अध्याय ४, श्‍लोक ७१)

अर्थ – यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं. उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है.

यह अवधारणा सनातन धर्मी है. इस अवधारणा का आधार मुख्य रूप से धार्मिक ही रहा है. अंग्रेजों के आने से पूर्व तक भारतीय शिक्षा संस्कृत पाठशालाओं में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर ही आधारित थी. लोग तीर्थयात्रा करने के लिए उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम की यात्रा करते थे. इससे देश में धार्मिक जुड़ाव व एकता बनी हुई थी. जिसे हम भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम से जानते हैं.

वी डी सावरकर (1923) और बाद में मामूली बदलावों के साथ एम एस गोलवालकर (1939) द्वारा परिभाषित ‘राष्ट्रवाद’ का उल्लेख किसी भी भारतीय दर्शन शास्त्र, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, आदि में ढूंढे नही मिलने के पीछे यह भी एक मुख्य कारण है.

‘We or Our Nationhood Defined’ में भी एम एस गोलवालकर उर्फ गुरु जी और पुस्तक की भूमिका लिखने वाले एम. एस. अने दोनों इस तथ्य को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि राष्ट्रवाद की उनकी यह अवधारणा आधुनिक है, वैज्ञानिक है. उन्नीसवीं – बीसवीं सदी में पश्चिम के समाज वैज्ञानिकों ने इसकी खोज की है.

इसके ठीक उलट हजारों वर्ष पूर्व कठोर साधना तपस्या और उससे प्राप्त ‘दैवीय ज्ञान’ के बूते भारतीय मनीषीयों ने सम्पूर्ण मानव जाति जिसमें सभी नस्लें समाहित हैं, में व्याप्त तमाम विसंगतियों को सहिष्णुता का पुल बना समरसता स्थापित करने के लिए ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा की शिक्षा दी थी, जिसे हम भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम से जानते हैं.

भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सनातन है, जिसने हजारों वर्षों से भारत के एक राष्ट्र राज्य न होते हुए भी उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में हिन्द महासागर तक भारत को एकता के अटूट बंधन में बांधे रखा, को आधुनिक क्षद्म राष्ट्रवादियों ने आखिर क्यों प्रदूषित कर दिया ? यह प्रश्न आज देश के सामने खड़ा है. क्या अंग्रेज शासकों के समय ही जाग्रत हो चुकी, यानी एक शताब्दी पुरानी सत्ता की अपनी भूख मिटाने के लिए ?

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की सनातन अवधारणा में मजबूत आस्था रखने वाले राष्ट्र समाज के दिल-दिमाग में नस्लीय आधार पर घृणा और द्वेष का जहर घोल कर सत्ता के सूत्र अपने हाथ में लेने में राष्ट्रवादियों को 90 वर्ष का समय लग गया.

राष्ट्रवाद के मूर्धन्य चिंतकों को पश्चिम के समाज वैज्ञानिकों की पांच स्तम्भों – देश, नस्ल, धर्म, संस्कृति, भाषा वाली अवधारणा के समर्थन में सबसे प्राचीन माने जाने वाले भारतीय दर्शन के ग्रन्थ ऋग्वेद या समकालीन अन्य कृतियों में कोई उद्धरण ढूंढे ऐसा नहीं मिला है, जिसे वे अपनी परिभाषा के समर्थन में समाज के सामने परोस सकें.

वे राष्ट्र शब्द को वेदों व उसके समक्ष अन्य कृतियों के जितना प्राचीन तो बताते है और इसके समर्थन में उद्धरण भी देते हैं परंतु उन्हें ग्रंथों में समाज में नस्लीय आधार पर द्वेष और घृणा फैलाने वाली पश्चिमी राष्ट्रवादी परिभाषा के समर्थन में साक्ष्य जुटाने में पूरी तरह असफल ही नजर आते हैं.

राष्ट्रवादियों को वेदों या भारतीय दर्शन के किसी ग्रंथ में कोई उद्धरण ढूंढे इसलिए नही मिला क्योंकि भारतीय दर्शन के मनीषियों का सम्पूर्ण चिंतन ‘वसुधैवकुटुम्बकम’ की अवधारणा के इर्द गिर्द ही घूमता है. हर देश , हर नस्ल, हर धर्म, हर सँस्कृति, हर भाषा भाषी को वह अपने कुटुम्ब का ही सदस्य समझने का संदेश देता है, जबकि राष्ट्रवादी चिंतक उसके उलट नस्लीय आधार पर समाज को विदेशी नस्ल और भारतीय नस्ल के नागरिकों के रूप में बांटना चाहते हैं.

पश्चिम के राष्ट्रवादी अपनी नस्लीय अवधारणा को छिपाते नही हैं. वे इस मामले में पूरी तरह ईमानदार नजर आते हैं. उनके मुकाबले भारत के राष्ट्रवादी कुटिल हैं, उनकी कथनी करनी में जमीन आसमान का फर्क है.

एम एस गोलवालकर की ‘We or Our Nationhood defined’ (हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) की भूमिका में एम. एस. अने जिस समाज वैज्ञानिक प्रोफेसर डॉ. कार्लटन जे. एच. हेज़ का जिक्र करते हैं, उनकी चर्चित और विश्व में लोकप्रिय हुई पुस्तक ‘राष्ट्रवाद एक धर्म’ हिंदुस्थान में भी अमेजन पर 3988 रुपये में उपलब्ध है. हेज़ के अतिरिक्त दर्जनों विदेशी राष्ट्रवादियों का उल्लेख उक्त पुस्तक में मिलता है. एम. एस. अने ही नही, गुरु जी ने भी पश्चिमी जगत के तमाम राष्ट्रवादियों का उल्लेख किया है.

पश्चिम जगत के वे सभी समाज वैज्ञानिक धड़ल्ले से अपनी पुस्तकों का प्रचार-प्रसार करते हैं जबकि हमारे देश के राष्ट्रवादियों का दोगलापन इस बात से स्पष्ट झलकता है कि वे इस बात से ही इनकार करते हैं कि We or Our Nationhood Defined (भारत पब्लिकेशन महल, नागपुर, वर्ष 1939 ) के लेखक आरएसएस के दूसरे सरसंघ चालक एम. एस. गोलवालकर उर्फ गुरु जी हैं.

वर्ष 1947 के बाद देश की लाइब्रेरियों से, बाजार से, सब जगह से बीन-बीन कर इस पुस्तक की प्रतियां वापस ले ली गयी और नष्ट कर दी गईं. लेकिन एक बार जो पुस्तक बाजार में आ जाती है उसकी कुछ प्रतियां सुधी पाठकों के पास सुरक्षित रह जाती है. ऐसी ही किसी प्रति से इस किताब को स्कैन करके फरोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्रा. लि. दिल्ली ने पुनः प्रकाशित कर दिया है. इस पुस्तक के प्रति पाठकों का आकर्षण इतना अधिक है कि इसकी कई आवृत्तियांं छप चुकी हैं और प्रकाशक ने इसका अनुवाद हिंदी में कराकर भी बाजार में उतार दिया है.

प्रो. कार्लटन हेज़ अकेले समाज वैज्ञनिक नहीं हैं जिसका उल्लेख डॉ. अने ने उक्त पुस्तक की अपनी भूमिका में किया हो. एक लंबी लिस्ट है उन राष्ट्रवादी विदेशी समाज शास्त्रियों की जिनके नामों का उल्लेख डॉ. अने ने किया है. एडमंड स्पेंसर, बेन जॉनसन, सैमुअल बटलर, जी. पी. गूच, जे. एल. स्टोक्स, इजराइल जंगविल, मिस्टर ज़िमेरिन मूर, एस. हर्बर्ट, बेनार्ड जोसेफ आदि-आदि के नामों का उल्लेख करते हुए डॉ. अने लिखते हैं कि ‘मेजिनी’ राष्ट्रीयता का सबसे बड़ा विवेचक माना जता है. सभी लेखकों की अंग्रेजी में लिखी पुस्तकें विश्व में काफी व्यापक रूप से पढ़ी जाती हैं और इन लेखकों ने राष्ट्रवाद की पेंचीदा समस्याओं के समाधान सुझाने में बेहद महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

यहां एक मौलिक प्रश्न जमीन पर सर उठाने लगता है –

जिन्हें राष्ट्रवाद पर विदेशी विद्वानों की अवधारणाएं, स्थापनाएं, और प्रस्तुतियां गम्भीर, प्रभावशाली और तर्क संगत लगती हैं उन्हें भारतीय इतिहास पर उनकी खोजें अविश्वसनीय, मनघडंत, झूठी क्यों लगती हैं ? क्यों भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयास प्राथमिकता के आधार पर किये जा रहे है और स्कूली पाठ्य पुस्तकें बदली जारही हैं ?

लेकिन भारत में राष्ट्रवाद की आधारशिला रखने वालों को इस पर कोई शर्म नहीं आती. वे ब्रिटेन की महारानी की सत्ता को हिंदुस्तान से उखाड़ फेंकने के लिए संकल्पित जन आंदोलन जिसे स्वतंत्रता आंदोलन के नाम से जाना जाता है, की मंशा पर ही सवाल खड़े करते हैं.

उक्त पुस्तक में गुरु जी एक सांस में स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेताओं से ढेरों सवाल पूछते हैं –

हम क्या हासिल करने निकले हैं ? स्वराज ? स्वाधीनता ? क्या है यह स्वराज ? क्या है यह स्वाधीनता ? हमारा उद्देश्य किसकी स्वाधीनता है ? क्या हम अपने ‘राष्ट्र’ को स्वाधीन और गौरवशाली बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं ? क्या हम बस एक ऐसा ‘राज्य’ गढ़ना चाहते हैं, जिसमें राजनैतिक और आर्थिक शक्ति वर्तमान शासकों की जगह दूसरे हाथों में केंद्रित हों ? क्या हम स्पष्ट रूप से समझते हैं कि ‘राज्य’ और ‘राष्ट्र’ ये दोनों अवधारणाएं अलग से पहचानी जा सकने वाली अवधारणाएं हैं ?

गुरु जी, इन प्रश्नों का उत्तर पाए बिना स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं पर आरोप मढ़ देते हैं कि वो अंधेरे में हैं, भटक रहे हैं.

वे अपने मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं – हम जो चाहते हैं वह है स्वराज, इस ‘स्व’ का अर्थ है, ‘हमारा राज्य’- हम कौन है ? गुरुजी इस सवाल का उत्तर नहीं देते. स्पष्ट है ‘हम’ से उनका तात्पर्य उन भारतीयों से है जो विदेशी चिंतकों द्वारा परिभाषित ‘राष्ट्रवाद’ और उसके समर्थको की सत्ता भारत में कायम करने में सहायक हों.

वे भारत के भाषाई परिदृश्य जो हिमालय की तलहटी में बसे लद्दाख, जम्मू और कश्मीर से लेकर सूदूर हिन्द महासागर किनारे बसे तमिलनाडु और केरल आदि तक एक नही है, को जानते हैं और पांच घटकों वाली राष्ट्र की नस्लीय परिभाषा के एक घटक ‘भाषा’ के फिट न होने की कमी को भी भली भांति पहचानते हैं, को पूरी तरह नजर अंदाज कर गोलवालकर जी कहते हैं –

भारत राष्ट्र में बोली जाने वाली अलग-अलग भाषाएं वास्तव में हिन्दू भाषा संस्कृत (देव भाषा) का स्वभाविक परिवार या उसकी औलादें हैं.

वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्र की आधुनिक समझ लागू करते हुए जो अप्रश्नेय निष्कर्ष हमारे सामने आता है, वह यह है कि – इस देश हिंदुस्थान में, हिन्दू नस्ल, अपने हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू भाषा (संस्कृत का स्वभाविक परिवार और उसकी औलादें) से राष्ट्रीय अवधारणा को परिपूर्ण करती हैं.

इस देश हिंदुस्थान में तमिल और मलयालम के देव भाषा संस्कृत के ज्यादा प्राचीन होने के दावों के सामने आने के बाद राष्ट्रवादियों को राष्ट्रवाद के पांच घटकों में एक भाषा की संस्कृति के साथ खिचड़ी बनाने के लिए मजबूर कर दिया. इसी खिचड़ी में धर्म का तड़का लगाने के बाद इसे ‘हिंदुत्व’ बताना गुरु जी के वर्तमान वंशजों की मजबूरी बन गई है. और ऐसी तमाम मजबूरियां ही नये भारत निर्माण की अवधारणा की चादर तले छिपाया जा रहा है.

गुरुजी को भी भविष्य में पैदा होने वाली इस मजबूरी का एहसास हो गया था, ऐसा मेरा अनुमान है. उन्हें लगा अब अपने मंसूबों को पूरी तरह स्पष्ट करना जरूरी हो गया है, वो कहते हैं –

यह निर्विवाद रूप से तय हो चुका है कि हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और यह केवल हिंदुओं के फलने फूलने के लिए है. वो प्रश्न खड़ा करते है कि उन सब लोगों की नियति क्या होनी चाहिए जो इस धरती पर रहरहे है लेकिन हिन्दू नस्ल, धर्म, भाषा और संस्कृति से सम्बन्ध नहीं रखते हैं.

गुरुजी खुद ही इस प्रश्न का समाधान भी करते हैं –

वे राष्ट्र का अंग तभी बन सकते हैं जब वे अपने विभेदों / अंतरभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें और राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा व संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें. जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतरों को बनाये रखेंगे वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रवत हो सकता है अथवा शत्रुवत.

गुरु गोलवारकर जी की पुस्तक “We or Our Nationhood Defined” (हम या हमारी राष्ट्रीयता परिभाषित) की भूमिका लिखने वाले एम. एस. अने ने गुरु जी के उक्त कथन से दृढ़ता के साथ अपनी असहमति जताई है. वे कहते हैं –

मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं कि लीग ऑफ नेशंस उन सिद्धांतों को कतई सही नहीं ठहरायेगा जिन्हें लेखक (एम. एस. गोलवालकर) इतने हठपूर्वक स्थापित कर रहे हैं. सांस्कृतिक रूप से भिन्न अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक गतिविधियां जारी रखने और अपनी संस्कृति की रक्षा करने के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराना एक राज्य की संप्रभु स्थिति से कतई असंगत नहीं है बशर्ते कि लोक-नैतिकता तथा लोक-नीति की अवहेलना न हो.

देश में पैदा हुआ कोई भी इंसान जिसके पुरखे सदियों से यहां सब के साथ-साथ नागरिकता के अधिकारों का उपयोग करते रहे हैं, के साथ किसी आधुनिक राज्य में इस आधार पर विदेशी की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता है कि वह स्वाभाविक तौर पर प्रभावी और नियंत्रणकारी बहुसंख्यक जनता से अलग धर्म का अनुयाई है. बीसवीं सदी में धर्मांतरण कभी किसी विदेशी को स्वभाविक नागरिक बनने का आधार नहीं हो सकता.
कोई इस तरह की अतिवादी स्थिति की कल्पना किसी सभ्य देश में नहीं कर सकता.

राष्ट्रवादी को इसे पक्के तौर पर जान लेना चाहिए कि अन्य धर्मावलम्बी भी इसी हिन्दू राष्ट्र के सदस्य हैं.
यह सिर्फ उन्हें ही नही जान लेना चाहिए जिनका धर्म हिन्दू है, बल्कि उन्हें भी जो धार्मिक स्वतंत्रता का पक्का आश्वासन दिए जाने की शर्त पर हिन्दू राष्ट्र के विश्वासपात्र नागरिक बनने के लिए तैयार होंगे (हुए हैं).

उन सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे इस्लाम को मानने वाले हों या ईसाई धर्म को, अपने धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्वतंत्रता के उपभोग का पूरा अधिकार होगा. लेकिन यह छूट निश्चित रूप से अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के संरक्षण, जिसमें उनके धार्मिक अनुष्ठानों तथा विधियों के आयोजन और अपनी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन शामिल है, तक सीमित होगी और राज्य के कार्यकलापों में किन्हीं साम्प्रदायिक या नस्ली आधारों पर भागीदारी के अधिकार के रूप में विस्तारित नही की जा सकेगी भले ही वह बहुसंख्यक हिंदू ही हों.

राजनैतिक राज्य कई तरह की राष्ट्रीयताओं को अपना सकता है. ब्रिटेन में तीन राष्ट्रीयताएंं मौजूद है – वेल्स, स्कॉटिश, और इंग्लिश.

यहां एम. एस. अने का संक्षिप्त परिचय देना मैं जरूरी समझता हूंं –

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक सदस्य, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के अनुयाइयों में अग्रणी, तिलक की मृत्यु के बाद महात्मा गांधी को अपना नेता मानने वाले, मुसलमानों को लुभाने के लिए कांग्रेस के खिलाफत आंदोलन के पक्ष में खड़ा होने को राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध आचरण बता आलोचना करने वाले डॉ. एम. एस. अने का सम्मान महात्मा गांधी भी करते थे.

डॉ. अने का मानना था कि किसी भी कीमत पर प्राप्त एकता मायावी होने के साथ-साथ विनाशकारी होती है. इतना सब कुछ जानते समझते हुए भी गांधी जी, अने के तर्कसंगत परन्तु स्पष्ट, दृढ निर्णयों और विनम्र स्वभाव के कारण उनका सम्मान करते थे और अक्सर गम्भीर राष्ट्रीय मसलों पर उनकी राय लिया करते थे.

उनका पूरा नाम डॉ. माधव श्रीहरि अने है. वे 1962-67 के दौरान लोकसभा सदस्य रहे हैं. उनका जन्म 29 अगस्त, 1880 में हुआ था. वर्ष 1968 में उन्हें पदम् विभूषण कर राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत किया गया था. और 89 साल की उम्र में 26 जनवरी 1968 को उनका निधन हो गया था. उनके निधन के दिन ही उन्हें पदम् विभूषण के सम्मान से अलंकृत किया गया था.

वसुधैवकुटुम्बकम की सनातन अवधारणा को निकालने और विदेशी नस्लवादी अवधारणा को बिठाने में राष्ट्रवादियों को 90 साल लग गए वो भी तब जब ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की जड़ों को सींचने वाला कोई नहीं था. और सींचने की जरूरत भी नहीं थी. वट वृक्ष की तरह भारत की प्रकृति (क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर) उसे युगों-युगों से सींच रहे थे.

ऐसी धार्मिक-सांस्कृतिक अवधारणा के समर्थन में इस राष्ट्र में कभी किंचित भी कोई आवाज नहीं उठी. क्यों नहीं उठी ? कभी सोचता हूंं तो सिर चकराने लगता है.
यहां, पश्चिम के ही एक महान चिंतक टी. एस. ईलियट की भारतीय दार्शनिकों के बारे में की गई टिप्पणी का उल्लेख करना चाहूंगा, जो निम्न प्रकार है – ‘Indian philosophers subtleties make most of the great European philosopher look like school boys.’ यानी – भारतीय दार्शनिकों की सूक्ष्मताओं (विषय में गहरे पानी पैठ) को देखते हुए
यूरोप के अधिसंख्य दार्शनिक, स्कूल जाने वाले बच्चों जैसे लगते हैं.

मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूंं कि कांग्रेस, अपनी आंंखों के सामने क्षद्म, कुटिल राष्ट्रवादियों के हाथों भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हत्या होते देखती रही जबकि उसे ‘वसुधैवकुटुम्बकम’ की अवधारणा के मंच को इतना शक्तिशाली बनाना था कि नस्लवाद सिर ही नहीं उठा पाता. दृढ़ता के साथ इसका प्रतिकार करना था.

क्या कारण सम्भावित हो सकते हैं कि कांग्रेस ने ‘आरएसएस के नस्लवादी’ उद्देश्यों को विफल करने के लिए उसके समानांतर कोई सामाजिक संगठन खड़ा करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया ? इसकी आवश्यकता तमाम सामाजिक/राजनैतिक विचारकों ने भी शायद नहीं समझी. उन्होंने भी नहीं जो आरएसएस पर नस्लवादी होने का आरोप दिन में पांच बार लगाते रहते हैं.

नेता तो अपने निहित राजनैतिक उद्देश्यों को पाने के लिए आरोप लगाते रहते हैं लेकिन अति उत्साह में राष्ट्रवाद का अतिरेक करने वालों ने धर्म को विदेशी और स्वदेशी नस्ल के अनुयायियों से जोड़ कर लोगों के मन मस्तिष्क को विषाक्त कर दिया और वसुधैव कुटुम्बकम की सनातन राष्ट्रवादी अवधारणा को लहूलुहान कर दिया है.

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा को लहूलुहान करने का खेल पाकिस्तान की धरती पर नहीं, उसी भारत माता के आंचल की छांव तले खेला जा रहा है जिसे विदेशी नस्ल के अंग्रेजों से आज़ाद कराने के संग्राम में हजारों दीवानों ने ‘वन्दे मातरम’ के नारों के साथ मौत का आलिंगन कर लिया था.

Read Also –

गोलवलकर के हिन्दुत्व की घातक राह
CAA-NRC के विरोध के बीच जारी RSS निर्मित भारत का नया ‘संविधान’ का प्रारूप
अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए का देशी एजेंट है आरएसएस और मोदी
राष्ट्रवाद’ और ‘देशप्रेम’ पर कोहराम मचाने वाले कहीं विदेशी जासूस तो नहीं ?
इक्कीसवीं सदी का राष्ट्रवाद कारपोरेट संपोषित राजनीति का आवरण
अगर देश की सुरक्षा यही होती है तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.’

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

भागी हुई लड़कियां : एक पुरुष फैंटेसी और लघुपरक कविता

आलोक धन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियां’ (1988) को पढ़ते हुए दो महत्वपूर्ण तथ्य…