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कालांतर में

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कालांतर में
जब दुनिया के सारे बम
बरस चुके होंगे
सारे युद्धक विमान
नष्ट हो कर धूल चाट रहे होंगे
और अकाल मृत्यु के सारे उपादान
काल कवलित हो कर
तुम्हारी स्मृति में गुंंथ जाएंंगे
नथुनों से ग़ायब होते
बारूद की महक की तरह
कुछ स्त्रियांं
फटे हुए बमों के खोखों में
उगा लेंगी फूल
कुछ मर्द
क्यारियांं बनाकर
कतारबद्ध करेंगे उन्हें
लेकिन,
पीछे हाथ बांंधे
युद्ध बंदियों की तरह नहीं
ये फूल बुलाएंंगे बच्चों को
खुले हाथों से
जैसे आज पुकारता है मुझे कभी-कभी
कफ़स की ऊंंचे, छोटे से रोशनदान से
नीला आसमान

शिव तांडव के संगीत में
सती के शव का परीक्षण
सतत चलता रहता है जब
कोई कोई सुन लेता है उसमें
बरसते सावन की लक्षणा
इस ह्रिंस समय की ताल पर
नाचते हुए
औघड़, भावशून्य मुखौटे
आदमी की बोटी-बोटी नोचकर
चढ़ा रहे हैं महाप्रसाद

व्यंजना की भाषा सीमित है
और खुले मैदान का युद्ध
छापामार लड़ाई से अलग है
वे खुले मैदान में खड़े हमारे विरुद्ध
छापामार युद्ध में व्यस्त हैं
खबरिया चैनलों और अख़बारों की
भाषा, भंगिमाओं से टपकता हुआ
आदमी का लहू
मरीज़ की धमनियों में डालकर
विद्रुप की हंसी हंसता है
तानाशाह
आत्महत्या के बीज
सघन अंधकार में प्रस्फुटित होते हैं
जानता है वह
इसलिए उसके पागलपन के पीछे
एक षड्यंत्र होता है
जिसे रूप देने के लिए
सदियों जागा है वह

कुछ दिनों की बात है
किसी का अभीष्ट पूरा नहीं होता यहांं
सर्वनाश का अभीष्ट तो कभी नहीं
कुछ दिनों की बात है
लड़ो
और अगर मरना भी पड़े
तो याद रहे कि
तुम्हारी मुठ्ठियां बंद रहे
तुम सिकंदर नहीं हो
तुम ख़ाली हाथ नहीं जा रहे हो दुनिया से
तुम्हारे साथ जा रहीं हैं
तुम्हारी उन लड़ाईयों की स्मृतियांं
जिन्हें तुमने औरों के लिए लड़ा
अपने साथ-साथ
तुम बस एक नाविक हो
अपने सख़्त हाथों में
धारा के विपरीत खेते हुए नाव

कोई तो पार उतरेगा
कुछ तो बचा रखती है पृथ्वी
नदी के उस पार
पृथ्वी के जूड़े में
फूल टांंकतीं कुछ स्त्रियांं
हल चलाते कुछ पुरुष
और शोर मचाते कुछ बच्चे
जो एक दिन बनाएंंगे
एक नई भाषा
लक्षणा और व्यंजना से परे
चित्रलिपी सा सरल
गुफा चित्र सा निर्मल.

  • सुब्रतो चटर्जी

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ROHIT SHARMA

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