कवि कारा में,
और हम बाहर,
लानत है !
कविता मूत में लपेट दी गई है,
और लाल झंडा झाड़न बना रखा है हमने,
लानत है !
कुंद है दरांती,
और हथोड़ा हवा में पत्ते सा पतिया रहा,
लानत है !
शिकवा शत्रु से नहीं,
एक दूसरे की पीठ खुजाते कवि मित्रों से है
और हम एंंगेल्स, मार्क्स, लेनिन पर
चर्चा में व्यस्त हैं,
लानत है !
मजदूर कारा में,
और युनियन उद्योग चला रही,
लानत है !
अंतड़ियों में भूख चीख रही है
मेहनतकशों की,
और हमारे नारे अभी गढ़े जाने बाकी है,
लानत है !
कवि का सर क़लम होने को है,
और हमारी क़लम
कल पर टाल रही है
क्रान्ति को,
लानत है !
- अशोक चौहान
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