भूख

3 second read
0
0
2,279

भूख

भूख

भूख पुरानी नहीं पड़ती
बासी रोटी की तरह
भूख से सनी कविताएंं भी
डेग डेग पर गुंंथी रहती हैं
तुम्हारे मन, शरीर में
आटे में नमक की तरह

उनकी विद्रूप भंगिमाएंं
पिचके हुए पेट को
शरीर, मन के मानचित्र से
अलग-थलग करने का
बस एक भोंडा प्रयास है

उनकी कोशिश है कि
शरीर को रोटी ख़रीदने के
सिक्के में ढालकर
तुम्हें अलग-अलग
वर्दी पहना दी जाए
और वेश्या घरों में
रोशनी के इर्द गिर्द नाचते
पतंगों की तरह
सुबह होने से काफ़ी पहले
तुम ज़मीन पर पड़े रहो
लुटे पिटे
हारे हुए जुआरी की तरह

अपच पीड़ित लोग
मुंंह में स्राव भरकर
पिच्च से थूकते हैं
ज़मीन पर
और बन जाती हैं कई नक्काशीदार धब्बे
बसंत, प्रेम और विरह का अनुलोम-विलोम
बारी-बारी से आते-जाते
यांत्रिक हाथों से मिटाता है मिट्टी
वहीं उपरी परत
जिसके डेढ़ हाथ के अस्तित्व के नीचे
कोई कविता नहीं उगती
गेंहू के दाने बनकर

अंधी गलियों में
आंंखों पर पट्टी बांधकर जाना भी
एक कौशल है लेकिन
ज़रा सुन कर बताना
कितना फ़र्क़ होता है
जमूरे के करतब पर बजती हुई
करताल की ध्वनि में
और, सुबह के परिंदों की
चहचहाहट में

जीवन संगीत
कभी बासी नहीं होता
भूख की तरह
बासी रोटी पर उगे फंफूद
जानलेवा होते हैं दोस्त.

  • सुब्रतो चटर्जी / 6.7.2020

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

  • मनुष्यता

    मनुष्य के लिए भूख जितनी जरूरी है उतना ही जरूरी है अवसर की समानता उतनी ही ज़रूरी है प्रत्ये…
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

    कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा …
  • मेरे अंगों की नीलामी

    अब मैं अपनी शरीर के अंगों को बेच रही हूं एक एक कर. मेरी पसलियां तीन रुपयों में. मेरे प्रवा…
  • मेरा देश जल रहा…

    घर-आंगन में आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन. तन जलता है…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…