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वे कहीं चले गए

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जब तुम गहरी नींद में थे
वे कहीं चले गए

हरेक जाने वाला बुद्ध नहीं बनता
कुछ अनिच्छा से जाते हैं
या ले जाए जाते हैं
बलात्
क्योंकि जब तुम सो रहे थे
वे गा रहे थे जागने के गीत

ये गीत ख़लल डाल रहे थे
उनकी नींद में

कब्र
अकेला रहना चाहता है
बहुत हुआ तो अपने आजू बाज़ू
दूसरे या तीसरे कब्र के लिए
जगह छोड़ता है
कब्र को पसंद नहीं है
उस बच्चे के हाथों में
फूल का गुच्छा
और, तुम्हारी आंंखों में
पश्चाताप के आंंसू

जब वे जा रहे थे
क्या सोच रहे थे वे
क्या उन्हें भी इस बात का अफ़सोस था
कि, जिनके लिए उनसे छिनी जा रही थी
उनकी सांंसें
वे सो रहे थे बेख़बर

क्या उन्हें लगा होगा कि
मानव के रक्तरंजित इतिहास के पन्नों से
जिस आज़ादी का पन्ना चुराया था कभी
उसके ख़रीदार अब कम होते जा रहे थे
बाज़ार में
क्या वे ये सोच कर विचलित हुए होंगे
कि नींद की बेड़ियों में
कितने आराम से गुज़ारा हो रहा था तुम्हारा

जब वे जा रहे थे
क्या उनके जाने का सही समय था
क्या पीछे मुड़कर देखा था उन्होंने
क्या उनकी आंंखें सामने देख रही थी
और कान पीछे से आती
किसी आवाज़ की प्रतीक्षा में थे

नहीं
ऐसा कुछ भी नहीं था
वे जा रहे थे
क्योंकि उनको मालूम था कि
हर आज़ादी का रास्ता
कफ़स से हो कर ही गुजरता है

पूरी दुनिया के लाखों बंदी गृह की
यातनाओं में तप कर
कोई मंडेला निकलता है
मानव बलि की इस प्रयोगशाला में
जिसे तुम सभ्य दुनिया कहते हो
एकाध बुद्ध निकलता है
जो पहले की तरह नहीं होता

इसलिए
जब वे जा रहे थे
कहीं कोई शोर नहीं होता
लेकिन
करवट लेता है समय चुपचाप
ख़ामोश ज़लज़ले के आने के ठीक पहले
जैसे सांंस रोक कर बैठे रहते हैं
ठूंठ पर परिन्दे !

  • सुब्रतो चटर्जी

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