रिटायर सैन्य अधिकारियों का बस एक ही काम है – वह है युद्धोन्माद भडकाना. बक्शी से जैसे लोग इसका टिपिकल नमूना हैं. इनकी जबान पर लगाम लगनी चाहिए. – राम चन्द्र शुक्ल
जब हम कभी सेना की आलोचना करते हैं तो कुछ लोगों को ऐसी मिर्ची लग जाती है कि वे अपने को देशभक्त और ना जाने क्या-क्या साबित करने के लिये हमारे जैसे लोगों को देशद्रोही, गद्दार जैसे विशेषणों के साथ मां-बहन की गाली तक पर उतर आते हैं. इसमे ज्यादातर लंठ ठाकुर, पोंगा पंडित और लुटेरे टेनीमार बनियों सहित मूर्ख लंपटों, लफंगों की तादाद होती है.
हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं. देश का एक संविधान है. चुनी हुई विधायिका है. एक स्वतंत्र न्यापालिका है. भारी भरकम एक कार्यपालिका है. चौथा खंभा के नाम से जानी जाने वाली मीडिया है जो आजकल पूर्ण रूप से सत्ता की चेरी बन चुकी है, सबकी अपनी अपनी लक्ष्मण रेखा है.
संविधान में सबके कर्तव्य और अधिकार स्पष्ट रूप से निर्धारित है, उसी के तहत एक चुनी हुई सरकार होती है जो संविधान के बताये हुये रास्ते पर देश की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाती है.
वैसे सभ्य समाज में सेना जैसी किसी संस्था की जरूरत ही नहीं होना चाहिये लेकिन दुनियां की सरकारें जनता की सुरक्षा के नाम पर, देश पर बाहरी आक्रमण के नाम पर अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिये सेना का गठन करती है.
दुनियां की सबसे मजबूत सेना के बल पर ब्रिटेन का सूरज कभी नहीं डूबता था, वही ब्रिटेन एक निहत्थे फकीर से हार मान लिया. क्या भारत की आजादी सेना ने दिलायी है ? गांधी का कहना था कि हिंसा के द्वारा प्राप्त किया हुआ राज्य अहिंसक हो ही नहीं सकता.
खैर, सेना लोकतंत्र में जनता और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर एक गैर जरूरी आवश्यक बुराई के अलावा कुछ भी नहीं है, इसीलिये सेना को बैरक में रखा जाता है. जब जरूरत हो तभी उसका उपयोग किया जाना चाहिये. सेना के अफसरों में पहले भी पावर संघर्ष रहती थी.
सेना के विशेष ट्रेनिंग प्राप्त जनरल जिनकी स्कूली शिक्षा मात्र हाई स्कूल से ज्यादा नहीं होती. ये किसी कालेज या विश्वविद्यालय का मुंह भी नहीं देखे होते. इनकी ट्रेनिंग ही ऐसी दी जाती है कि सामने वाले को दुश्मन समझकर ही व्यवहार करना होता है. इनको आंतरिक मसलों में खासकर राजनिति से दूर एक प्रोफेशनल बल की तरह रखा जाता है.
ये बैरक से तभी बाहर लाये जाते हैं, जब दूसरे देशों से सभी राजनयिक, कूटनीतिक प्रयास फेल हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में जंग ही विकल्प रह जाता है. लेकिन ये बात मैं गांधी के देश के बारे में कर रहा हूंं, न कि गांधी के हत्यारों के देश के बारे में.
सरकारें अपनी कूटनीतिक संवाद को कभी बाहर नहीं आने देती. इस सवाल पर सभी राजनीतिक दल जो सरकार चलाने की मंशा पाले रहती है, एक होती हैं. देश कभी नहीं जान पाता कि ये अंदर-अंदर क्या बात करते हैं, वार्ता क्यूं फेल हुई ? फिर ये जनता में अपने देश के प्रति भावनात्मक ज्वार संचार माध्यमों, मिडिया, टेलीविजन, सिनेमा के द्वारा पैदा करते हैं.
जनता के किसी भी प्रकार के प्रश्न या जिज्ञासा को जानने के संवैधानिक अधिकार पर पहरा लगा देते हैं. और अगर कोई तार्किक प्रश्न पूछता है तो इनके लंपट, लफंगे तुरंत उस व्यक्ति को देशद्रोही करार देकर ट्रोल करना शुरू करते हैं. सेना को भगवान का दर्जा देने का ढोंग करने लगते हैं.
अगर जवान बार्डर पर कुत्ता काटने से भी मरता है तो मिडिया, सत्ता में बैठे हुये लंपटों और सत्ता की चाहत रखने वाले विरोधी दलों के लंपटों में ‘शहीद’ की घोषणा करने की होड़ लग जाती है. कोई नौकरी देने की मांग करने लगता है. सरकार में बैठे हुये लोग घडि़याली आंंसू बहाकर रूपये के साथ-साथ पत्नी, बेटों को नौकरी, घर, मकान, जमीन, गैस एजेंसी, पेट्रोल पंप देने की घोषणा करने लगते हैं. शहीदके नाम रोड, शहीद के नाम मैदान का नाम रखकर जनता को मूर्ख बनाने का काम करने लगते हैं.
कुछ दिन बाद वही तथाकथित शहीद की विधवा सरकारी डपोरशंखी घोषणा पत्र लेकर इस आफिस-उस आफिस, बाबूओं के टेबुल-टेबुल दौड़कर हार जाती है, तब तक दूसरा शहीद पैदा हो जाता है. मेरी बात का विश्वास न हो तो अपने आस-पास किसी शहीद के विधवा से पूछकर देख लें.
गांधी-नेहरू ने कभी सेना के नाम पर वोट नहीं मांगा, लेकिन आज गांधी के हत्यारों के विचार वालों की सरकार है. सेना को बाहरी तौर पर भगवान बनाते हैं और अंदर से अपनी सरकार के करिंदे से ज्यादा का दर्जा नहीं देते. सेना से रिटायर होकर जनरलों का राजनितिक सत्ता पाने का लोभ सेना के प्रोफेशनलिज्म को कलंकित करता है. वी. के. सिंह, बख्शी जैसे लोग कलंक से ज्यादा कुछ नहीं.
सेना का मतलब जवान नहीं होता. जवानों की देशभक्ति उसके अफसर के आर्डर तक ही होती है. जवान अनुशासन के नाम पर अपने अफसर का गुलाम होता है और उसका अफसर सरकार की गुलाम. यह गुलामी देशभक्ति और अनुशासन के नाम पर होता है. सेना का मतलब आजकल देश की सुरक्षा कम सरकार की सुरक्षा ज्यादा कर रही है.
सेना का मतलब कमजोर को सताना और मजबूत का तलुआ चाटना भर रह गया है. फासिस्ट नेता सत्ता के लिये सेना का दुरूपयोग कर रहे हैं. 130 करोड़ की जनता की सुरक्षा 10 लाख सेना के हवाले करके हम सोते हैं, वाह क्या लॉजिक है ? तो १२ करोड़ वाला देश पाकिस्तान से हमको खतरा है ? नेपाल अपनी सेना के बल पर हमको आंंख दिखा रहा है.
ये सरकार मे बैठे हुये लोग सेना को महान कहकर अपना उल्लू सीधा करते हैं. किस संविधान में लिखा है कि सेना की आलोचना नही करनी चाहिये ? चाहे वह कुछ भी करे. सेना बलात्कार करे ? सेना तस्करी करे, लेकिन उसका आलोचना देशद्रोह है, वाह ! और न्यायपालिका प्रोफेशनल न होकर राजनीति करने लगे और रिटायर के बाद सत्ता से पद का लोभ करे तो ऐसी न्यायपालिका और सेना लोकतंत्र के लिये कलंक है.
सरकार की संसद, विधायिका, कार्यपालिका पहले ही औचित्यविहिन बनकर रह गयी है. पुलिस तंत्र अपराधी तंत्र को भी मात दे रही है. बची थी सेना, उसका भी तेजी से राजनीतिकरण किया जा रहा है. सेना के जनरल अब सेना के जनरल न होकर सरकारी पार्टी के जनरल बन रहे हैं.
जिस CDS के पद को नेहरू पटेल ने सेना की तानाशाही को खतम कर, लोकतंत्र की मजबूती के लिये खतम किया, आज उसे फासिस्ट सरकार फासिज्म को लाने के लिये फिर से जिंदा कर दिया है. कल्पना करिये जिस दिन सेना हमारे आंतरिक गतिविधियों मे हस्तक्षेप करना शुरू कर देगी तो देेश का होगा ?
दुनियां के किसी भी देश की सेना का क्लब उस देश की सबसे मजबूत क्लब होती है. लोकतंत्र मे नीतिगत फैसले सेना नहीं सरकार करती है, सेना सिर्फ उसका पालन करती है. हर बार सरकार के आर्डर पाने के बाद सेना सरकार को भी नहीं बताती कि उसकी रणनिति क्या है ?
सेना कमजोर देश पर हमला करके बहादुरी की तमगा लेती है और जनता में सम्मान पाने की लालसा पालती है, वही सेना मजबूत देश की तलुये चाटने लगती है. आज चीन का ताजा उदाहरण सामने है. प्रधान सेवक कहते हैं कि चीन ने कोई कब्जा नही किया है, तो प्रश्न खड़ा हो जाता है कि तब 20 सेना के जवान क्यूं मारे गये ? आज सूचना मिल रही है कि दो दो किलोमीटर सेना पीछे हटी है. अगर कब्जा नहीं तो हटी क्यूंं ?
जंग अपने आप में एक मसला है, जंग से किसी समस्या का समाधान नहीं होता. आम जन जीवन का जो नुकसान होता है उसकी भरपायी होने में वर्षों लग जाते हैं. कूटनीतिक और राजनयिक समाधान ही जंग को रोकने का तरीका है और कुछ नहीं.
- डरबन सिंह
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