सोशल मीडिया पर अवनीश कुमार लिखते हैं –
सेनेटाइजर और साबुन से हाथ धोते-धोते
‘पैसे वाली लकीर’ भी
मिटती दिख रही है.
और
ना धोंये तो …
‘उम्र वाली लकीर’ मिटती दिखती है…
भरे बाजार देखता हूंं तो लगता है
कोरोना दुनिया में आया ही नहीं.
और
न्यूज़ चैनल देखूं तो लगता है
अब कोई जिन्दा बचेगा ही नहीं !
महाभारत की तरह 21 दिन में कोरोना को हराने का दावा करने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लॉकडाऊन के 100 बीतने और ताली, थाली, शंख, टॉर्च वगैरह बजाने और जलाने के बाद भी कोरोना के खेल को समाप्त नहीं कर पाये हैं. इससे स्वतः ही लोगों को कोरोनावायरस के आतंक से मुक्ति मिलने लगी है. अस्त-व्यस्त जनजीवन एक बार फिर पटरी पर आने लगा था.
कोरोनावायरस के इस आतंक से मुक्ति का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि कोरोना से लोगों से जहां मृत्यु कम हो रही है उससे कहीं ज्यादा लोगों की मौते भूख, थकान, हताशा, आर्थिक संकट, आत्महत्या और दूसरे बीमारियों से हो रही है. इससे भी ज्यादा भयावह स्थिति यह है कि कोरोनावायरस और लॉकडाऊन के नाम पर हजारों लोगों की पुलिस ने पीट पीटकर हत्या कर दी है. महज मास्क न पहनने के कारण सैकड़ों लोगों की पुलिस ने हत्या कर दी अथवा अपमानित किया.
अब जब लोग कोरोनावायरस के नाम पर चलने वाली इस लॉकडाऊन के आड़ में भाजपा सरकार के राजनैतिक महत्वाकांक्षा को जानने और समझने लगे हैं तो स्वभाविक तौर पर लोगों में कोरोनावायरस का आतंक कम होने लगा. ऐसे में यह बिल्कुल संभव है कि विज्ञापन के तर्ज में ‘सदी के महानायक’ का इस्तेमाल कोरोना के आतंक को एक बार फिर लोगों के दिमाग में बैठाया जाने लगा है. यह निश्चित तौर पर संभव है कि अमिताभ बच्चन को कोरोना होना महज लोगों के दिमाग में कोरोना का आतंक बिठाना भर है.
यह अनायास नहीं है कि एकाएक ताली थाली पीटने वाला बच्चन परिवार, संघी दलाल अनुपम खेर समेत अनेक बॉलीवुड कलाकारों के कोरोना पॉजीटिव होने की खबरें टेलीविजन चैनलों पर धड़ाधड़ चलने लगा. लोग दहशत में आ जाये, इसके लिए बकायदा न्यूज चैनल चिग्घाड़ने लगा. भाजपा अपने जरूरत के हिसाब से लॉकडाऊन लागू करने लगा. दरअसल लोगों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए कोरोनावायरस और लॉकडाऊन के रुप में सबसे सफल तरीका ढ़ूंढ़ लिया गया है.
सोशल मीडिया पर लिखते हुए पत्रकार संजय मेहता कहते हैं – झारखंड में जितने भी मंत्री और पत्रकारों को कोरोना पॉजिटिव बताया गया है, यह 100 प्रतिशत दावे के साथ कह रहा हूंं, किसी को कुछ नहीं होगा. अगले सात से दस दिनों में सबके ठीक होने की खबर आ जाएगी.
बिना मतलब के पॉजिटिव केस के नाम पर डर पैदा करने का यह खेल अब बंद होना चाहिए. जनता पूरी तरह से त्रस्त हो चुकी है. सबको इस खेल के अंदर की बात समझ आने लगी है. कोरोना के नाम पर इतना बड़ा षडयंत्र हमारे – आपके साथ कर दिया गया है, जिस घाव को भरने में वर्षों लग जाएंगे.
आखिर डर को दूर करने के प्रयत्न के बजाए डर को कायम रखने की चाल राष्ट्रीय स्तर पर क्यों चली जा रही है ? कोरोना से अधिक मृत्यु भूख, आत्महत्या, बेरोजगारी, दुर्घटना के कारण हो चुकी है. फिर भी निर्दयी सरकार को इतनी-सी बात समझ नहीं आ रही है.
अंतराष्ट्रीय साजिशों का हिस्सा बनाकर विदेशी ताकतों ने हमें भी अपने जाल में फंसा लिया है. अपने मुल्क में राजनेताओं द्वारा इस जाल में फंस जाने और देश के आमलोगों को बर्बाद होते देखना रुला रहा है.
अधिकारी, मंत्री, अफसर, नौकरशाह सबको पता है असली मामला क्या है ? लेकिन गृह मंत्रालय से एक आदेश निकलता है. वह सभी राज्य के मुख्यालय पहुंंचता है, राज्य मुख्यालय से डीएम ऑफिस पहुंंचता है और डीएम ऑफिस से आपके मुहल्ले में आदेश का असर दिखाई देने लगता है.
नौकरशाह भी मजबूर हैं। वे सरकार के खिलाफ जा नहीं सकते। यह सब नाटक अभी अक्टूबर तक चलते रहने की संभावना है. इसने हमारे जीवन को तबाह कर दिया है. हर एक आम भारतीय को यह आवाज बुलंद करनी चाहिए कि हमारे जीवन को पटरी पर लाया जाए. आखिर कब तक यह सब सहते रहेंगे. गरीब आखिर भूखा क्यों मरे ? क्यों उसे सताया जा रहा है ?
संजय मेहता आगे लिखते हैं, ‘वैसे एक बात यह स्पष्ट करना चाहता हूंं लॉक डाउन अभी खत्म नहीं होगा. आपको सिर्फ उतनी ढील दी जाएगी जितने में आप जिंदा रह सकें. आप गुस्सा न जाएं. आम आदमी बौखला न जाए इसलिए अनलॉक जैसे शब्द में आपको यह भरोसा दिलाया गया कि अब सब खुल जाएगा. असल में अनलॉक भी लॉक डाउन ही है. वह आपको पूर्व स्थिति में कभी नहीं जाने देगा. थोड़ा ढील देंगे, फिर बंद करेंगे और फिर थोड़ा ढील देंगे. यह क्रम चलता रहेगा.
आम आदमी को इतना डरा दिया गया है कि उसे मौत की सिर्फ खबर दिखाई और सुनाई जा रही है. दुःख की सीमा इस कदर बढ़ गयी है कि मुल्क के नेतृत्व से पूरा भरोसा उठ गया है. यह दावा सौ प्रतिशत है कि यह मुल्क इस वक्त विदेशी ताकते नियंत्रित कर रही है. यहांं की सत्ता और सियासत उसकी कठपुतली मात्र है.
जब तक आम आदमी सत्ता से सवाल नहीं करेगा, कुछ नहीं होने वाला है. हम सब इतने बेवकूफ बन गए हैं कि अपने शरीर और खानपान से ज्यादा 4 इंच के कपड़े पर विश्वास ज्यादा प्रबल हो गया है. इस एजेंडा की ताकत को इस उदाहरण से समझ सकते हैं.
कोरोनावायरस ने एक बात साबित कर दिया है कि इस मुल्क के भीतर बहुत बड़ी वैचारिक शून्यता है और आम आदमी के सोचने – समझने की शक्ति को खत्म किया जा चुका है. यहांं लोग मंदिर – मस्जिद के नाम पर खून बहा देंगे, लेकिन अपने रोजगार और हक का सवाल नहीं पूछेंगे. इससे बड़ी बेवकूफी और क्या हो सकती है ?
संजय मेहता आगे कहते हैं – ‘कोरोनावायरस के कारण स्कूल, कॉलेज और अन्य संस्थाओं को बंद रखने के पीछे एक बात यह समझ मेें आ रही है कि इस बंदी के पीछे भी वैक्सीन का एक खेल है. ऐसा इसलिए कह रहा हूंं क्योंकि अगर स्कूल, कॉलेज, सभी ऑफिस खोल दिए जाएंगे तो सच का भंडाफोड़ हो जाएगा क्योंकि संस्थाओं को खोल देने के बाद कोई भी Covid-19 से बीमार होगा ही नहीं, यह सत्ताधारियों को भी पता है, इसलिए डर बना के रख रहे हैं और अभी भी बीमारी को जबरन खोज रहे हैं.’
घटते कोरोनावायरस के आतंक को एक बार फिर लोगों के दिमाग में बिठाने के लिए बच्चन खानदान और संघी एजेंट अनुपम खेर समेत अनेक फिल्मी हस्तियों को बतौर विज्ञापन इस्तेमाल किया गया है. यह ठीक उसी तरह है जैसे साबुन और तेल की डिब्बियां बेचने के लिए इन फिल्मी हस्तियों की प्रतिष्ठा का इस्तेमाल करोड़ों रुपए देकर किया जाता है. न तो किसी किसी को कोरोनावायरस हुआ है और न ही किसी को इससे आतंकित होने की जरूरत है.
यह अक्षरसः सच है कि सरकार के खिलाफ किसी भी प्रकार का प्रतिरोध और असंतोष को रोकने के लिए इस आतंक का फायदा उठाया जा रहा है, कोरोनावायरस का इससे ज्यादा कोई महत्व नहीं है.
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