भूख पुरानी नहीं पड़ती
बासी रोटी की तरह
भूख से सनी कविताएंं भी
डेग डेग पर गुंंथी रहती हैं
तुम्हारे मन, शरीर में
आटे में नमक की तरह
उनकी विद्रूप भंगिमाएंं
पिचके हुए पेट को
शरीर, मन के मानचित्र से
अलग-थलग करने का
बस एक भोंडा प्रयास है
उनकी कोशिश है कि
शरीर को रोटी ख़रीदने के
सिक्के में ढालकर
तुम्हें अलग-अलग
वर्दी पहना दी जाए
और वेश्या घरों में
रोशनी के इर्द गिर्द नाचते
पतंगों की तरह
सुबह होने से काफ़ी पहले
तुम ज़मीन पर पड़े रहो
लुटे पिटे
हारे हुए जुआरी की तरह
अपच पीड़ित लोग
मुंंह में स्राव भरकर
पिच्च से थूकते हैं
ज़मीन पर
और बन जाती हैं कई नक्काशीदार धब्बे
बसंत, प्रेम और विरह का अनुलोम-विलोम
बारी-बारी से आते-जाते
यांत्रिक हाथों से मिटाता है मिट्टी
वहीं उपरी परत
जिसके डेढ़ हाथ के अस्तित्व के नीचे
कोई कविता नहीं उगती
गेंहू के दाने बनकर
अंधी गलियों में
आंंखों पर पट्टी बांधकर जाना भी
एक कौशल है लेकिन
ज़रा सुन कर बताना
कितना फ़र्क़ होता है
जमूरे के करतब पर बजती हुई
करताल की ध्वनि में
और, सुबह के परिंदों की
चहचहाहट में
जीवन संगीत
कभी बासी नहीं होता
भूख की तरह
बासी रोटी पर उगे फंफूद
जानलेवा होते हैं दोस्त.
- सुब्रतो चटर्जी / 6.7.2020
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