तुम पर दया नहीं आती
क्रोध उपजता है एकलव्य
तुम पहचान नहीं पाये
कि जिसे तुम गुरु मानकर पूजते रहे
वह शिष्यहन्ता है, गुरु नहीं
गुर तो उसने तुम्हें दिये नहीं
जो भी गुर तुमने सीखे, स्वयं सीखे
और जो भी सीखे, उसने छीन लिये
तो फिर गुरुदक्षिणा काहे की ?
यह सवाल उठा तो होगा तुम्हारे मन में
फिर मुंंह क्यों नहीं खोले ?
तुम्हारी यह चुप्पी
मेरी छाती में शूल की तरह चुभती है एकलव्य
तुम पर करुणा नहीं उपजती
खीज आती है
कि जहांं तुम्हें प्रतिरोध करना था
वहांं तुमने घुटने टेक दिये
कि जहांं तुम्हें आवाज़ उठानी थी
वहांं मुंंह सिल लिये
तुम यह नहीं देख पाये
कि सत्ता के नमक के बोझ तले दबा व्यक्ति
भाड़े का टट्टू तो हो सकता है, गुरु नहीं
भाड़े के टट्टू को
गुरु समझने की भूल कर बैठे एकलव्य
यह भूल तुम्हारी श्रद्धा पर भारी पड़ गयी
तुम पर सहानुभूति नहीं उतरती
तुम्हारी भावुकता पर आक्रोश घेर लेता है
तुम्हारा कटा अंंगूठा मेरी आंंखों के सामने
उछल-उछल कर मुझे मुंंह चिढ़ाता है
और मैं आत्मग्लानि से भर जाता हूंं
कि जहांं तुम्हें विद्रोह का बिगुल फूंंकना था
कि जहांं तुम्हें उठा लेने थे तीर-धनुष
कि जहांं तुम्हें अधर्म को ललकारना था
वहांं अपनी बलि चढ़ा बैठे
और नाश कर बैठे अपना सर्वस्व
काश तुम लड़ते युद्ध उस शिष्यहन्ता से
यही न होता कि मारे जाते
अंंगूठा कटवाकर जिस तरह मारे गये
उचित होता कि अनाचार के विरुद्ध लड़कर मारे जाते
वह मृत्यु इस मृत्यु से श्रेयस्कर होती
मैं तुम्हें कैसे क्षमा कर दूंं एकलव्य ?
तुम्हें क्षमा करना अनर्थ और अत्याचार के विरुद्ध
हर लड़ाई को सिरे से ख़ारिज कर देना है
तुम्हें क्षमा करना छल और बेईमानी के
पक्ष में खड़ा हो जाना है
तुम्हें क्षमा करना
हर आततायी के समर्थन में
अपनी मुहर लगा देना है
- कुंदन सिद्धार्थ
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