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साधो, ये मुरदों का देश है

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साधो, ये मुरदों का देश है

कल्पना कीजिए उस देश की, जहां सबसे ऊंची मूर्ति होगी, जगमगाता हुआ भव्य राममंदिर होगा. सरयू में देशी घी के चालीस लाख दीयों की अभूतपूर्व शोभायमान महा-आरती होगी. सड़कों, गलियों और राष्ट्रीय राजमार्गों पर जुगाली और चिंतन में संलग्न गौवंश आराम फरमा रहा होगा और धर्म उल्लू की तरह हर आदमी के चेहरे पर ऐंठा सा बैठा होगा.

लेकिन, अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं होगी. दवाइयां, बिस्तर, इन्जेक्शन नहीं होंगे. दुधमुंहे बच्चे बे-सांस दम तोड़ रहे होंगे. मरीज दर-ब-दर भटकते होंगे. देश में स्कूल-कॉलेज नहीं होंगें. बच्चे कामकाज की तलाश में गलियों में भटक रहे होंगे. कोविड जैसी महामारियां होंगी और देश का आम आदमी, और मजदूर -किसान भूखा-प्यासा सैकड़ों मील की पैदल यात्रा कर रहा होगा. घुट-घुट कर जी रहा होगा और तिल-तिल कर मर रहा होगा.

बेटियां और लड़कियां स्कूलों, कॉलेजों, मेडिकल, इंजीनियरिंग संस्थाओं में न होकर सिर्फ़ सड़कों पर दौड़ रहे ट्रकों के पीछे ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारों में ही दिखती होंगी. न्याय एक मंहगी विलासिता जैसा होगा. बेटियों, महिलाओं के हत्यारों, बलात्कारियों और दूसरे जघन्यतम अपराधियों को पुलिस बल गार्ड-ऑफ़-ऑनर पेश कर रहे होंगे. अलग-अलग वेश में मुनाफ़ाखोर देश के सम्मानित और गणमान्य नागरिक होंगे.

उत्कृष्ट अस्पताल नहीं होंगे. बेहतरीन किस्म की शोध और प्रयोगशालाएं भी नहीं होंगी. आयुर्विज्ञान संस्थान नहीं होंगे, ऐसे में डॉक्टर भी भला कहां से आएंगे ? भूख और बेरोजगारी से जूझती जनता के लिए चूरन होंगे, अवलेह और आसव होंगे, सांस रोकने-छोड़ने के करतब होंगे, अनुलोम-विलोम होगा, काढ़े होंगे और इन सबसे ऊपर, कोई शातिर तपस्वी उद्योगपति होगा, जो धर्म, अध्यात्म, तप-त्याग, और दर्शन की पुड़ियाओं में भस्म-भभूत और आरोग्य के ईश्वरीय वरदान लपेट रहा होगा.

लिहाज़ा जब हमारे पास गाय है, गोबर है, गोमूत्र है… फिर रह ही क्या जाता है ? हां संपन्न वर्ग बालतोड़ का इलाज भी यूरोप में कराएगा, पर यहां भारतीय आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के गुण गायेगा, ताकि आम आदमी को साजिशन सस्ते और सरकारी स्वास्थ्य सेवा से महरूम किया जा सके.

बैंक भी नहीं होंगे, बीमा कंपनियां नही होंगी. नवरतन कहे जाने वाले सार्वजनिक उपक्रम नहीं होंगे, जिससे दिल धड़कता था. अपनी-सी लगती वह रेल भी नहीं होगी. सरकार और सरकार के जरिए, जनता की ताकत समझे जाने वाले कल-कारखाने भी नहीं होंगे कहीं.

देश एक ऐसी दूकान में बदल चुका होगा, जिसकी शक्लोसूरत किसी मंदिर जैसी होगी, यहां युवकों के लिए रथयात्राएं, शिलान्यास, जगराते होंगे. गौ-रक्षा और गौरव-यात्राएं होंगी. मुंह में गुटके की ढेर सारी पीक सहेजे बोलने और चीखने का अभ्यास साधे सैकड़ों-हजारों किशोर-युवा होंगे, जो कांवर लेकर आ रहे होंगे या जा रहे होंगे. किसी नए मंदिर के काम आ रहे होंगे और खाली वक्त में जियो के सिम की बदौलत पुलिया में बैठे अपना ज्ञान बढ़ा रहे होंगे. राष्ट्रसेवा या दुश्मन को हांकने का काम नहीं होगा. जिन दिनों और जब भूखी आंतों की ऐंठन को दबाना मुश्किल हो जाएगा, उन दिनों उनके सपनों मे रोटियां, आलू की सब्जी, और बेसन की रसदार तरकारी आयेंगी.

शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सहूलियतों और आर्थिक सामाजिक उन्नति के हिसाब से हम 1940-50 के दौर में विचर रहे होंगे. तर्क, औचित्य, विवेक से शून्य होकर पड़ोसी की जाति, गोत्र जानकर किलस रहे होंगे अथवा हुलस रहे होंगे. हम ऐसे विश्वगुरु होंगे जो ढंग का मास्क और सैनेटाइज़र भी नहीं बना सकता. हमारा आर्थिक विकास इतना सुविचारित होगा कि दुनिया का सस्ता डीजल, पेट्रोल हमारे यहां सबसे महंगा होगा. महामारी कोविड के दौर में हम मास्क, सैनेटाइज़र और किट पर जीएसटी वसूल रहे होंगे.

हमारी ताक़त का ये आलम होगा कि कोई कहीं भी हमारी सीमा में नहीं घुसा होगा, फिर भी हमारे बीस-बीस सैनिक बिना किसी युद्ध के वीरगति को प्राप्त हो रहे होंगे. दुश्मन सरहद पर खड़ा होगा और हम टैंक, जे.एन.यू. सरीखे विश्वविद्यालयों में खड़े कर रहे होंगे.

कोई खास मुश्किल नहीं है. बस थोड़ा अभ्यास करना होगा, उल्टे चलने और हमेशा अतीत की जुगाली करने और मिथकों में जीने की आदत डालनी होगी. शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, रोजगार, न्याय, समानता और लोकतंत्र जैसे राष्ट्रद्रोही विषयों को जेहन से जबरन झटक देना होगा. अखंड विश्वास करना होगा कि धर्म, संस्कृति, मंदिर, आरती, जागरण-जगराते, गाय-गोबर, और मूर्तियां ही विकास हैं, बाकी सब भ्रम है. यकीन मानिए शुरू में भले अटपटा लगे, पर यह चेतना बाद में बहुत आनंद देगी.

  • परमानंद अश्रुत और राजेश चन्द्र

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