हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
24 मार्च को जब प्रधानमंत्री ने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी तो अर्थव्यवस्था की बदहाली और भुखमरी की आशंकाओं के बीच फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया की ओर से आश्वस्त करने वाला एक बयान आया था, ‘हमारे पास अनाज का इतना स्टॉक है कि हम पूरे देश को अगले 18 महीने तक खिला सकते हैं.’ सघन होते अंधेरों के बीच एफसीआई का यह कहना सच में बहुत आश्वस्त करने वाला था कि और चाहे जो हो, अनाज की कमी नहीं होने वाली. इसके कुछ ही सप्ताह बाद मौसम वैज्ञानिकों ने आने वाले मानसून के सामान्य से कुछ बेहतर ही रहने की भविष्यवाणियां की तो देश के खाद्य तंत्र पर भरोसा और बढ़ा.
खबरों में हम अक्सर देखते-पढ़ते रहते हैं कि हमारे सरकारी गोदामों में रख-रखाव के प्रति लापरवाही के कारण करोड़ों क्विंटल अनाज सड़ जाते हैं. जब भी हम सड़ते हुए, बर्बाद होते अनाज की बोरियों के चित्र टीवी पर या अखबारों में देखते हैं तो बरबस हमें उन रिपोर्ट्स की भी याद हो आती है जिनमें कहा जाता है कि भूख से लड़ने वालों की सबसे बड़ी संख्या भारत में ही है, कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषितों की संख्या भारत में ही है. यहां तक कि सार्क देशों के अन्य सभी सदस्य देश भी इस मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं.
2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि हमारे देश में 2.1 करोड़ टन सिर्फ गेहूं बर्बाद हो जाता है क्योंकि हमारे खाद्य तंत्र के पास उन्हें सहेजने की न तो इच्छाशक्ति है न आधारभूत संरचना. रिपोर्ट बताती है कि जितना गेहूं ऑस्ट्रेलिया उत्पादित करता है, उतना तो हम सड़ा-गला देते हैं. यह तो सिर्फ गेहूं की बात है. और भी कई तरह के अनाज हैं जो लाखों टन की मात्रा में हर साल सड़ जाते हैं हमारे देश में. तो, उत्पादन का शानदार रिकार्ड रहने के बावजूद संग्रहण, विपणन और वितरण के मामलों में हमारे देश की व्यवस्था बेहद लचर है, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाजा अति-निर्धन तबका उठाता रहा है.
इस आलोक में हमारे प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने आए, जिसे लेकर एक वर्ग आशंकित था कि पता नहीं, त्याग और बलिदान जैसे भावनात्मक शब्दों का उच्चारण करने के बाद वे हमसे क्या छीन लेने वाले हैं, जबकि एक वर्ग आशान्वित था कि पता नहीं कौन-सी कल्याणकारी घोषणाएं करने वाले हैं. चीन के मामले को लेकर तो कयास लग ही रहे थे. लेकिन, तमाम आशाओं और आशंकाओं के बीच उन्होंने जो बातें की उनको सुनने के बाद बहुत सारे लोगों को लगा कि क्या सिर्फ ऐसी घोषणा करने के लिये भारत गणतंत्र के प्रधानमंत्री को देश को संबोधित करने आना जरूरी था ? यह सूचना तो एक सरकारी विज्ञप्ति के माध्यम से दी जा सकती थी.
टीवी स्क्रीन्स पर प्रधानमंत्री नमूदार हुए, लोगों की धड़कनें बढ़ीं, आशंकाओं और आशाओं का ज्वार उमड़ा लेकिन ओह ! यह भी कोई बात नहीं हुई ! 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त गेहूं या चावल देते रहने की समय सीमा 3 महीने के लिये बढ़ा दी गई. उल्लेख तो गेहूं और चावल जैसे दो प्रमुख अनाजों का है, लेकिन इसमें ‘या’ शब्द पर गौर करने की जरूरत है. बहरहाल, एक किलो चना भी. जो लोग ‘चीन’ शब्द के उल्लेख की प्रत्याशा में थे, उन्हें मात्र चना शब्द सुनकर थोड़ी निराशा हुई होगी, लेकिन, जो भूख से त्रस्त हैं उनके लिये चीन से अधिक चना ही प्रासंगिक शब्द था.
चर्चाएं शुरू हो गईं कि प्रधानमंत्री के इस बहुचर्चित संबोधन में निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग को क्या मिला ? जिनमें बड़ी संख्या में लोग नकदी के संकट से बुरी तरह जूझ रहे हैं. होटल और पर्यटन उद्योग, प्राइवेट स्कूल सहित कई तरह के क्षेत्र इस संकट में जमीन सूंघने लगे हैं और इनमें नौकरी कर रहे लोगों के पास खतरनाक ढंग से नकदी का अभाव हो गया है. निकट भविष्य में हालात सुधरने के भी कोई लक्षण नहीं दिख रहे. मध्यवर्गीय आत्मसम्मान उन्हें झोला लेकर अनाज वितरण की लाइन में खड़े होने से रोकता रहा है, लेकिन, हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि हम निजी स्कूलों के कई शिक्षकों को मनरेगा में मजदूरी करते देख चुके हैं. परसों तक जो अपनी कंपनी का एरिया मैनेजर था, कल बेरोजगार हो गया और आज उसकी आर्थिक स्थिति अकल्पनीय रूप से खराब हो चुकी है.
वैचारिक रूप से प्रायः खोखले इस वर्ग ने बीते वर्षों में मोदी गान में अपना सुर बहुत ऊंचा बनाए रखा था लेकिन आफत के काल में सत्ता ने इन्हें आईना दिखाने में जिस निर्ममता का परिचय दिया है, उसकी मिसाल दुनिया के किसी भी ज़िन्दा देश में शायद ही मिले. ऐसा नहीं है कि मध्य वर्ग इस संकट काल में अपनी आर्थिक भूमिका नहीं निभा रहा. सरकारीकर्मियों और पेंशनभोगियों के महंगाई भत्ते की तीन किस्तें फ्रीज कर दी गईं. रिपोर्ट बताती हैं कि सिर्फ इससे ही एक लाख बीस हजार करोड़ रुपयों की बचत सरकार को होने वाली है. इसके अलावा एक दिन का वेतन सेना, पुलिस, सरकारी ऑफिस से लेकर सरकारी शिक्षकों ने भी दिया है, यह भी बड़ी रकम होती है.
संकट के नाम पर पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढाते जाना और इनकी कीमतों को इतिहास के उच्चतम स्तरों पर पहुंचा देना, जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इनकी कीमतें नीचे गिरने के प्रतिमान स्थापित कर रही हैं, सबसे अधिक निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग को ही चोट पहुंचाने वाला है.
पता नहीं, पीएम केयर फंड का क्या फंडा है. सुना है, देश-विदेश से उसमें भी लोगों ने योगदान दिया है. नहीं पता, किसने कितना दिया, कितनी राशि एकत्रित हुई, उनका विनियोग कहां हो रहा है ?
5 किलो गेहूं…’या’…चावल और एक किलो चना. करोड़ों टन अनाज सड़ा कर फेंक देने वाले इस देश के लिये गरीबों के हित मे किया जाने वाला यह वितरण कोई इतनी उल्लेखनीय बात भी नहीं है कि इसका ढिंढोरा पीटने सर्वोच्च नेता सामने आए. हालांकि, चलिये, अच्छा है. कुछ नहीं से तो बेहतर है, खास कर उनके लिये जो अन्न से भी महरूम हैं लेकिन, इसके वितरण की समय सीमा बढाने की घोषणा करने स्वयं प्रधानमंत्री को आना पड़े और, बाकी जरूरतों पर कोई चर्चा तक न हो, जबकि अनेकानेक देशों ने इस संदर्भ में अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, तो मानना होगा कि हमारा सत्ता तंत्र रोजगार और आत्मविश्वास खो चुके उन मध्यवर्गीय लोगों के लिये बेहद बेरहम है जो इस सत्ता के मजबूत आधार रहे हैं.
वैचारिक खोखलापन क्या होता है ? जब आप स्वयं के हितों के साथ ही बृहत्तर समाज के व्यापक हितों को समझने की स्थिति में नहीं रह जाते हैं, इस बारे में सोचने से भी इन्कार कर देते हैं और उन्हीं शक्तियों के राजनीतिक खेवनहार बन जाते हैं जो आर्थिक रूप से आपको चूसने के सिवा आपके लिये कुछ और बेहतर नहीं कर सकते. सुनते हैं, सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर टैक्स की किस्तें बढ़ा बढ़ा कर ही राज्य और केंद्र सरकारों ने बीते महीनों में लाखों करोड़ रुपये बनाए हैं.
बहरहाल, हिसाब जोड़िये कि ईएमआई जमा करने में छह महीनों की ‘छूट’ के बाद आप पर बैंकों ने इस अवधि के ब्याज का कितना बोझ डाल दिया है ? विशेषज्ञ बता रहे हैं कि आज 6 किस्तें जमा नहीं की तो भविष्य में इसके बदले 10-12-18 अतिरिक्त किस्तें तक भरने के लिये तैयार रहिये. यह ऐसी व्यवस्था है जो आपका रक्त चूस कर ही फलने-फूलने वाली है. इसको अपने कंधे पर सिर्फ उठाए रखने के लिये ही नहीं, सतत तौर पर विचारहीन समर्थन देने का निष्कर्ष झेलने के लिये भी सबको तैयार रहना चाहिये.
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